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स्वतंत्रता तू स्वयं प्रकाश
दासता विस्मृत हुई गर
आलोकित कर पुनः विस्मृति
चेतना का कर विकास
—
लौह बन्धन टूट गये पर
नहींअभी निर्बन्ध मानस
मूढ़ता जड़ता मिटा
नव चेतना का कर विकास
स्वतंत्रता तू स्वयं प्रकाश
—
दीखता नहीं तम घिरा जो,
मनुज के मन के चतुर्दिक,
घोर ईर्ष्या घोर मद,
घोर मनुज काअहंकार,
आस्था भी हिल गई
शान्ति का था केन्द्र जो,
तीक्ष्ण किरणें भेज हृदय में
आलोकित कर पुण्य विचार
स्वतंत्रता तू स्वयंप्रकाश।
—
स्वार्थ केन्द्रित हो रहा नर
भोगता अधिकार मात्र,
भूलता, अधिकार तो बस,
,झेलता कर्तव्य भार।
मूल रक्षा मंत्र है यह
मूल मंत्र विकास का
अर्ध जाग्रत मनुज में भर
रजत किरणों का उजास।
स्वतंत्रता तू स्वयं प्रकाश।।
—
है तेरा आलोक अलौकिक,
आलोकित सम्पूर्ण विश्व,।
अब नहीं कोई शेष स्थिति
रौंद सके कोई मारत-भूमि
क्षुद्र निज प्रयास सेही
तोड दे भारत की भूमि
—
किन्तु अपनी ही कुनीति
तोड़ न दे कहीं राष्ट्र ऐक्य
भय यही अब शेष है बस
स्वार्थ की बढ़ती कुहा को,
निज प्रभा से नष्ट कर
नव चिंतन को दे दिशा
अब चेतना का कर विकास।
स्वतंत्रता तू स्वयंप्रकाश।।
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