- 180 Posts
- 343 Comments
जाने कितनी आँधियाँ
देखी थीं उसने
जाने कितने जल-प्रवाह,
जाने कितने पक्षियों
का था बसेरा
आश्रय बना,
और कितने झले पँखे
पथिक के उन स्वेदयुक्त
श्रम के हारे।
किन्तु अब
शुष्क सा सूना खड़ा
वह वृक्ष क्रन्दित
झर गये थे पात सब
शेष थों बस डालियाँ
अवनत जरा,
खो गयी स्निग्धता
अब नहीं
स्वर था वो मर्मर–
झुक गया था शीश वह
गर्व से उन्नत कभी था।
पार्श्व मे लघु पेड़ भी थे
हो रहे वे घने सत्वर
खूब शाखाएँ प्रलम्बित
पुष्प गुच्छ से लद रहे
हो रहे मदहोश
वायु के थपेड़े सह रहे
और थे संघर्ष करते
गर्व से आकाश तकते
हो रही ग्रीवा समुन्नत
अर्धशतक
अब था व्यतीत।
अब नहीं पालित किसी का
व्यर्थ वे बातें
अतीत।
कर कटाक्ष,
था हँस रहा
वृद्ध तरु की शुष्कता पर
पुष्पहीन डालियों पर
हो गया विस्मृत कि
उसके बीज से ही
अँकुरित वह
आज फैला है चतुर्दिक।
आज भी जो शुष्क तन से
है खड़ा व्याकुल।
है प्रतीक्षा में खड़ा
चातक बना
उस घोर घन का
फूट पड़े कोंपल कोई
छाँव बन वात्सल्य का
रह न जाए अन्तराल
पाँच दशकों का कोई
रह न जाए अन्तराल
स्नेह और वात्सल्य का।
Read Comments