- 180 Posts
- 343 Comments
आदिम जीवन- दशाओं से निकलकर आधुनिक जीवन-दशाओं मे प्रवेश करने की कला ही सभ्यता है।सभ्यता के चरण धीरे-धीरे बढ़ते हैं और समस्त जीवन- दशाओं पर छा जाते है।पर क्या सभ्य मानव और सभ्यता के मध्य कोई विसंगति तो उत्पन्न नहीं होती? कया आधुनिक सभ्यता ही सभ्य मानव की पहचान है! यह एक ऐसा प्रश्न है जो हर संवेदनशील मनुष्य के हृदय मे एक बार तो अवश्य उठता है ।
आदिम जँगली जीवन में-सुरक्षा, सुविधा, सुखाद्य की आवश्यकता से प्रेरित हो जब मानव ने विविध प्रयत्नों से अग्नि, हथियारों का आविष्कार,पशुपालन और कृषि आदि की प्रवृति को विकसित कर लिया तो धीरे- धीरेएक सुविधायुक्त जीवन की ओर अग्रसर होता गया ओर बुद्धिसम्पन्न मानवों के द्वारा जगत के कोने-कोने मे परिस्थितियों और देश काल की प्रतिबद्धताओं को ध्यान में रखते हुए नई नई सोचों,ज्ञान विज्ञान के नये नये आयामों को ढूँढते हुए जीवन मे सुविधाओं का सृजनहोता गया,नयो जीवन शैली विकसित हुईं ,नयी वेशभूषा,सामाजिकऔर राजनीतिक जीवन की नयी परिभाषाएँ गठित कींगयीं परिणामस्वरूप एक सभ्य जीवन की नींव डाली गयी। एक असभ्य जँगली जीवन ने नागरी जीवन का रूप लेना आरंभ किया।स्थानभेद से यह सभ्यता नागरी और ग्राम्य दो स्वरूपों मे विकसित होकर भिन्न विशेषताओं से युक्त हो गयीं।यह सभ्यता आरंभ में संस्कृति की संरक्षिका थी। संस्कृति किसी जाति विशेष की वह आन्तरिक सम्पदा होती थी जो उसकी विशिष्ट पहचान भी होती थी,।उसको प्रतिफलित करने वाली कुछ विशिष्ट परंपराएँ भी उसकी अंगीभूत होती गयीं ।सभ्यताएँ वाह्य स्वरूप थीं। झोपड़ियों से ईंट निर्मित मकान, ताम्र युगीनसे लौह युगीन सभ्यता में प्रवेश, हथियारों में पत्थरों केयुग से क्रमशः अधुनातन शक्तिशाली प्रक्षेपास्त्रों के युग मेप्रवेश इस ठोस विकास के परिचायक हैं। नागरी जीवन में संभाषण की कला,साहित्य और विविधललित कलाओं द्वारा जीवन के उत्थित स्वरूप का निर्माण होता चला गया। धीरे धीरे वैश्विक सभ्यता का आलिंगन करना इसके सत्वर विकास कापरिचायक है।एक बौद्धिक व्यक्ति तीव्र विकास की दौड़ में पीछे नहीं रह सकता।यह उसकी प्रकृत विशेषता है।
किन्तु, संस्कृति किसी जाति विशेष की प्रकृति,आध्यात्मिक विश्वास,,सामाजिक और व्यक्तिगत सोंच पर आधारित होती है,जिसका वह प्रतिकूलतम परिस्थितियों में भी संरक्षण चाहती है।इन संस्कारों की उनके विचार से पृथक व्याख्याएँ होती हैं।जीवन की वाह्य शैली से वे बिल्कुल ही पृथक होती हैं।
पाशचात्य सभ्यता का विकास किन परिस्थतियों और कितने चरणों मे आज की सुविकसित स्थिति में पहुँचा यह हमारे वर्ण्य- विषय के अन्तर्गत नहीं आता किन्तु इतना सत्य निर्विवाद है कि उसने हमारी सभ्यता पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है।हमारा रहन सहन पाश्चात्य रहन सहन का दास बनता जा रहा है। इसमें कतई दो मत नहीं कि अत्यधिक सुविधापूर्ण जीवन शैली होने के कारण वह हमें अब प्रिय भी लगने लगा है किन्तु उसके जन्मदातृ आधारभूत सोंच हमारी आधारभूत सोंचों से बिल्कुल भिन्न हैं ।हमारी सोंच जिस आध्यात्मिकता से प्रभावित है,पाश्चात्य चिंतन का वहाँ तक पहुँचना कष्टकर अवश्य है।अगर ऐसा न हुआ होता तो विवेकानन्द ने पश्चिम में भारत केझंडे नहीं गाड़े होते न ही गाँधी की विचारधारा ने पाश्चात्य देशों को उनकी महानता का कायल किया होता।
