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किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्र पहचान उसके साथ जुड़ी एक ऐसी भाषा से भी होती है जो उस पूरे राष्ट्र मेंआसानी से बोली सुनी और समझी जाती है।भारत जैसे विविध भाषा भाषी राष्ट्र में,निर्विवाद एक ऐसी भाषा जो देश के अधिकांश हिस्सों मे बोली और समझी जाती हो,और जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर देश की स्वतंत्र पहचान से जोड़ा जाए;बड़ा कठिन कार्य था।14 सितम्बर1949 को एक महत्वपूर्ण निर्णय के द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिन्दी को राजभाषा का सम्मानित दर्जा दिया गया ,इस संकल्प के साथ कि इसके संवर्धन,प्रचार और प्रसार के समुचित प्रयत्न किए जाएँगे। यह अत्यंत उपयुक्त निर्णय था।
हिन्द विश्व मे सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषाओं में द्वितीय स्थान रखती है। भारतवर्ष में इसकाइतिहास तेरहवीं शताब्दीमे अमीर खुसरो की रचनाओंमें खोजते हुए विद्वत्जन खड़ी बोली के तत्सामयिक प्रचलन से इन्कार नही कर सकते।इसके, दोहे पद, पहेलियों में आश्चर्यजनक रूप से खड़ी बोली हिन्दी के क्रियापदों का व्यवहार तत्सामयिक जनजीवन में इसके व्यवहार की पुष्टि करता है। इसके बाद सतत् प्रवहमान यह भाषा व्रजभाषा अवधी आदि के समानांतर उर्दु आदि के निर्माण में सहायता करती हुई आधुनिक काल में प्रवेश कर गई और सर्वप्रथम भारतेन्दु ने इसे साहित्यिक भाषा का दरजा दिया , और अब यह हिन्दी सँवरती गई।स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गद्य और पद्य दोनों की भाषा बन प्रेमचन्द ,प्रसाद,महादेवी मैथिलीशरण गुप्त आदि कवियों लेखकों के माध्यम से हिन्दी ने देश की खूब सेवा की । सशक्त भाषणों ,सम्बोधनों का माध्यम बन अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी।
आज देश के प्रत्येक हिस्से में इसकी निर्विरोध स्वीकार्यता होनी चाहिए जबकि आज भी देश के कई हिस्से मे लोग इसे स्वीकार करना नहीं चाहते।
आखिर क्या कारण है इस विरोध का? यह दूसरी भाषाओं के आत्म सम्मान का प्रश्न है या हिन्दी बड़ी कठिन भाषा है?।
समस्त उत्तरभारत में कुछ भाषाओं के लिपि वैभिन्न्य के अतिरिक्त यह कोई अन्य समस्या नहीं पैदा करती।पर, दक्षिण भारत की भाषाएँ द्रविड़ कुल की होने के कारण और अलग ढंग से बोली लिखी जाने के कारण हिन्दी से बिल्कुल पृथक है ।उन्हें अवश्य कठिनाई होनी चाहिए।ठीक वैसे ही जैसे हमें उन भाषाओं को सीखने में कठिनाई होती है ।पर, हिन्दी इतनी भी कठिन नहीं है।
सच पूछिये तो हिन्दी बड़ी वैज्ञानिक भाषा है।इसकी ध्वनियाँ उच्चारण की दृष्टि से सरल हैं। मुखावयवों को ज्यदा कष्ट नहीं होता। संस्कृत से आजतक के विकासक्रम में इसने अपने को बहुत सरल बना लिया है।
सीखने के दृष्टिकोण से इसकी वर्ण व्यवस्था उच्चारणस्थान की दृष्टि से की गयी है,जो सर्वप्रथम कंठ्य से लेकर तालव्य, मूर्धन्य,दन्त्य ओष्ठ्य में विभक्त हैं कुछ नासिक्य और कुछ अंतस्थ ध्वनियाँ भी अलग से है।संयुक्त ध्वनियों के लिए पृथक वर्ण हैं ।
इन ध्वनियों के लिखित रूप उच्चरित रूप के समान ही होते हैं
।हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिद्वन्द्विता 200 वर्षों तकभारत में प्रभुत्व स्थापित कर सम्पर्क भाषा के रूप मे पूरे देश में फैल जानेवाली अंग्रेजी भाषा से है जिसके उच्चारण का कोई मानदंड नहीं दीखता।एक ही वर्ण अलग अलग स्थानों पर भिन्न रूप मे उच्चरित होते हैं।कुछ ध्वनियों का तो उच्चारण ही रोक दिया जाता है ,और कभी कभी तो एक ध्वनि के उच्चारण के लिए दो भिन्न स्वरों का सहारा लेना पड़ता है।और तब भी शासकीय जाति की भाषा होने के कारण आधे विश्व ने इसे अपनाया।
हिन्दी में यह दुविधा नहीं है।स्वरों के दो रूप अगर कहीं मिलते हैं तो उसका एक लिखित रूप होता हैऔर प्रत्येक लिखित ध्वनि उच्चरित भी होती है।
