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अफ्रिका में —जैसा मैने अनुभव किया

चंद लहरें
चंद लहरें
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11 जनवरी स्थानीय समय रात्रि 10 बजकर 30 मिनट पर जैसे ही मैने नैरोबी की धरती पर कदम रखे,एक खुशनुमा एहसास से मन भर गया। दिल्ली की किसी भी प्रकार वश में नहींआनेवाली काटती कँपकँपाती ठंढ और यहाँ सुखद वासन्ती ऊष्माका एसहसा! मैने राहत की साँस ली। अपनी पुत्री के निवासस्थान पर करीब एक सप्ताह के अनुकूलन और विश्राम के पश्चात इस महादेश पर दृश्टिपात करने और कुछ सोचने समझने की कोशिश कर रही हूँ।
अफ़्रिका—विश्व पटल के अत्यन्त विस्तृत भू-भाग का नाम।नाम लेते ही एक तथाकथित भयंकर गहन जँगलों का परिदृश्य चक्षु जगत के सामने आ जाता है। मानव के लिए सर्वथा असंवेदनशील यह जंगली महादेश ही माना जाता रहा है।निवासी जंगली,सभ्यता जंगली, जाति भेद रँग भेद की दुहाई देता हुआ विश्व के अन्य महादेशों से उसे कई मायनों मेंअलग कर देता है।इस भू-भाग को समझने के लिए हमे नये दृष्टिकोण अपनाने होंगे।सर्वप्रथम यहाँ के निवासी और वन्य जीवों पर दृष्टिपात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर ने तो इस विशाल और हर प्रकार से समृद्ध भू-भाग के मनोहारी वन प्रातर में फैली हरियाली को शायद मानवेतर जीवों को समर्पित किया है।इस हरियाली का आनन्द लेते हैं यहाँ के जँगलीऔर सारी दुनिया को आकर्षित करने वाले पशु; यह प्रकारांतर से उनका घर है।मनुष्यों ने तो उनकी सीमा में घुसकर उनपर आधिपत्य जमाने की कोशिश की है। पर इस जँगली परिवेश नेभी,तथाकथित असभ्य प्राकृत जीवन ने भी विश्व के अन्य देशों को आकर्षण सेवंचितनहीं किया जोअपनी धन-सम्पदा कीवृद्धि हेतु अपने बल और पराक्रम से सम्पूर्ण विश्व की ओर लोलुप दृष्टि से देख रहे थे,उनकी कमजोरियों और हीन भावनाओं को अपना संसाधन बनाने को आतुर थे। इतनी मजबूत कद काठी के लोग भला और कहाँ मिलते? और इतनी खनिज सम्पदा ,प्राकृतिक वैभव से युक्त भूमि? इनके आपसी संघर्षों एवं अकिंचनता ने स्वयं ही दासत्व कीओर इन्हें ढकेलने को विवश किया।
इस क्रम में,विश्व के इस ओर बढ़ते हुए कदमों ने प्रतिदान स्वरूप इनमें पाश्चात्य सभ्यता के रँग भरने आरम्भ कर दिये।
मैं जहाँ हूँ वह नैरोबी है।केन्या का चौथासबसे बड़ा शहर समुद्र से 5,889,फीट की ऊँचाई पर। भूमध्यरेखा के करीब स्थित होने के कारण न अधिक ठंढा नअधिक गर्म जलवायु वाला भूभाग।अत्यन्त सुन्दर।भाषा, रहन-सहन,शहरी भवनों की बनावट,गलियों कूचों ,सड़कों की स्थितियाँ अंग्रेजी विगत आधिपत्य की स्पष्ट गवाही देती हुई प्रतीत होती हैं।सौन्दर्य के भरपूर प्राकृतिक परिवेश में आँखें आश्चर्य से फैल-फैल जाती हैं।जिधर दृष्टि जाती है,हरियाली ही दिखाई देती है। पेड़-पौधे ,भाँति भाँति की वनस्पतियाँ अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में दिखाई पड़ती हैं।जिन छोटे-छोटे सन्दर,आकर्षक फूल,पत्तियों,बूटों झाड़ियों को हम भारत में गमलों मे सजाकर उन्हें देखते नहीं अघाते ,वे यहाँ अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में मानव के अस्तित्व की लघुता का एहसास कराने से नहीं चूकते। उनकी गगन छूने की अभिलाषा,प्रतियोगिता में ऊपर उठने के जीवट के सम्मुख हमें नतमस्तक हो जाना पड़ता है। गमलों में सजाकर रखना उनके साथ ज्यादती करने सा प्रतीत होता है-जैसे आज़ाद परिंदों को पिंजरों में कैद कर खुश होना।

