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यह प्यार!
यह स्नेह-धार!
होता नहीं किसी के प्रति,
छलकता नहीं,
अन्य के लिए।
स्वयं-प्रभूत निर्झर यह,
मधुर नीर युत
स्वयं को करता आह्लादित।
आत्मा के उत्स से निश्छल निकल,
आत्मा को लक्ष्य मान,
नहला जाता स्वयं कोही
अमिय धार से।
प्रिय मधुर।
छलकता नहीं किसी अन्य के लिए।
–
राह में
आ जाते जो,
काँकर पाथर,
पशु-मनुज
तरु तरुवर
सुर असुर
पुष्प कलिका
विविध रूप धर
प्रकृति नटी,
अवगाहन करते स्वयं ,
स्नेह निर्झर में,
पात्र बनते,
प्यार की पवित्र मधु धार के,
–
कभी-कभी
छिप जाता यह,
कुहेलिकाओं में,
सौ,लाख प्रस्तर शिलाओंमें,
दबे भावों की,कुचली तहों में,
प्रतीक्षा में रत ,
ओढ़ उदासी,
युगों की,
संवत्सरों की
पर,
एक हल्का सा संघात
सम्वेदना की उजास का
छूता जो मन को
दरक जाती शिला,
टूट जाती तहें,
छलक जाता अवश सा पुनः
रसमय बनाता स्वयं को
निर्झर फुहारों में
स्नेह,।
–
और,
अवगाहन कर लेती
प्रकृति स्वयं,
ब्रह्म भी,
सम्पूर्ण अग-जग,!
कहते हैं,
स्नेह छलका उन्हीं के प्रति,
पर नहीं।
विवश होता हैमनुज
कहीं,
छलकाने को स्नेह अँतर में,
स्वयं के ही प्रति,
जीवन –मुग्ध –।
आशा सहाय 15 09 2015–।
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