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स्वाभिमान , अहं, और शक्तिमद ; एक स्वतंत्र चिंतन

चंद लहरें
चंद लहरें
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प्रातःभ्रमण से लौटते समय एक व्यक्ति ने मुझे जो समाचार दिया,उससे मैं न हतप्रभ हुई न ही आहत। बस चलचित्र की भाँति एक जीवन कथा आँखों के समक्ष अपने विशिष्ट रँगों में उभर आई।

अभी दो दिनों पूर्व ही मैं झारखण्ड के प्रस्तुत गाँव के अपने आवास में आई हूँ। ठीक सामने जिस व्यक्ति ने पेंशन और रिटायरमेंट से प्राप्त पैसों से अपना एक बड़ा घर बनाया था, उसका अपने घर से इतर स्थान मे देहावसान हो गया था ।
बड़े शौक से और पूरी जीवन ऊर्जा से अपने सभी बच्चों को ध्यान में रखते हुए कमरे बनवाए।,कुआँ,हैन्डपम्प, बिजली आदि की पूरी व्यवस्था कर,छोटी मोटी बागवानी का भी प्रावधान कर रहना आरम्भ किया। तबतक बेटों ने साथ दिया, पिता का मान रखा।
यह तो उसके जीवन का एक अर्धसच था,पर बेटों के द्वारा सम्पति की बर्बादी पर हुए मनमुटाव ने उसे एक झटके से बेटों से विमुख कर दिया।
स्वाभिमान ने, सम्पोषित अहं ने या कि शेष शक्तिमद ने, अकेले दो रोटियाँ खुद के लिए सेंक कर खाने की ज़िद पकड़ ली।और यह जिद संभवतःमृत्यु के कुछ दिनों पूर्व तक ज्यों की त्यों रही। यह उनके जीवन का पूर्ण सच था।
क्या कहूँ इसे–?एक जीवन की सामान्य परिणति–?स्वाभिमान ,अहं, शक्तिमद–?—यह तो-, एक जीवन की कथाहै। “यही होता है “कहकर चुप हो जाने की कथा। पर इन तीनों ने तो विश्व के कोने-कोने के ऐतिहासिक विकास की कहानी रची है।संघर्ष होते रहे हैं,एक जाति ने दूसरी जाति पर विजय प्राप्त की है।एक सभ्यता ने दूसरी सभ्यता पर विजय प्राप्त की है। कभी आर्यत्व का घमंड,कभी अनार्यत्व की शक्ति,कभी मनः शक्ति मद तो कभी शारीरिक शक्ति मद,कभी राक्षसत्व तो कभी देवत्व का मद।संग्राम होते रहे-सिद्धांत,जीवन मूल्य आदि तो वे कन्धे थे जिनपर उपरोक्त तीनों नेअपने हथियार रखकर सदैव संघर्ष किए थे।कोई अछूता नहीं था।न ईन्द्र न वशिष्ठ,न ही विश्वामित्र ,परशुराम सरीखे ऋषि ब्रह्मर्षि और राजर्षि। न सहस्त्रार्जुन सरीखा व्यक्तित्व,न रावण सरीखा ब्राम्हणकुलोत्पन्न-राक्षसत्व से युक्त व्यक्ति।एक गोत्र दूसरे गोत्र से भीलड़ता ही रहा।आखिर क्यों?
क्या यह प्रभुत्व की लड़ाई नहीं थी?यह अहं स्वाभिमान और शक्तिमद नहीं था?
आज भी दो देशों का युद्ध-,मूलतः चाहे वह भूमि लोभ से प्रेरित हों,आतंकवाद से प्रेरित अथवा उसका विरोध करने हेतु हों,किसी एक मुद्दे को विचारोत्तेजक रूप देने के लिए हों; होते वे तभी हैं जब अहं और शक्तिमद का सम्मिलन होता है ।
दोनों विश्वयुद्धों की बातें तो कुछ पुरानी अवश्य हो गयी हैं,किन्तु ओसामा बिन लादेन को ढूढ़कर उसके गुप्त ठिकाने पर ही उसे समाप्त कर दिया गया।,चाहे वह विश्व आतंकवाद से जुड़ा अपराधी ही क्यों न हो,-अहं और शक्तिमद से युक्त कोई विराट् शक्ति ही ऐसा कर सकती थी।