सम्पूर्णतः तो संभव नहीं किन्तु लगभग अँग्रेजी जीवन—शैली में डूब चुका हैयह भू-भाग। वैभव सम्पदा से जनसामान्य को अलग कर देखें तो प्रभोत्व आकाँक्षा ने धीरे-धीरे उन्हें पाश्चात्य जीवन शैली का दास बना ही दिया है।किन्तु ऊपर- ऊपर से लक्षित इस प्रभाव से अगर हम भ्रमित न हों तो,अंतर के बौखलाये हुए दास को कम कर आँकना एक भयंकर भूल होगी ,,।दमित दासत्व का यह भाव
पिघले लावे की तरह स्वतंत्रता उन्मुख हो समय-समय पर उबल कर सामने आ ही जाता है।
अपनी जीवन शैली कोई बेगानी नहीं हैइनके लिए।एक सम्मानजनक स्थिति बनाये रखने की बेचैनी सर्वत्र दिखाई पड़ती है।
मैं नैरोबी में हूँ।केन्या की राजधानी। इसके ईर्द- गिर्द का अवलोकन किये बिना इसके सौन्दर्य और इसकी विलक्षण भावभूमि को समझना इतना आसान भी नहीं।अभी भी पूर्वीअफ्रिका के इस भूभाग में एक अत्यन्त प्रसिद्ध जनजाति रहती है-मसाई, जिसे जाने बिना अफ्रिका के वास्तविक आदि सौन्दर्य और बल विक्रम को पहचाना नहीं जा सकता ।इनकी संस्कृति को प्राचीनता मे आदि संस्कृति सेअभिहित किया जा सकता है। अपने बल विक्रम से जँगलों में भयानक पशुओं औरविविध पक्षियों के मध्य रहकर उनपर शासन करने वाली यह अनोखी जाति है जिससे शेर भी डरते हैं,मात्र इनके वस्त्रों के रंग देख सहम जाते हैं, भाग कड़े होते हैं।विशेष वेश भूषा जिसमें लाल रंग का प्राधान्य है ,विभिन्न प्रकार के कृत्रिम मोतियों या बीड्स युक्त अलंकारों से सिर के ऊपरी भाग से लेकर गले ,बाजू ,कलाई, कमर और पाँव तक आभूषणों से अलंकृत, ये दूर से ही पहचाने जाते हैं। इनका रहन सहन कदाचित् अब भी पारंपरिक है।भाषा और व्यवहारकुशलता में ये पूर्णतः आधुनिक हैं ।इनके साथ हमने मसाईमारा नाम के अति विस्तृत संरक्षित वन्य-क्षेत्र मेंप्रवेश किया। यहअफ्रिका के सबसे बड़े वन्य जीवसंरक्षित क्षेत्रों में से एक है।करीब 1510 वर्ग किलोमीटर में फैला यह क्षेत्र नैरोबी से सड़क मार्ग से करीब पाँच-छह घंटे की दूरी पर द्रष्टव्य है। हम फरवरी केमहीने में यहाँगये धे। विभिन्न वन्य पशुओं यथा झुण्ड के झुण्ड हाथी जँगली भैंसे हिरन ,जेब्रा,खूबसूरत जिराफ, हायनाआदि के साथ ,चीते और सिंहोंकेके दर्शन भी अत्यन्त करीब अर्थात् छू लेने भर की दूरी से इनके साथ हम कर सके। इसक्षेत्र केवन्य पशुओं की विशेषता लक्षित होती है जुलाई के महीने में,जब द ग्रेट माइग्रेशन के नाम सेजाना जानेवाला पशुओं का एक विशिष्ट देशांतरण होता है, जिसे देखने के लिए विश्व भर के प्रकृति प्रेमी यहा आ इकट्ठे होते है, गरम बैलूनों के द्वारा आसमानी सफर कर इस दुर्लभ दृश्य का आनन्द लेते हैं ।तंजानिया के सेरेन्गेटी नेशनल पार्क से मारा नदी को पार कर मसाईमारा राष्ट्रीय संरक्षित वन्य प्रदेश में करीब दो मिलियन से अधिक पशुओं का हरित क्षेत्र में आगमन एक अभूतपूर्व दृश्य हुआ करता है। जुलाई का महीना नहीं होने के कारण मैं इस द़श्य से वंचित अवश्य रही।

पशुओं को तो अन्यत्र भी देखा जा सकता है, पर उनके अपने स्वाभाविक परिवेश में,उनके स्वभावजन्य व्यवहारों को अत्यन्त समीप से देखने, समझने का जो अवसर प्राप्त हुआ उसने मुझे मानव जीवन और इन हिंसक पशुओं के वयवहारजनित अंतर को गहराई से सोचने, समझने को विवश कर दिया।सच पूछिये तो जिस प्राकृत मानवता की बातें करते हम थकते नहीं, जिसके निर्वाह के लिए बड़ी-बड़ी संस्थाएँ सतत् कार्यरत हैं,जिसकी रक्षा के लिए विभिन्न दंड प्रक्रियाओं की अपेक्षा होती है, उनके सहज दर्शन इन पशुओं में होते हैं। अपनी संतानों के प्रति प्रेम तो मानवों की विशेषता हो सकती है पर समाज के प्रति प्रेमअथवा भाई भाई केनप्रति प्रेम का विलक्षण उदाहरण इन हिंसक पशुओं के व्यवहारों में दीखा।मैने देखा –बड़े-बड़े अयालों से युक्त सिंहों को एक दूसरे के गले से लिपट कर सोते हुए,सिंह- शिशुओं को किसी भी सिंहनी माता केस्तन से लिपट कर दूध पीते एवंप्रेम से चिपटते हुए।यहएक ऐसी प्रकृत सामाजिक व्यवस्था दीखी जो हमारे विकसित किन्तु अवांछित स्वार्थी समाज में दुर्लभ ही नहीं असंभव सी प्रतीत होती है। मनुष्यत्व को आजकी स्थितियों में मनुष्यत्व कहते लज्जा आती है। इस मानवता की रक्षा हेतु नित्य आंतरिक और वाह्य जो युद्ध होरहे है वे कितने हास्यास्पद हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है।

