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भारतीय संस्कृति—ह्रास या विकास

चंद लहरें
चंद लहरें
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आज महीने भर बाद आए धर आए सन्तानों को हेलो,हाय कहकर माता पिता को सम्बोधित ओर अभिवादन करते देखती हूँ तो मुझे उन संस्कारों का स्मरण हो आता है जब हम पाँव छूकर आशीर्वाद लेकर कहीं आया जाया करले थे।कहाँ चला गया आदर-सम्मान का वह भावनापूर्ण माहौल ,जिसमें हृदय से निकले वे आशीर्वाद भी फलित होते थै ।आज के इस बदले हुए युग में ये बातें पिछड़ेपन की निशानी लग सकती हैं।पर क्या! युग सत्य ही इतना बदल गया है या कि गहरे सागर में उठने वाली लहरें हैं ये। उठती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं,बुलबुलों के समान जन्म लेते और फूट जाते हैं ? भारतीय संस्कृति जो उत्तर में हिमालय की सीमा से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और अपने पूर्वी और पश्चिमी सीमांतों तक अपने विविध स्वरूपों मे एक अन्तराल्मा सी अन्तर्धारा हो प्रवाहित होती है, वह इतनी उथली तो नहीं हो सकती ।
किसी देश,जाति की संस्कृति का मूल आधार वह विशेष चिन्तन होता है जो काल के घात प्रतिघात को सहता हुआ अपनी विशिष्ट पहचान को कभी खोता नहीं। यह चिन्तन व्यक्तिगत ,सामाजिक और आध्यात्मिकजीवन से जुड़ा होता है।व्यक्तिगत जीवन के स्वरूप से ही सामाचिक और आध्यात्मिक जीवन का स्वरूप भी जुड़ा होता है।
भारतीय संस्कृति का एक स्थिर स्वरूप आर्यों के आगमन के पश्चात ही देखने को मिलता हैजो धीरे-धीरे यहाँ स्थित असुरों ,तथाकथित अनार्यों,दासों आदि के जीवन कोभी प्रभावित कर अपने महा उदार स्वरूप में समाहित करता चला गया। इस संस्कृति के जन्मदाता थे वेऋषि मुनि,आचार्य, जिन्होंने आर्य धर्म की प्रतिस्थापना के लिए अनार्यों के साथ कई युद्ध किये।निरंतर युद्ध, और युद्ध में बल और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए दैवी और मानव निर्मित अस्त्र- शस्त्रों का प्रयोग कर अपनी अविजेयता का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए अनार्यत्व की उच्छृंखलता मर्यादाहीनता और जँगली जीवन के कुसंस्कारों पर विजय प्राप्त की। विश्वामित्र और परशुराम जैसे ऋषियों ने अनार्यों में भी आर्य जनित संस्कारों को भरना आरम्भ कर दिया। देव कृपा एवं ज्ञान प्राप्ति की लालसा एवं आध्यात्मिक उन्नति की लालसा ने आर्य जीवन पद्धति की ओर उन्हें आकृष्ट किया और शनै शनैः अनार्यत्व आर्यत्व में परिवर्तित होता गया मानवीय गुणों और आदर्शों ने एक ऐसी संस्कृति विकसित की जिसके मूलाधार स्वरूप मे प्रेम, दया,सत्य परोपकार, उदारता, आचरण की शुद्धता, आत्मनिग्रह ,मातृ-पितृभक्ति,अपरिग्रह,नारी का सम्मान,अतिथि-सत्कार,कर्तव्यपरायणता, आत्मोन्नति,अन्याय का प्रतिकार निर्भयता आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो हमारी संस्कृति को कई मायनों में विशिष्ट बनाती हैं। इन विशेषताओं ने काल की कड़ी ठोकरें खायीं।आक्रमणकारी जातियों की संस्कृतियों के टकराव सहे,प्रभावित होने को विवश भी हुए पर रक्त में निवसित यह संस्कृति हर समय अपने अस्तित्व को बचाए रखने में सफल रही।
