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भ्रष्टाचार -एक दृष्टि—

चंद लहरें
चंद लहरें
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पंद्रह अगस्त की संध्या।दिनभर समाचार पत्रों में ,लोगों के मध्य चल रही चर्चाओं में,मंचों पर दिए गए तथा कथित विद्वत्जनों केभाषणों में,झंडे के सम्मान में दिए गए बड़े या लघु वक्तव्यों में देश को एक ही रोग से मुक्त करने की बात सुनती रही—वह रोग जो देश के रग-रग मेंसमाया है,और चर्चा कर नेवाले भीअपने को शायदजिससे मुक्त नहीं कर पाए हों ,वह रोग है भ्रष्टाचार। किसी भी तरह का भ्रष्ट—आचरण भ्रष्टाचार कीही श्रेणी में आता है चाहे वहसामाजिक स्तर पर हो,आर्थिक, राजनीतिक,धार्मिक व्यापारिक, या न्यायिक स्तर पर ही क्यों न हो।ये छोटी बड़ी श्रेणियों में अवश्य बाँटे जा सकते हैं ।सोच समझकर किये गए और अनजाने आदतवश किये भ्रष्टाचारों में भी ये विभक्त हो ही सकते हैं। शहरी और गैर शहरी भी ये हो सकते हैं।

इस सन्दर्भ में मैने एक बनिये, एक दूधबेचनेवाले से भ्रष्टाचार से सम्बंधित प्रश्न कर डाले कि क्या वे इससे परिचित हैं?एकके हाथों की तुला डगमगायी और दूसरे ने अपनी वह बाल्टी छिपा ली जिसमे दूध दुहने से पूर्व ही पानी भरा था।दोनो नेकहा भी कि आज भ्रष्टाचार को कौन नहीं जानता।तुला में बाट छुपाकर रख देना ,चुम्बक का प्रयोग कर लेनाआदि ग्रामीण स्तर की चतुराइयाँ हैं जिन्हें वे भ्रष्टाचार की संज्ञा नहीं देते। एक कामवाली से पूछने पर उसने बताया कि राशन कार्ड उसे नहीं मिला कि उसने माँगे हुए पैसे नहीं दिये थे।पिछले दिनों एक मछली बेचनेवाली से मछली कटवाकर घर ले आया गया । धोने के क्रम में देखा गया कि उसमें पचास ग्राम की एक बाट पड़ी थी।दूसरे दिन जब उसे लौटाया तो वह सकपका गयी। उसकी प्रतिक्रिया अभी भी साफ नहीं थी।नहीं,नहीं गलती से रह गया होगा,–हमनी बेयमानी नाँय करैत हियै ।यह तो ग्रामीण माहौल की बात है,जहाँ की शुद्धता ,पाक साफ मन की आज भी वकालत की जाती है ,जहाँ की ईमानदारी से सम्बद्ध झूठ सच वक्तव्यों को लेकर राजनीति की चरचा रोज ही गर्म होती रहती है।जहाँ की दो सालों में ही टूट जाने वाली सड़कें,वाटर पम्प,अधबनी तालाबे आदि ठकेदारों ,इन्जीनियरों की शतप्रतिशत सच्चाई की कथा यूँ ही कहती रहती हैं।

ये कोई एक साथ लिया गया साक्षात्कार नहीं ,समय-समय पर कही सुनी सच्ची बातें हैं। ये हैं तो छोटी-छोटी बातें -पर माहौल में पूरी तरह समायी। सदियों से भ्रष्ट आचार के ये उदाहरण इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि पूरा समाज भ्रष्टाचार की जिस पीड़ा से पीड़ित या त्रस्त है,वह कोई आज की उपज नही ,सदियों की छूट कर की गयी खेती है। युगों से रग-रग में समायी है।

यह है आर्थिक श्रेणी में आनेवाला भ्रष्ट आचार।अधिकांश भ्रष्टाचार अर्थ के लिए ही किए जाते हैं। जीवन में अर्थ का महत्व जीवन-यापन के साधन के रूप में स्थापित तो है ही,असुरक्षा कीभावना भी उन्हें अब अधिक से अधिक लोगों सेजुड़,मित्रता स्थापित कर सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करने कीअपेक्षा धन संचय की ओर ही प्रेरित करती है।आज के बिखरी हुए नितान्त अकेली व्यक्तिवादी जीवनपद्धति में तो यह और भी अनिवार्य प्रतीत होता है।अतः अधिक से अधिक अर्थप्राप्ति के लिए किये गए इन प्रयासों को हम किन नजरों से देखें यह विचारणीय है।

भ्रष्टाचार का सबसे अधिक प्रचलित और सामान्य मध्यवर्ग के जीवन को दूभर करने वाला स्वरूप घूसखोरी ही है जो बिचौलिये, कर्मचारी स्तर से लेकर भ्रष्ट अधिकारियो तक तो फैला है ही ,जिसमे सरकारी मंत्रालयों तक की भागीदारी सुनिश्चित मानी जाती है यह,एक ऐसा भ्रष्टाचार है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के शासनकाल की शनैः शनैः की गयी प्रगति है। यह भ्रष्टाचार अब धृष्टता की सीमारेखा लाँघ चुका है।