एक रिफ्ट वैली पड़ती है यहाँ। कहते हैं, अफ्रिका के इस भूभाग की प्रथम निर्माणावस्था में ही किसी ज्वालामुखी अथवा ऐसी ही किसी भयंकर स्थिति ने दो भागों में विभक्त कर दिया था।मध्य प्रांतर वैली हो गया विशाल अंतहीन सा। दोनों ओर के उपरीले पठारीय भाग के किनारे इस टूट की गवाही देते हुए से प्रतीत होते हैं। कहते तो यहाँ तक हैं कि मानव जाति की उत्पत्ति भी यहीं हुई।आदिम मानव कीप्रथम विकसित अवस्था के कुछ प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। यहीं से हम संसार के कोने कोने में फैले। यह कितना सच है,कहना अत्यन्त कठिन है,हम आर्य हों या अनार्य,इसकी कल्पना मात्र से सारे शरीर में फुरहरी सी अवश्य उठ जाती है।
अत्यन्त ही खूबसूरत स्थान।पूरे केन्या को उत्तर से दक्षिण तक दो भागों में बाँटती हुई सी।नैरोबी से मसाईमारा के रास्ते में इसका अवलोकन अत्यंत सुखदअनुभव था।ठंढी हवा के झोंके शरीर कोअलग कँपाए दे रहे थे।तंजानिय से इथियोपिया तक कोदो भागों में विभक्त इस वैली का सौन्दर्य ,जितना मैने देखा, अनुपम प्रतीत हुआ।
चारो ओर दृष्टि डालती हूँ तो वर्गभेद का दंश झेल रहा यह क्षेत्र अभी भी अकिंचन,गरीब ही अधिक दीखता है।बाहर से आई जातियों ने विकास के नाम पर मनमोहक जाल फैला रखे हैं।बड़ै बड़ै महलों अपार्टमेंटों का निर्माण तीव्र गति से हो रहा है।यहाँ के प्रकृतिक सौन्दर्य और संपदा का ध्वंस दूर नहीं प्रतीत होता,और काम करने वाली श्रमिक वर्ग के स्थानीय लोगों को मैंने हाथ मे,पपेपरप्लेट मे या पोलिथीन के टुकड़ों पर मक्के के आटे की विशेष किस्म की लपसी ,आलू और कभी कभी एक विशेष किस्म का साग ही खाते देखा।खाने में सादगी की यह ललक है कि जलवायु जनित प्रभावों की विवशता, ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। बडे-बड़े रेस्ट्राओं में भी उनके सामने परोसी जानेवाली भोज्य सामग्री की सादगी देखकर मैं अचंभित रही। मिर्च मसाले जैसे चटक स्वाद वाली चीजें इन्हें रास नहीं आतीं।
भूमध्यरेखा के करीब स्थित इस क्षेत्र को प्रकृति का अनुपम वरदान मिला है। यहाँ का मौसम वर्ष भर में मात्र दो ही रूपों में अनुभूत होता है,सूखा हल्का गर्म और हल्की बारिश से युक्त ठंढा, गीला मौसम। दोनो ही सह्य हैं,अत्याचार करते नही प्रतीत होते।
इतनी घनी वनस्पति वाले क्षेत्र में सवच्छता जैसे इस शहरी जीवन के कार्यकलापों का एक विशिष्ट हिस्सा है।प्रचुर सुविधाओं के अभाव में भी यह सिर्फ मनोबल से संभव होता दीखता है। गलियाँ, बड़ी बड़ी सड़कें,उनके ईर्द-गिर्द,छोटी- बड़ी हर जगह स्वच्छ, बिल्कुल सवच्छ।यह देखकर स्वदेश में बार बार स्वच्छता से सम्बद्ध लिये गये प्रणों का स्मरण हो आता है।आशा है,हमारी जीवन शैली में भी सवच्छता का प्रवेश हर क्षेत्र में शीघ्रातिशीघ्र ही संभव होगा।

अभी मैने बहुत कुछ नहीं देखा,पर इनका शारीरिक बल ,हौसला, जज़्बा और आगे बढ़ने की इनकी ललक देखकर लगता है कि इनके स्वाधीन कदम शीघ्र ही अपने स्वर्णिम युग में प्रवेश करेंगे।

आशा सहाय 30-3-2015—।

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