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छिन्न-भिन्न थे
पँख
वृद्ध जटायु के
रक्षा में सीता के
मित्र मानव का
मानवधर्मी
संस्कृति रक्षक,,
आज मानव – गिद्ध
खेलता है,
अस्मिताओं से,
अनगिनत, निर्दोष सीताओं की,
मानव जो है गृदधधर्मी।
गृदध,
सदियों से
सबसे अलग घृणित द़ष्टिमन
वृक्ष की टहनी पर वीरान श्मशानों में
ढूढ़ता है मृतक जीवन,
ऐसे ही बस नरगृद्ध आज के,
पँख सिकोड़े
जाने कब से घात लगाए
घृणित पँख विकृत चोंचों से
आँखों मे पागलपन भरकर
ताकते निर्लज्ज अवसर
टूट पड़ते,।
निर्भया नहीं-
सभया होती वह
सबला नहीं अबला होती वह
कैसे बचे
रक्तिम पँजों से ?
अवश,
करुण चीख
भर जाती कहीं
निःशब्द मर्यादा
घुट जाती कहीं
नहीं रह जाता शेष कहने को कुछ
वह दूर बैठा पक्षी,
अब समाज मेआ पैठा
संस्कृतिभक्षी।
थर-थर करती हर सीता
कितमी कुटिल यह दृष्टि।
अब होना होगा राम को
रावण सहस्त्रभुज
काटने को पँख
सहस्त्र सहस्त्र इन गृदधों के।
और सीता को
शक्तिमती।,
पीनी नही
उगलनी होगी
जलती ज्वाला ह़दयाग्नि की
खाक करना होगा जलाकर
इन्हें
इन घृणित ग़दधों को।
करना होगा सुरक्षित,
संस्कृति के नंदनवन को ।
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