भ्रष्टाचार अपपने मोहक स्वरूपों में ब्रिटिश काल से ही जमीन्दारी व्यवस्था के पोषण के लिए डाली भेजने, उपहार भेजने जैसी प्रथाओं में संरक्षण पाती रही।आज छोटी बड़ी नौकरियों के लिए अप्रत्यक्ष रूप से पैसै देने को भी ऐसे भ्रषटाचार में शामिल कर सकते हैं।

स्विस बैंकों मे देश का पैसा जमा होने की संभावना जो कमोवेश सच्चाइयो से युक्त है ,भ्रष्टाचार है।निर्वाचन के दौरान जनता को पैसे का प्रलोभन देना इसी श्रेणी में गिना जाना चाहिए। पैसे की यह लेन-देन मुख्यतः पैसे की आवश्यकता के कारण ही होती है।

भारत जैसे देश मे इस प्रकार का भ्रष्टाचार अत्यंत स्वाभाविक है।पर बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा सही चीज बेचने की प्रतिज्ञा कर गलत चीजें बाजार में उतार मनमाने दामों में बेचना भी आपराधिक भ्रष्टाचार है

इसप्रकार की मानसिकता मे जब शासकीय पदों कादुरुपयोग शामिल हो जाता है तो तरह तरह के राष्ट्रव्यापी घोटाले सामने आते हैं।चारा घोटाला, सत्यम घोटाला,कामनवेल्थ गेम्स, कोलगेट घोटाला,व्यापमआदि न जाने कितने घोटाले शायद इन्हीं शासकीय पद, राजनीतिक शक्तियों के दुरूपयोग की कहानी कहते हैं।

इनभ्रष्टाचारों के अतिरिक्त सामाजिक और आर्थिक भ्रष्टाचार का नमूना हमारे पुलिस विभाग में मिलता है।केस दर्ज करने न करने से लेकर गवाहों को तोड़ने जोड़ने ,केस खत्म कर देने,आदि मे रिश्वत का आदान प्रदान होता ही है,लूटपाट चोरी डकैती आदि के अपराधियों को संरक्षण देने के किस्से भी सुने जाते हैं।वेवजह लोगों को परेशान करने का आरोप भी इनपर लगता है।कभी –कभी राजनेताओं द्वारा इनके व्यवहारों को संरक्षण मिल जाना भी समस्याएँ उत्पन्न करता है।
लगातारसामान्य जनता से उनकी गरिमा पर प्रहार करता हुआ उनका व्यवहार उनकी विकृत मानसिकता का परिचायक होता है।

और,कहना नही होगा किदेश के संविधान केप्रहरीऔरसबसे अधिक विश्वसनीय समझा जानेवाला सरकार का तीसरा अंग न्यायपालिका जिस पर जिस पर देश की सुव्यवस्था को नष्ट नही होने देने,नष्ट करने वालों को दंड विधान के अंतर्गत लादंडित करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, और जिसके निर्णयों पर ऊँगली नहीं उठती,भी आज भ्रष्टाचार केआरौप के चपेट में आ जा रहा है ।न्याय में अत्यधिक विलंब भी तरह तरह की ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं जिसके कारण अपराधी को सही न्याय का मिलना विवादास्पद विषय हो जाता है।न्यायाधीशों की भूमिका को विवादास्पद न मानना उचित हैकिन्तु सम्पूर्ण तंत्रकी भूमिका संदिग्धनहीं, ऐसा भी कहना उचित नहीं लगता।फिर भी सबसे अधिक विश्वसनीयता यहीं परिलक्षित होती है।

वस्तुतः भ्रष्टाचारने एक दीमक की तरह अपने अवांछित उत्पादों से सम्पूर्ण देश के भावनात्मक और वैचारिक क्षेत्र कोआच्छादित कर रखाहै। शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो जो इसके चपेट में नआया हो।

सामाजिक भ्रष्टाचार ने तो धार्मिक,आध्या त्मिक ,गुरुओं को भी नहीं छोड़ा है।आचरण केक्षेत्र की भ्रष्टता अनैतिक आचरण की संज्ञा पाता है।आर्थिक भ्रष्टाचारऔर अनैतिक आचरण की सीमाएँ मिलती अवश्य हैं पर वे एकरूप नहीं होतीं।परभ्रष्टता तो वहाँ है ही।

वस्तुतः इन बड़े –बड़े भ्रष्टाचारों पर नियंत्रण के लिए कानूनी कारवाई तो की जाती है।पर इन सबों के जन्म पोषण और निवारण के लिए जिम्मेदार जो होते हैं,वेहैं नेतागण,सरकारी अफसर, कुछ हद तक पुलिस तंत्र और न्याय पद्धति भी।ये दीर्घकाल तक उनका पोषण करते हैं और अगर सामाजिक दबाव अथवा बदली हुई सरकारी स्थितियों से विवश हो जाएँ तो इनपर अँकुश भी लगा सकते हैं।

