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पगडंडियों की ओर

चंद लहरें
चंद लहरें
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पगडंडियाँ
साक्षिणी, संघर्ष की,
कथा,
पलती हुई जीवन-व्यथा की।

पगडंडियाँ
पहचान हैं उस कष्ट की,
उस दर्द की
सदियो से है भुगत रही
एक दूर आदि झोपड़ी
नँगे बदन।

पगडंडियाँ,
भटक भी जाती कभी,
पहुँच जातीं
सन्नाटे में निर्मम।
खो जातीं कभी,
निर्जन में भी।

साक्षी बनती कभी
लाठियों की
तेल से चुपड़ी।,
नुकीले भालों ,
तीर और कमानों की।

पगडंडियाँ
देतीं कभी एहसास एक,
खुशनुमा
लहराती बालियाँ ज्यों धान की
लिपटती महक ज्यों नासापुटों में
गेहूँ की,
सरसो या चना की।
पगडंडियाँ
तोड़ देती हैं तनावों को कभी,
दिखाती दृश्य छोटे से किसी
वन-ताल की
पन्ने सी बिछी उस घास की,
उस फूल की
खिला निर्जन में जो।

हर पगडंडी
सड़क बनती नहीं,
सकती नहीं
ये भाग उसका।

भुगतना दर्द है उसको,
कंटकों का,
सड़न का,और
दुर्गन्ध का किंचित
कथा उसकी
बिल्कुल अलग है।

पहुँचती है
,हर पगडंडी मगर
व्यथा के मुकाम तक।
जीवन के उत्ताप तक
याकि ,
जमी हुई एक बर्फ तक।

चलें पगडंडियों की ओर
चलते दो पैर केवल हैं जहाँ
आदिम
कर्मठ मानवों की
चलो पगडंडियों की ओर!!

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