हाँ, हिन्दी में लिंग सम्बन्धी समस्या थोड़ी दुरूह है,जो शुद्ध हिन्दी के प्रयोग में थोड़ी बाधक होती है.।स्त्रीलिंग ,पुलिंग शब्दों के साथ क्रियापदों में परिवर्तन होता है जो अँग्रेजी में नहीं होता।अहिन्दीभाषियों को इस तरह की दलील देते सुना गया है।यह कोई ठोस दलील नहीं है।
अगर इस भाषा केप्रति प्रेम और सम्मान उत्पन्नकिया जाए तो ये दिक्कतें कोई मायने नहींरखतीं।
हिन्दी के जिस स्वरूप को हम राजभाषा राष्ट्रभाषा और मुख्यतः सम्पर्क भाषा के रूप में देखना चाहते हैं वह अत्यन्त उदार हैऔर सभी प्रचलित शब्दों को वह अपने मे समाहित कर लेती है—चाहे वे शब्द किसी भी भाषा अथवा बोलियों के ही क्यों न हों।
ऐसी उदार और सरल भाषा को राज भाषा के पद पर प्रतिष्ठित कर देश के प्रत्येक कोने मेंउसकी अनिवार्यता घोषित कर उसे सीखने का मौका दिया जाता है ,तो,इससे अच्छी बात और कुछ नहीं हो सकती।
एक समय था जब इस बात से गौरवान्वित होकर हम हिन्दीभाषा और साहित्य पढ़ने को समुत्सुक होते थे,यह जानते हुए भी कि भविष्य की नौकरियों में इसकी तलाश नहीं होनेवाली ।भारत मात्र अंग्रेजी और विज्ञान की कद्र करनेवाला है।
आजस्थिति बदतर होती जा रही है।देश में नौकरी केकम अवसरों ने प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों को देश के बाहर कदम रखने को विवश कर दिया है षप्राइवेट उच्च स्तर के विद्यालयों में हिन्दी की घोर उपेक्षा भी है।अंग्रेजीदाँ बनने की यह विवशता घर –बाहर हरजगह उसीके प्रयोग पर बल देती है।अच्छे वेतन के लोभ मे बाहर जाने की विवशता हमे अँग्रेजीको भाषा माध्यम केरूप में स्वीकार करने को विवश करती है । हिन्दी पीछे छूट जाती है।अँग्रेजों ने बड़ी शान सेआधे विश्व पर शासन कर यह स्थान अर्जित किया है।हमारी हिन्दी यह स्थान अर्जित कर सके,इसके लिए प्रचार और प्रसार की सख्त आवश्यकता है।
हम उपनिवेशवादी तो नहीं पर अपनी कार्यकुशलता,विद्वता, और बढते हुए तकनीकी ज्ञान ने हमे विदेशी हृदयों पर शासन करना सिखाया है ।शेष विश्व में हमारे कदम बढ़ रहे हैं। हम चाहें तो छोटे-छोटे पैमानों पर हर जगह हिन्दी के प्रति रुचि जाग्रत कर सकते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय भाषा ,जो आज है, उसके सहारे और महत्व को हम नकार तो नहीं सकते पर उसकी जगह हमारी हिन्दी ले सके इसके लिए प्रयत्न शील होना हमारा धर्म होना चाहिए।
हिन्दी भाषा के विकास मार्ग मेंअहिन्दीभाषी देशी –विदेशी क्षेत्रों में व्यकरण जनित आरम्भिक टूट फूट को बाधा नहीं बनने देना चाहिए।भाषा विचारों के आदान प्रदान का माध्यम होती है,अतः कुछ समय तक टूट फूट को सहना आवश्यक है।अगर इस टूट फूट के साथ ही यह विचारों की संवाहिका होती है तो इसे भी हम विकासक्रम की सीढ़ी ही मानेंगे। भाषा के सदैव दो रूप होते हैं—साहित्यिक और बोलचाल की।बोलचालकी भाषा व्याकरण का बोझ सहे बिना सदैव हल्की हो जीना चाहती है।
कोई भाषा देश विदेश मे इसलिए भी मान पाती हैकि उसका साहित्य समृद्ध होता है अतः इस दृष्टि से हिन्दी को अधिक से अधिक समृद्ध करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
गद्य,काव्य, विश्व स्तर केलेखकों कवियों की कृतियों के अनुवाद ,ज्ञान विज्ञान कीविश्वस्तरीय पुस्तकों के सही पारिभाषिक और तकनीकी शब्दों के साध अनुवाद, तत्सम्बन्धित मौलिक ग्रन्थों का लेखन आदि इसको विश्व की अग्रगण्य भाषाओं में खड़ा कर सकेगा।
हिन्दी बहुत आगे बढ़ चुकी है। हर वर्ष हिन्दीदिवस और हिन्दी सप्ताह मना कर जहाँ इसके प्रति संकल्पों को संमरण रखने की हम कोशिश करते हैं, वहीं विश्व की ओर इसके बढ़ते कदमों को तीव्र गति भी देना चाहते है ।
इसआशा और विश्वास के साथ किहम अपने उद्देश्य में सफल हों—–
आशासहाय –13 -09 –2015–।
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