विशेषकर मुगल काल और अँग्रेजी साम्राज्य के दबावो ने हमारे मानवीयऔर सामाजिक गुणों को भी कठघरे में खड़े कर देने को विवश कर दिया।प्रेम, दया परोपकार जैसी भावनाओं का सामाजिक संदर्भ में किंचित ह्रास ही हुआ।आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से अपरिग्रह बेमानी हो गया। आचरण की शुद्धता, आत्मविकास, निर्भयता ,कर्तव्यपरायणता आदि व्यक्ति-व्यक्ति कीव्यक्तिगत विशेषताएँ हो गईं।विचारों और व्यवहारों में उदारता में आज संकीर्णता का समावेश हो गया है।विदेशी शासन के दबाव ने अन्याय के प्रतिकार को राजनीतिक स्तर पर बल प्रदान किया पर यह विशेषकर एक सामूहिक भावना बन गई।
उपरोक्त दोनो ही कालों की धुर विरोधी विचारधाराओं ने हमारी संस्कृति को घोर संकट में डाला,जिससे हमारे आचार –व्यवहार तो प्रभावित हुए ही,हमारी आध्यात्मिक सोच भी बुरी तरह प्रभावित हुई, परअपनी संस्कृति की रक्षा के पुर जोर प्रयत्नो में हम काफी हद तक सफल भी रहे।
अतिथि-सत्कार को हम उदारता जैसी भावनाओं से जोड़कर देखें तो यह प्रासंगिक ही होगा। अगर हम उदार नहीं तो अतिथ सत्कार हमारी विवशता नहीं।आर्थिक स्थितियाँ भी इसके लिए कम जिम्मेवार नहीं। आज नअतिथि सच्चे अतिथि हैंऔर न अतिथि-सत्कार की प्रवृति ही इतनी पवित्र है कि भूखे रहकर भी अतिथि को तुष्ट किया जाए।
आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करनेवाली उदारता हर क्षेत्र में लुप्त होती जा रही है।संकीर्णता नागरी भावनाओं पर हावी हो रही हैं।स्वार्थ की प्रबलता इस विशिष्ट आध्यात्मिक प्रवृति के लोप और उससे उत्पन्न होनेवाली कई अकल्याणकर स्थितियों और समस्याओं को जन्म देती हैं।यह हमारी कल्याणकारी दृष्टि को नष्ट कर देती है।यह चिन्तनीय विषय और सांस्कृतिक ह्रास का प्रत्यक्ष प्रमाण है। बातों, विचारों और व्यवहारों मे उदारता की भावना का प्रत्यारोपण घर के बुजुर्गों और माता पिता के प्रयत्नों से ही हो सकता है।
पाश्चात्य विचारों से अल्प प्रभावित व्यक्तित्वों में यह सांस्कृतिक गुण अब भी दीखता है।
नारियों के लिए आज का समाज उदार होता जा रहा है,गृह कार्य के बंधनों से मुक्त हो शिक्षा और व्यवसाय मे इनकी भागीदारी तेजी से बढ़ती जा रही है।नारी स्वतंत्रता को बल मिला है।देश और समाज के सम्यक विकास की दिशा मे यह एक स्वस्थ और सुन्दर प्रगति है ।
संस्कृति के साथउसके प्रमुख अँग के रूप में कुछ प्रथाएँ भी जुड़ जाती हैं जो अपने विविध स्वरूपों से उसे अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं।विवाह और विवाहोत्सव,,पर्व- त्योहार,नृत्य-गायन आदि कुछ ऐसी ही परंपराएँ है।
विवाह में माता-पिता कीअनुमति, ईच्छा और सहभागिता अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।शिक्षित और तथाकथित उन्नत विचारों वाले परिवारों में सन्तानों की ईच्छा का सम्मान करले हुए अन्तर्जातीय , अन्तरप्रान्तीय और कभी कभी अन्तरदेशीय विवाहों की भी स्वीकृति दी जाती है । यह वैचारिक खुलापन तो है ,पर इसकी सफलता अंशतः संदिग्ध भी होती है।
विवहोत्सव में वैदिक मंत्रोच्चार ,अग्नि के फेरे, प्रतिज्ञाएँ उनको स्थायित्व प्रदान करने एवं विवाहोपरांत वर-वधु की स्वस्थ भूमिका निर्वाह के लिए होती थीं। पिता के द्वारा नयी गृहस्थी के लिए पुत्री का दान पितृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एक आदर्श आर्य परिवार की स्थापना का प्रतीक माना जाता था,आज उसकी मूल भावना स्त्री-पुरुष समानता के संदर्भ में कहीं खो गयी प्रतीत होती है।कन्यादान के प्रति विद्रोह की भावना मुखर हो रही है।आज कन्धेसे कन्धा मिलाकर चलने वाली नारी के मन में पुरुष सत्ता के प्रति यह विरोधकीबढ़तीहुई भावना कहीं से भी अनुचित नही है।विकास की राह में संस्कृति का यह स्वरूप एक सीढ़ी के समान है जो नारियों के मान सम्मान का रक्षक है एवं भारतीय मूल संस्कृति की एक विशिष्ट विशेषता भी।कन्या –सुरक्षा की दृष्टि से आरंभ की गई दहेज प्रथा का स्वरूप आज विकृत हो सर्वथा अग्राह्य हो चुका है जो सामाजिक स्तर पर घृणित और न्यायिक स्तर पर दंडनीय अपराध करार किया जा चुका है।
इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो तलाक की बढ़ती हुई घटनाएँ मन को चौंकाती अवश्य हैं।टूटते परिवार संतानों की असुरक्षा से जुड़ी यह समस्या बहुत दृष्टियों से उचित और बहुत दृष्टियों से अनुचित भी ठहराया जा सकता है । यह आधुनिक पाश्चात्य चिंतन का परिणाम दृष्टिगोचर होता है। भारत की मूल संस्कृति में इसके लिए अवकाश नहीं था। दम्पति के मध्य बढ़ते तनाव के लिए सामाजिक दंड की व्यवस्था अवश्य थी। देवी रेणुका के लिए शिरच्छेदका आदेश, अहिल्या के लिए शाप, माता सीता के प्रति उत्पन्न अत्यंत लघु अविश्वास के लिए वनवास की व्यवस्था आदि एसे ही कुछ उदाहरण हैं जो शास्त्रीय मानसिकता को दर्शाती हैं।
सांस्कृतिक परंपराओं में नृत्य और गायन ,जिसकी अनिवार्यता देश और काल से परे है,मानवीय मूल उल्लास का परिचायक है ,जो जन्म विवाह,खेती आदि के विभिन्न अवसरों वर उल्लासजनक अथवा वेदनाजनक अनुभूतियों को प्रगट करने के लिए होता था। आज इसका मूल स्वरूप गाँवों देहातों में भी कुछ कुछ ही सुरक्षित है। रजतपट के नृत्यों ने शास्त्रीय नृत्यो और लोक नृत्यों का जहाँ मानहनन किया है वहीं उनके कुछ परिवर्तित रूप आकर्षक और विकास की कहानी भी कहते हैं। लोकगीतों के सम्बन्ध मे भी यही कुछ कहा जा सकता है।
वे सुर और रागिनियाँ,गीतों में निहित वे पारंपरिक कथाएँ ,साँस्कृतिक ईतिहास अतीत की बातें होती जा रही हैं।तीव्र गति से बढ़ते शहरीकरण औद्योगीकरण,तकनीकीकरण ने इन मानवीय संवेदनाओं को चित्रपट के माध्यम से देखना प्रारंभ किया है धीरे-धीरे हमारी यह संस्क़ृति पूर्णतः अप्राकृतिक होकर नष्ट न हो जाए इसका खतरा अवश्य है।
शक,हूण,मुगल और विशेषकर अँग्रेजी सभ्यता का प्रभाव ,आदि ने संस्कृति के साथ जो टकराव उत्पन्न किया,अपनी यह उदार संस्कृति उसको झेलती,उसपर अपनी छाप छोड़ती घोर तकनीकी विकास के साथ मशीनी युग में प्रवेश कर गयी। मशीनीकरण ने जहाँ बहुत साधन- संसाधन प्रस्तुत किये वहीं मनुष्य को मशीन एवं उसके चिंतन को मशीनी बना दिया। तकनीकी दुनिया के नये द्वार खुले।हावी होती हुई उन सभ्यताओं ने हमारे स्वर,यहाँ तक कि हमारे खान-पान का भी भूमंडलीकरण कर डाला।
पर,देश के ईतिहास और उसके विकास को ध्यान में रखते हुए इसे ह्रास की सम्पूर्ण कहानी तो नहीं कह सकते।यह काल की आवश्यकता अधिक है। हमारी प्राचीन संस्कृति हमें अपनी ओर खींचती अवश्य है पर उसकी मूल भावनाओं को ही अगर सुरक्षित रख पाएँ तो हाय हेलो की संस्कृति, नमस्कार की खोती हुई विनम्रता आदि का घरेलु स्तर पर प्रतिकार भी संभव है।वैसे, एकविश्वजनीन अँतर्राष्ट्रीय संस्कृति की आवश्यकता को भी नकारा नहीं जा सकता।
अतः आज की भारतीय संस्कृति को पूर्णतः ह्रास की संज्ञा हम नहीं दे सकते। अगर यह ह्रास है तो विकास की सीढ़ी पर चझ़ता हुआ एक कदम भी तो है। अस्तु।

आशा सहाय—15 -5-2015–।

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