जागरुकता आरही है।सूचना का अधिकार एक सफल सरकारी प्रयत्नहै और यह एक बड़ी नियामक शक्ति हो सकती है।लोकपाल की अवधारणा और इसके लिए कियेगए सरकारी प्रयत्न , सामाजिक आन्दोलनों केजरिये इसके लिए बनाए गए दबाव ,अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, आदिके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।तरह तरह के देशव्यापी कार्यक्रमों,नुक्कड़ नाटकों आदि नेभी सकारात्मक प्रभाव डालना आरंभ किया है।.

किन्तु, प्रश्न है रग रग में समाए भ्रष्टाचार का।वह कैसे रूके जो धीमे धीमे हमारी सम्पूर्ण सामाजिक संरचना और व्यवस्था को अविश्वसनीय बनाता जा रहा है। विश्वसनीयता की जड़ों को ही खोखला किए जा रहा है? यही तमाम सामाजिक मूल्यों की बातें आ जाती हैं,जो नष्ट हो रही हैं ,नैतिकता की बातें आ जाती हैंजो जनजीवन से आज हवा होती जा रही है।या तो इस तरह के भ्रष्टाचार को वैधानिक अस्वीकृति के घेरेमें न लाएँ,उन्हें सामाजिक कार्यकलापीय ढाँचे के रूप में स्वीकृति दे दें अथवा जड़ से धीमे धीमे ही नष्ट करने का कोई उपाय करें।

इसके लिएबचपन, किशोरावस्था,और एक हद तक युवाओं पर मानसिक पकड़ बनानी होगी।एक आन्दोलन के जरिये भ्रष्टाचार विरोधी भावनाएँ भरनी होंगी।माँ बाप,गुरुजन,विद्यालयों और शिक्षकों को अपने आप को बदलना होगा।ईमानदारीऔर कर्तव्यपरायणता को कूट कूट कर अपने आप में भरना होगा ताकि बच्चे, विद्यार्थी अनुकरण कर सकें। नालन्दा ,विक्रमशिला ,तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों केआदर्शों को इस संदर्भ में देखना होगा।भारत जैसे देश मे हर व्यक्ति उपभोक्ता बन कंज्यूमर कोर्ट तक नही जा सकता। उसे तो लोगों से ही सम्पूर्ण ईमानदारी की अपेक्षा होती है।

अतः,एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

लोगों को अपने संग्रह की प्रवृति पर अंकुश लगाना होगा।स्वेच्छा से भी,कानूनी विवशता सेभी।

लोगोंमेसामाजिक सुरक्षा की भावना विकसित करनी होगी।राष्ट्र को भी सुरक्षा की दिशा में प्रयत्नशील होना होगा

कुछसामाजिक बुरी परंपराएँ यथा दहेज ,अनावश्यक दिखावाजनित खर्चों पर पूरी तरह अंकुश लगाने होंगे ताकि लोग अनावश्यक संचय की प्रवृति त्यागें।

चिकित्सकीय खर्चों मे राज्य की पूर्ण सहभागिता होनी चाहिए।

शिक्षा आदिमे राज्य के द्वारा उठाये गए कदम अच्छे हैं
।,
इसी तरह के प्रयत्नों से भ्रष्टाचार की बुनियाद हिल सकेगी जिसकी सख्त आवश्यकता है।

आमूल परिवर्तन मे सदियाँ भी लग सकती हैं,पर परिवर्तन के संकल्प से ही परिवर्तन क्रियान्वित हो सकता है।

वस्तुतः भ्रष्टाचार को एक जटिल मनोरोग की श्रेणी में रख सकते हैं।आध्यात्मिक उन्नति ही उसका निदान हो सकता है।आत्मोन्नति की अपेक्षा है। ईमानदारी की भावना का विकास भी आवश्यक है।

योगा ,प्राणायाम भीआध्यात्मिक विकास का साधन है।इसकी सही प्रक्रिया और मूल भावना मे प्रवेश कराना हृदय और आचरणों को परिवर्तित करने मे सक्षम हो सकता है।
भ्रश्टाचार कोई एक व्यक्तित्व नहीं,कि तलवार केएक वार से उसका हनन कर दिया जाए,धीमे धीमे ही इस रोग को खत्म किया जा सकता है।

अस्तु,देश के सही विकास के लिए,आदर्शों और मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए,प्रयत्नोंका आह्वान किया जाना चाहिए। हो रहे प्रयत्नों की सराहना भी होनी चाहिए।आशा है, देश की प्रगति भ्रष्टाचारविहीनता के साथ साथ ही होगी। इसी आशा और विश्वास के साथ —–—देश के लिए शुभकामनाएँ।
आशा सहाय -24 –8-2015–।

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