धर्म के नाम पर बड़े बड़े संघर्ष हुए, छिटपुट तो नित्य ही हुआ करते हैं।अभी भी प्राप्त खबरों के अनुसार दो गुटों मे निकटस्थ शहर में झड़प हो गयी है। शहर पुलिस छावनी मे परिणत हो गया है विहिप और बजरंग दल के द्वारा बुलाये गये बंद के दौरान यह घटना घटी है।धर्म के नाम पर किये गये ये दंगे क्या मानव के भीतर छिपी उस पशुता के परिचायक नहीं?धर्म कहीं झगड़े की अनुमति नहीं देता पर इस कुप्रवृति का कीट मनुष्य की पशुता के भीतर छिप अपने प्रकाशन हेतु मार्ग ढूँढ़ता ही रहता है।अहं और शक्तिमद उसके सहायक सिद्ध होते हैं।
थोड़े विषयांतर सेही सही,पर राम और रावण का युदध भी शक्तितुल्यता का परिणाम था और महाभारत के विराट प्रसंग को तो समतुल्य शक्तिमद-मतवालों के मध्य शक्ति प्रतियोगिता की चरम परिणति ही कहेंगे।
म्यामार में जाकर आतंकियों का सफाया कर देना हमें अच्छा लगा क्योंकि उन्होंने हमारे स्वाभिमान पर प्रहार किया था।पर, क्या शक्तिहीनता हमें इस कार्रवाई के लिए प्रेरित कर सकती थी? कभी नहीं। अपनी शक्ति के चरम विश्वास ने ही ख़ौफ का जवाब खौफ़ से दिया। इस एक शक्तिमद ने कई अन्य शक्तिमद के मतवालों को उकसाया या कि भयभीत किया –।यह तो उसका अवश्यम्भावी परिणाम था।
विचारणीय तो यह है कि मूलतः इन भावनाओं के तहत किये गए घात- प्रतिघातों,क्रियाओं प्रतिक्रियाओं की चरम परिणति क्या होती है?
जहाँ उसके साथ लोक कल्याण की भावना जुड़ी होती है, सदियों सदियों तक यह अविस्मरणीय हो जाती है।
रामायण और महाभारत के प्रसंग लोक कल्याणकारी मूल्यों से जुड़े थे,अतः वे चिरस्मरणीय रहेंगे।काल का कोई आघात उनके औचित्य पर प्रश्नचिह्न नहीं उठा सकता, पर, जन-कल्याण से शून्य संघर्षों के मूल में पल रही सामान्य लोगों की अहंकारजनित भावना उसे कहीं का नहीं रहने देती ।जीवन भर की चीख और चिल्लाहट का नकारात्मक प्रभाव ही सम्मुख आता है।सहिष्णुता के बिना न उसे परिवार का स्नेह मिलता है न ही जन समर्थन।
उन वृद्ध पड़ोसी का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है। अंत्येष्टि की अनिवार्य प्रक्रियाओं ने जिन सम्बन्धों की भीड़ अभी जुटा दी है,; काश! !वह भीड़ उनके जीवन काल मेंउनकी भावनाओं को बल दे पाती या सही दिशा ही ।

खैर,!मैं तो संघर्ष की उस मूल भावना का जिक्र कर रही थी,जिसने मानव जगत को विकास तो दिया,पर संहार के उपरांत।इस प्रकार के संघर्ष ,विकास की पूर्व भूमिका ही सही,मुझे तो मानव संहार की तैयारियाँ ही दृष्टिगत होती हैं और, जब ये अक्षम होते हैं,तो प्रकृति अपनी बेमिसाल तैयारियों से तरह तरह की आपदाएँ प्रस्तुत कर देती है।
यह प्रकृति का शक्तिमद होता है।

नितांत व्यक्तिगत विचार—आशा सहाय 24- 06 -2015

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