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काव्य –जीवन का अविभाज्य अंग

चंद लहरें
चंद लहरें
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सच पूछिए तो सारा मानव जीवन ही काव्य है।काव्य में जीवन अन्तर्निहित है और जीवन में काव्य। जीवन के काव्य से जीवन को पृथक कर दिया जाए तो जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक की एक अर्थहीन मशीनी यात्रा से अधिक कुछ नहीं।मानव जीवन के दो पहलुओं में एक उसकी “कथा” है जो जन्म से आरम्भ होकर उसकी शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति,सामाजिक दायित्वों की पूर्ति एवं अपूर्ति की आद्यन्त कहानी है,जो उसके दैनन्दिन जीवन से जुड़ी एवं वर्ग वैभिन्न्य के तहत भिम्न प्रकार के कर्मों का लेखा-जोखा है, वह जगत की कर्मभूमि पर उसका प्रगट नाट्य है ,जीवन के विकास की उसकी एक भूमिका है।वह कहीं किसान है,वकील है,इंजीनियर है,डॉक्टर है या एक मजदूर या इसी प्रकार की अन्य भूमिकाओं में जीवनयापन करता हुआ मानव। और, उसकी कथा प्रत्येक स्तर पर-विभिन्न घटनाचक्रों यथा पठन-पाठन,प्रशिक्षण, विशेष स्तरीय जानकारी के कारण बिल्कुल अलग ढंग से समझी जा सकती है।उनके खान-पान,शादी-व्याह,जन्म-मरण की कथा; जो किसी सफेद पृष्ठ पर कुछेक पंक्तियों में अंकित कर दी जा सकती हैं । परन्तु इसी जीवन में समाया है एक काव्य भी, जो इन सारे घटनाचक्रों के चतुर्दिक घूमता हुआ इनकी अनुभूतियों से जुड़ा है।वह काव्य, जो इनके जीवन का अनिवार्य अंग है।
श्रीराम के सन्दर्भ में देखें तो उनका जीवन उनके जन्म से लेकर वन-गमन, राक्षसों का नाश,रावण-वध,राजतिलक, सीता वनवास आदि विभिन्न घटनाक्रमों की एक कथा है,पर इसी से जुड़ा है उनके जीवन मेंआद्यन्त सतत अन्तर्निहित एक जीवन-काव्य, जो दीखता है विविध प्रसंगों यथा -भरत के प्रति प्रेम की विह्वलता में,सीता विरह से जुड़ी असह्य व्यथा मे,” खग,मृग और मधुकर श्रेणी” से सीता मृगनयनी का पता पूछते राम के चरित में,लक्ष्मण की मूर्छा से कातर “जगत न मिलहिं सहोदर भ्राता” की करुण अभिव्यक्ति में,हनुमान की रामभक्ति की चरम् अभिव्यक्तियों और राम के जीवन में सतत् व्याप्त रामत्व के उस आदर्श लोकव्यापी स्वरूप में ,और ऐसे ही विविध प्रसंगों की चरम अनुभूतियों में जो उनके जीवन का अविभाज्य अंग है और जिससे विलग होकर राम का व्यक्तित्व अर्थहीन ही तो होता ।
जीवन के काव्य के बिना जीवन की कथा अपूर्ण है।
जीवन की सरसता,मर्माहतता,माया,ममता मोह करुणा,ग्लानि पाश्चाताप, औदार्य,आध्यात्मऔर विभिन्न भावनाओं का उन्नयन; अगर ये जीवन के अविभाज्य अँग हैं तो यही जीवन का काव्य है जो कविता का विशेष विषय भी है।
एक नँग-धड़ँग बालक,गलियों में दौड़ता हुआ भी रुककर फूलों की पँखुड़ियों को प्यार से सहला लेता है,तो वह काव्यानुभूति का प्रसंग प्रतीत होता है गृह-कार्य में तत्परता से जुटी किशोरी सलज्जता से अपने आँचल सहेजती है तो सारा प्रसंग काव्यमय प्रतीत होता है। झोपड़ी में सोती वृद्धा नन्हें मुन्ने पोते पोतियों को सीने से चिपका लेती है तो मुझे उसमें सम्पूर्ण मर्मस्पर्शी काव्य के दर्शन होते हैं।खेतोंमें काम करते कृषक मिट्टी को उमँग में चूमते हैं तो मुझे उसमें काव्य की प्रतीति होती है।
काव्य जीवन का वह भाव पक्ष है जो जीवन को सक्रिय करते हुए उसे सुन्दर बनाता है।
तितलियों के सजे पँखों को निहारना,गुलाब केअप्रतिम सौन्दर्य और सुगंध में डूब जाना,मिट्टी की सोंधी गंध को नासापुटों में भर लेना,वर्षा की झमक से मन- गात को भिंगो लेना,बादलों में विभिन्न कल्पित स्वरूपों का दर्शन करना,झोपड़ियों और महलों में एक साथ प्रकृति के विविध स्वरूपों को अंकित करना,प्रिया-वियोग में ताजजमहल का निर्माण कर देना, जीवन के वे भावपक्ष हैं जो अनुभूतियों की गहनता से जुड़कर काव्य का स्वरूप ले लेते हैं।
यहाँ तक कि आध्यात्म से जुड़े जीवन प्रसंगों में गंगा को माता की संज्ञा से अभिहित करना, कण-कण में ईश्वरीय शक्ति के दर्शन करना,मंदिरों, मस्जिदों मे भक्तिभाव का अर्पण भी जीवन का काव्यपक्ष ही है जो जीवन का आधार बन जाता है,उसे सार्थक बना देता है।
जीवन के इसी काव्यपक्ष ने आर्यत्व के झंडे गाड़े,अनार्यत्व को आर्यत्व का संगी बना दिया ।
सच पूछिये तो संस्कृति का सारा इतिहास ही जीवन का काव्य-पक्ष है। इससेअलग होकर कोई अपने जीवन को किस नजरिये से देखें, समझ मेंनहीं आता। जीवन के कर्मपक्ष से उसके भावपक्ष को पृथक कर दिया जाए तो वह शून्य हो जाएगा।
एक राक्षस के राक्षसत्व की अनुभूति मे उसकी संस्कृति के धात- प्रतिघात की संवेदनाओं का काव्य अन्तर्निहित है। जीवन के इसी काव्य को साहित्यकार विशेषकर कविताओं में निबद्ध करते हैं।आज के क्रूर मानवों का राक्षसत्व घृणा और जुगुप्सा जैसी भावनाओं को जन्म देती हैं।सामाजिक दायित्वों को पूर्ण करती हुई कविताएँ इस अकोमल ,क्रूर प्रसंगों से पूरी प्रतिरोधात्मक क्षमता से जुड़कर अपनी सोद्येश्यता प्रमाणित करती हैं,आज के जीवन-यथार्थ की निपट नंगी स्थितियाँ ,यथा कृषकों,भूकम्प प्रभावित लोगों की पीड़ाएँ,उनकी समस्याओं से दो –चार होना चाहती हैं।
जीवन की सोद्येश्यता को प्रमाणित करता है यह काव्य, और जीवन के इस काव्य का संवहन करती हैं कविताएँ।सृष्टि केआदिकाल से दोनों की अनिवार्यता स्वयं-प्रमाणित है।कविताओं की आवश्यकताओं को नकार कर मानव-जीवन से जुड़े इस काव्यपक्ष कोभी नकार सकते हैं क्या?
फिर जीवन की कथा में क्या शेष शून्य नहीं रह जाएगा? ?

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