चंद लहरें
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धरती ने दी जब गोद हमें
जाने कितनी शर्तें रख दीं,
शिशु-चकित नयन से जगत देख
हो सह्य मृदुल कटु हास रुदन।
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शाश्वत सा यह जगत-भाव
हृदयंगम कर भव पथ पर बढ़,
देखी धरती की हरियाली
देखा नभ का नीला उजास।
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मेघों का देखा सघन रास
धरती की नित नव नव केलि,
कितने,कितने जीवन के सच,
निज की शत शत मौतें झेलीं ।
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पल पल रिसते देखा हमने
इस काल- घटक-जीवन रस को,
सींचा भी बहुत इस मन –मरु को
पर हृदय तरु सूखा ही रहा।
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हँसती धरती इंगित करती,
सूखे तरु का भी काल- सत्य,
ढोकर नियति का दाय-भाग
जीवन का विष पीना होगा।
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इक कटुतम सत्य तो शेष अभी
हा मनुज!!अभी गुनना होगा,
अपना शव निज कन्धों पर रख
मरघट तक खुद जाना होगा।
आशा सहाय 28 -06—2015–
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