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कविता: आज की आवश्यकता
एक वरिष्ठ प्रकाशक से मैने पूछा कि क्या वे मंरी कविताएँ प्रकाशित करेंगे? उन्होने उत्तर दिया – अब कविताओंका युग नही रहा, आप कविताएँ क्यों लिखती हैं?
मै सन्न रह गई। कविताओं का भी कोई युग होता है क्या?
आज क्या कविताएँ निरर्थक है?
व्यक्ति और समाज के सच को उजागर करने में कविताएँ अक्षम हैं?
एक विकसित समाज की कल्पना मे, मनोभावों, संवेदनाओं, समाजजन्य, प्रकृतिजन्य, विश्वजन्य अनुभूतियों का कोई स्थान नहीं?
मुझे तरस आ रहा था एक विद्वान प्रकाशक के मंतव्य पर। पत्र पत्रिकाओं का एक प्रबुद्ध प्रकाशक जो राजनीति के घृणित छल-प्रपंचों, समाज मे फैले विष को उजागर करने में रुचि तो रखता हो पर मानवीय संवेदनाओं को सिरे से नकार देने को तत्पर हो।
कविता किसी एक युग की सम्पत्ति कभी नहीं रही। साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का इतिहास कविता की सार्थकता की कथा कहता प्रतीत होता है ।
कविता चरम अनुभूतियों की साक्षी होती है-चाहे वह दुख हो, सुख हो, प्रकृति के विविध रूप हों, ब्रह्माण्ड के विविध चमत्कारिक स्वरूप ही क्यों न हों। समस्याएँ हों-राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक। वास्तविकताएँ हों-नागरी, ग्रामीण और वैयक्तिक जीवन की। संस्कृति हो-हमारी,आपकी, उनकी, देश-विदेश की, विश्व के कोने-कोने की-। उन सब को उजागर करने, हृदय के कोनों तक पहुँचाने का कार्य कविता पूरी सक्षमता से कर सकती है। हृदय की गहराईयों से हृदय की गहराईयों तक सेतुबंध का कार्य कविताएँ करती हैं। देशकाल से परे हृदय की गहनतम सच्चाईयोँ को लयात्मक अभिव्यक्ति देकर हृदय मात्र के लय से जोड़ देने का कार्य कविताएँ करती हैं।
मानव को मानव संस्कृति का बोध कराने में आदियुग से वाल्मीकि, तुलसी कबीर सूर,रहीम,नानक आदि ने जो भूमिका अदा की है, उसको विस्मृत कर देना देश के पूरे इतिहास को विस्मृत कर देना है। अगर हम सिर्फ आधुनिक काल में जीना चाहते हों तो स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात् के इतिहास में झाँककर सहज ही देख सकते है कि एक स्वस्थ मानसिकता के निर्माण में आधुनिक काल के कवियों का कितना योगदान रहा है। भारतेन्दु, गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला, परवर्ती प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और इन समस्त वादों के बंधनों से मुक्त हो बंधनों से मुक्त हो नयी कविता के कवियों ने युग की कमियों, विशेषताओं उपलब्धियों के अन्तस में डूबकर नये प्रतीकों,प्रतिमानों और नयी सोंच, नये विषय,नये आदर्शों के सहारे आधुनिक भौतिकता से ग्रस्त तकनीकी दुनिया से उत्पन्न विरोधी मानसिकता एवं नैराश्ययुक्त देश के जनजीवन को छूते हुए, जनमानस को नयी दिशाएँ देने का प्रयत्न किया है, उसे भी विस्मृत नहीं कर सकते।
युग की बर्बरता,औद्योगीकरण की संवेदनहीनता, समाज में फैलती हुई मूल्यहीनता को सशक्त स्वर और अभिव्यक्ति देने के लिए कविताओं ने छन्द के बंधनों को तोड़ कर भावनाओं की लयात्मकता के सहारे युग के साक्षात् को बल प्रदान किया।
कविताएँ हर युग की संवेदनावाहिका हैं। सच पूछिये तो आज जनजीवन को,स्वयं को निपट स्वार्थपरता के गर्त से उबारने,मूल्यों से जोड़ने के लिए जिन मर्मस्पर्शी भावनाओं को अनुभूत करने की आवश्यकता है, कविताएँ उसका सशक्त माध्यम बन सकती हैं। ऐसे चेतन,प्रबुद्ध, देश के कोन-कोने में निवास करते अपनी संवेदनशीलता को प्रकाशित करने को छटपट करते व्यक्तित्वो को रचना धर्मिता से विमुख कर देना तर्ककसंगत प्रतीत होता है क्या—?
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