चंद लहरें
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सीवाने पर गाँव के
रो गया था
एक कुत्ता मुँह उठा के
खेतों में पास के
चर रही गाएँ थीं काँटे
एक बछड़ा भी बगल में
चल रहा डगमग रँभा के
उड़ रही थी धूल कब से
वीथियों में गाँव के
थे पड़े वे हल कृषक के
एक कोने आँगनों में
पाँव के कंटक निकाले
कृषक के अब हाथ कंपित
एक कोने में खड़ी अब
वह किशोरी ताकती नभ
आज भी ये मेघ उजले
ढल गई है शाम लेकिन
लाल पीला रँग नभ का
निर्दयी सूरज हुआ अब।
टोकरी की डोर कसती
अनमनी सी है विकल
कल कहाँ ईंटों को ढोना ।
कब कलाई में सजेगी
चूड़ियाँ रँगीन उसकी
लाल पीली चूनरी से कब जगेंगे भाग उसके।
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