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शिक्षक—कुंठाएँ आज भी

चंद लहरें
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मुझे लगता है,आज के परिदृश्य में शिक्षकों की भूमिका कुछ बढ़ी हुई होनी चाहिए। शिक्षक, जो गुरु गोविन्द की प्रतिस्पर्धा में प्रथम पूज्य माना गया वह इसलिए कि उसने गोविन्द अर्थात् परब्रह्म,परम नियामक शक्ति और चरम् ज्ञान के विभिन्न आयामों के दर्शन कराए।आज भूमिका बहुत नहीं बदली बल्कि अपना वृहत्तर मायने रखने लगी है।आज गुरु को गोविन्द के पूर्व स्थापित करने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।देश- विदेश का सारा भूगोल, सारा इतिहास,ज्ञान विज्ञान के सारे क्षेत्रों से वाकिफ़ होना पड़ता है,अक्षर ब्रह्म केदर्शन से सम्पूर्ण जगत के ज्ञान का द्वार खोलना होता है।आज का गुरु तप, योग से अर्जित मात्र ब्रह्म, जीव जगत के ज्ञान से कहीं अधिक जीवन जीने योग्य ज्ञान प्रदान करता है परिणामतः आज भी शिक्षक संपूज्य है।
इसका यह अर्थ नहीं किआज के वृहत्तर उपयोगितावादी,भौतिकतावादी परिदृश्य में मात्र शिक्षण करके ही उसकी भूमिका की इतिश्री हो जाती है।–अगर ऐसा हो तो शिक्षक-कुम्हार द्वारा रचे हुए मानव संसार की भूमिका राक्षस संसार से भी बदतर हो जाए।अतः शिक्षक को दोहरे दायित्व का गुरुभार वहन करना पड़ता है।अपने शिक्षार्थियों का चरित्र निर्माण उनकी गुरु जिम्मेवारी है जिसकी वे उपेक्षा नहीं कर सकते।चरित्र निर्माण,व्यक्तित्व निर्माण का नाम लेते ही आधुनिकयुगीन प्रथम गुरुवत भूमिका का निर्वाह करते हुए यूनान केबड़े बड़े चोगाधारीशिक्षकों की सम्मोहक कल्पनाआँखोके सम्मुख चलती फिरती नजर आने लगती है।
पर आज वैसे गुरुओं की भी हमे अपेक्षा नहीं। तब क्या चाहिए हमें—शिक्षक दिवस केअवसर पर हम कैसे शिक्षकों की कामना करते हैं—हम कैसे शिक्षकों को पुरस्कृत करना चाहते हैं—हम कैसे शिक्षकों की मदद करना चाहते हैं—इन तीन दृष्टियों से भारत के द्वितीय राष्ट्रपति,महान दार्शनिक,भारतीय संस्कृति , धर्म और विज्ञान को एक धरातल पर स्थापित करने का प्रयत्न करनेवालाऔर एक शिक्षक का जीवन जी लेने के पश्चात् शिक्षकों की असम्मानित विभिन्न आर्थिक सामाजिक चिन्ताजनक स्थितियों को अत्यंत करीब से देखनेवाले विद्वान डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिवस सदा आकलित होता रहा है।
इसमें दो मत हो ही नहीं सकते किशिक्षक को सिर्फ ज्ञानवान नही बल्कि आचरण सेचरित्रवान होने की आवश्यकता है।उसके शिक्षण के केन्द्रबिन्दु मे जो विद्यार्थी है,सबकुछ ,उनके लिए ही समर्पित हो।सारे क्रियाकलाप,सारी गतिविधियों के दृष्टिपथ में वही हो।विद्यार्थी के चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास पर ही उनकी सम्पूर्ण दिनचर्या केन्द्रित हो ।अगर ऐसा हो तो निजी अथवा सरकारी तौर पर वेतनभोगी शिक्षक ,जो अपनी मर्यादा और सम्मान से गिरता हुआ प्रतीत होता है,अपनी मर्यादा को बचा पाने में सक्षम होगा।