अगर हम अपने वर्ण्य से न भटकें तो उन प्रश्नों सेअवश्य ही हम दो-चार होना चाहते हैं जो हमें रह रह कर अन्दोलित करते हैं। क्या हमें यह सभ्यता हमारी आध्यात्मिकता से बहुत दूर ले जाकर महज भौतिकता की गलियों में भटकाती नहीं फिरती है?इस सभ्यता ने हमें अर्थ का दास बना दिया है और अर्थप्राप्ति के मार्ग में आनेवाली प्रत्येक बाधा को हमारा शत्रु। वे भावनाएँ भी,जो मानवीय तो होती हैं पर अर्थप्राप्ति के मार्ग मे बाधा बनकर खड़ी हो जाती हैं,उन्हें हम झटक कर अपने से दूर कर देते हैं।भावनाशून्यता को आज हमने व्यावहारिकता की संज्ञा देदी है।
वर्गभेद को तेज हवा देती यह सभ्यता आज हमें तंगदिल भी बनाती जा रही है, साथ ही, उन आदर्श मानव-मूल्यों के हनन को विवश करती है जो हमारी वैचारिक सम्पदा तो थी ही,सदैव व्यवहारिकता की कसौटी पर खरी भी उतरती थी।हमारी सोच संकीर्ण होती जा रही है।हम अपनेआप में सिमटे रहने और दूसरों की समस्याओं से अपने आप को य़थाशक्ति और यथासंभव दूर रखने को ही सभ्यता समझ बैठे हैं। यह मानकर कि अन्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना ही सभ्यता की विशेष पहचान है ,हम दूसरों के दुख सुख से भी दूर होते जा रहे हैं।अपनी समस्याओं को भी अपने तक ही सीमित रखने के प्रयत्न मे हम सामाजिकता की वह परिभाषा भुला बैठे हैं जिसके तहत वही मनुष्य मनुष्य कहलाने का अधिकारी होता था जो दूसरों के हित में अपना जीवन समर्पित करता हो। यह सोच हमे उदारता का संदेश देती थी,जीवन और जगत के सत्य से निरंतर अवगत कराती थी।
जीवन और जगत की अनित्यता के सदैव बोध से हमारी संस्कृति का वह दर्शन जुड़ा होता था जो मानव कल्याण को ही जीवन की सार्थकता मानता था। किन्तु आज का विकसित समाज मनुष्य की परिभाषा के इस दायरे में आना ही नहीं चाहता।
यही नहीं, आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जिस प्रकार हमारे मस्तिष्क और घरों में घुसकर जीवन की सारी व्यवस्थाओं पर कब्जा कर रखा है,उससे हमारी सहन शक्ति की सीमाएँ सँकुचित होती जा रही हैं,परिणामतः हम कमजोर होते जा रहे हैं।प्राकृतिक और अप्राकृतिक आपदाओं से लड़नेकी ताकत क्षीण होती जा रही है।हम मानसिक रूप से शीघ्र बिखर जाते हैं।अवसाद की स्थितियाँ बढ़ती जा रही हैं।
एक ओर यह विकसित जीवन शैली हमें अन्तर्राष्ट्रीय मानव बनाने जा रही है,वहीं हम अपनी अमूल्य संस्कृति को खोते जाने का अनुभव भी करते ही हैं।ऐसा कहना कदापि अनुचित नहीं होगा कि वर्तमान सभ्यता हमारी संस्कृति पर हावी होती जा रही है।
हमारे ग्रामों मे अभी भी इस सभ्यता ने पूरी तरह अपने पाँव नहीं पसारे हैं,परिणामस्वरूप मानव मूल्य अभी वहाँ संरक्षित दीखते हैं, पर नागरी सभ्यता की चका चौंध उनहें भी अपने लपेट में लेना ही चाहती है। ग्रामीण सोचों में भी यह विषमय विचारधारा अपना स्थान बनाती जा रही है।अब समझ में नहीं आता कि आधुनिक सभ्यता समाज को जोड़ने का कार्य कर रही है या तोड़ने का। समझ में नहीं आता कि सभ्य कौन है—मानव की कल्याणकारी योजनाओं,दुख-सुख के बीच पैठकर उसके कल्याण के निमित्त जीवन को होम कर देनेवाला आम आदमी या कि विविध सुविधाओं से सम्पन्न साथ ही तथाकथित उन्नत विद्याओं से सम्पन्न होकर अपने चारो ओर भौतिक और वैचारिक उपलब्धियों की लौह किलाबन्दी कर समाज से अपने को काटकर रखनेवाला तथाकथित विद्वत्समाज।
अंत मे यह कहना समीचीन ही होगा कि अगर वेशभूषा ,खान पान और रहन-सहन से नागरी बन जाना ही सभ्यता की पहचान है तो हमारी संस्कृति को भूमिसात् होने में कदापि विलंब नहीं होगा। हम आशावान हों कि ऐसा कदापि नहीं होगा। हमारी संस्कृति इन घात प्रतिघातों के बाद भी सदैव अक्षुण्ण रही है और रहेगी।
Read Comments