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मानसिक भूकम्प

चंद लहरें
चंद लहरें
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मुख्य रूप से दिनांक 25-4-2015 को आए भूकम्प ने नेपाल को तो थर्राया ही; भारत के जन-जन के हृदय को कँपा डाला है। काश, कि इस तबाही को कोई रोक पाता! कोई शक्ति भूगर्भ में चल रहे इस हलचल को रोकने या कोई सुरक्षित दिशा देने में समर्थ होती! किंकर्तव्यविमूढ़ हम मनुष्य बिल्कुल असहाय हो जाते हैं प्रकृति की इस विनाशलीला के सम्मुख। इस किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने वाले आघात के साथ देश की एक स्थायी समस्या की ओर अनायास ध्यान चला जाता है। कृषकों की आत्महत्या भी मुझे कुछ उसी तरह की त्रासदी प्रतीत होती है। यह समाचार भी इसी तरह मन को आन्दोलित करता है।कृषक अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि संकटों से आदिकाल से दो-चार होते रहे है-परिणामस्वरूप अत्यधिक गरीबी, भूखो मरना,मजदूरी की ओर प्रवृत्त हो जाना सामान्य सी बात होती रही है।सरकार की विभिन्न त्राणदायक योजनाएँ भी या तो उनतक नहीं पहुँचतीं अथवा पहुँचकर भी उनकी समस्याओं का समा धान करने में पूर्णतः समर्थ नहीं होतीं।
विशिष्ट श्रेणी में आनेवाले कृषक प्रकृति की इन आपदाओं को कुछ हद तक झेलने में समर्थ हो जाते हैं पर मध्यम श्रेणी एवं छोटे किसानों पर ये आपदाएँ अवश्य कहर बरपाती है।पर,आत्महत्या इन समस्याओं का समाधान बिल्कुल नही; शायद वे भी समझते हैं।आत्महत्या तो हताशा की पराकाष्ठा है, जब दूर-दूर तक समस्याओं का कोई समाघान नहीं दीखता हो।हमारे कृषक अगर इतने ही कायर होते तो कृषि-कार्य की ओर दृष्टि तक नहीं उठाते।
कृषकों की यह हताशा एक बार की प्राकृतिक आपदा का परिणाम नही; निरंतर कई वर्षों की हताशा धीरे-धीरे इस मनोरोग की ओर उन्हें अवश्य ढकेल सकती है।सरकारी सहाय्य की अप्राप्यता, लोगों की असंवेदनशीलता जब उनके सम्मान पर चोट पहुँचाती है तभी वे ऐसा कदम उठा सकते हैं।
सच पूछो तो यह मानस में आया भूकम्प है। भूकम्प की तो पूर्व सूचना मिल भी जाती है,पर इस मानसिक भूकम्प की सूचना मिलने तक बहुत देर हो जाती है।फिर भी,कुछ हद तक इन आत्म हत्याओं के कारणों का विश्लेषण कर हम इनके निदान का प्रयत्न कर सकते हैं।हम जरा विचार कर देखें कि अगर अच्छे बीज, अच्छी खाद,सही सिंचाई की व्यवस्था,उत्पादित वस्तुओं, फसलों को बाजार तक ले जा,सही मूल्य दिलाने की व्यवस्था,फसलों की बीमा,क्षतिग्रस्त फसलों के बदले सरकारी आर्थिक सहायता,मानसून पर निर्भर कृषकों के लिए अन्य प्रकार के अर्थोपार्जन की योजनाएँ यथा मुर्गी पालन, बकरी पालन,दुग्ध उत्पादन जैसे अनेक कृषक-सहाय्य-योजनाओं का सही क्रियान्वयन होता हो, तो क्या कारण है कि हमारे कृषक आत्महत्या कर लेते है? हम सोचने को विवश हैं कि कारण कहीं और तो नहीं।
मानसून की विफलता के साथ साथ महाजनी चंगुल से कृषक आज भी मुक्त नहीं हो पाया। हर वांछित वस्तु का मूल्य उत्पादन के पूर्व अथवा पश्चात् दुगुने, तिगुने दर से वसूल कर लेना कृषकों को काफी हताश करता है। ऋण के बोझ तले दबते दबते भी वे जीवन के प्रति असहिष्णु हो जा सकते हैं पर आत्महत्या की प्रवृत्ति एक मनोरोग है जो बहुत हद तक,पारिवारिक समस्याएँ,ग्रामीण जीवन के आपसी संघर्ष,सामाजिक शोषण के दबावों का प्रतिफल भी हो सकता है।ये दबाव सीधे सीधे दिखते नहीं कि कोई अन्य उसका निदान कर सके।
आवश्यकता है उनमें स्वस्थ मानसिकता के निर्माण की, कृषि पर पूर्ण निर्भरता से मुक्त होने की। ऐसा कहना उन्हें कृषि कार्य ले विमुख करना नहीं,कृषि-प्रकृति की विषमता से थोड़ी राहत देने काप्रयास करना है। जीबनांत के प्रयास का यह अच्छा निदान हो सकता है। शिक्षा की सही व्यवस्था के साथ ही उनमें संघर्ष करने की स्वस्थ प्रवृत्ति को विकसित करने की भी आवश्यकता है। एक सम्मानित छत के नीचे एक शिक्षित किसान आत्म हत्या की बात तो सोच भी नहीं सकता।

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