किन्तु शिक्षकों की जिन समस्याओं,विपन्नता से जूझती हुयी स्थितियों,गिरते सम्मान कोदेख डॉ.राधाकृष्णन हिल गए थे,वे स्थितियाँ बहुत मायनों मे सुधर गई हैंपर अभी उन्हें वह स्थान प्राप्त करना शेष है, जिसके वे हकदार हैं।देश और समाज के सारे प्रगतिशील ढाँचे कोजिसके कन्धों परह म खड़ा देखना चाहते हैं,उन्हें उनका प्राप्य सम्मान तो मिलनाही चाहिए। अगर हम कहें कि कम्प्यूटरीकृत शिक्षण व्यवस्था मेंशिक्षकों की प्रत्यक्ष भूमिकानहींहै तो परोक्ष भूमिका को तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
आज शिक्षकों को उस स्थिति से निजात अवश्य मिलीहै कि-धोती फटी औ लटी दुपटी,पाँव उपानह को नहीं सामा।-कृष्णकालीन गुरु सुदामा के स्वरूप मेंउस दयनीय स्थिति के दर्शन होते हैं।पर, आज भी वहशिक्षक कर्म से सरकारी अथवा गैर सरकारी तौर पर-निवृत होने पर-,समाज मेंअपने गुरुत्व पद के सम्मान को बचाए रखने में असमर्थ होता है।क्या करना होगा शिक्षकों के पूर्व सम्मान को पुनर्जीवित करने के लिए?-यह हम समाज के लोगों को भी सोचना होगा।
मुझे लगता है ,कि आज गली,गली में कुकुरमुत्तों की भाँति उग आए छोटे-छोटे विद्यालयों, सरकार की निम्न मानसिकता केतहत प्राथमिक मध्य,माध्यमिक विद्यालयों मेंनियुक्त किये गये कम वेतनमान पानेवाले , किन्ही योजनाओं केतहत -अस्थायी शिक्षकों मे विश्वसनीयता का अभाव,कामचलाउपन की सामाजिक दृष्टि ने भी उनके सम्मान पर प्रहार किया है।
दूसरा यहकि शिक्षण कर्म को लोगों ने अत्यंत सरल समझ लिया हैऔर हर अल्पबुद्धि भी अपने को इसके योग्य समझने लगा है।
शिक्षकों की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका और ऐसी सामाजिक सोच- इतनी विसंगतियाँ_!
क्या करे शिक्षक –कहाँ ढूँढे अपनी मर्यादा-?
राष्ट्रपति के द्वारा हर वर्ष पुरस्कृत कुछ चयनित शिक्षकों की चयन प्रक्रिया बहुत स्वच्छ नहीं जान पड़ती।एक तो इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश मेंअनगिनत शिक्षकोंके मध्य सेजिन कुछेक को चयनित किया जाता है उससे उन तमाम अन्य सच्चरित्र,जीवन भर ईमानदी स शिक्षक धर्म का निर्वाह करने वाले समर्पित शिक्षकों को ठेस नहीं पहुँचती ?जिनका चयन किसी राजनीति किसी ईर्ष्यानीति किसी अर्थनीति अथवा कहें कि चयन प्रक्रिया में पूर्ण स्वच्छता के अभाव में नहीं हो पाता उनका व्यक्तित्व भी कुंठित होता है।उनकी आशाएँ भी मर जाती हैं, और वे अपने को सामान्य शिक्षकों की भीड़ में मूक हो सम्मिलित करने को विवश हो जाते हैं।चयन की प्रक्रिया को कुछ स्वच्छ करने की आवश्यकता नहीं है?
कम से कम अन्य विकसित देशों की भाँति शिक्षकों को अन्य वर्गों सेअधिक महत्व देना चाहिए ताकि वे अपने कर्तव्य का पालन पूर्ण स्वाभिमान के साथ कर सकें।कुंठा उनके मन में न पले।
आज देश के प्रधान मंत्री और सर्वश्री राष्ट्रपति दोनोंने उच्चतम दो पदों से शिक्षक रूप में बच्चों किशोरों के सम्मुख अपने को प्रस्तुत कर सचमुच शिक्षकों को एक गरिमा प्रदान की है।यह ऐतिहासिक कदम अवश्य स्वागत योग्य है।–

आशा सहाय -4—9—2015-।-

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