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जीवन मे आध्यात्मिकता की आवश्यकता

चंद लहरें
चंद लहरें
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कहते हैं,जन्म लेते आदमी का प्रथम रुदन ही उसकी भूख का संकेत दे देता है।भूख औरभूख।दो बूँदें दूध की और शिशु तृप्त।तो,यह तो पहली और जीवन भर चलनेवाली , अन्त तक पहुँचकर ही शेष होने वाली आवश्यकता है।मृत्यु के मुख तक पहुँच जाने वाले व्यक्ति से सम्बन्धीजन पूछते हैं—क्या खाने की ईच्छा है? अर्थात् कोई भूख शेष न रह जाए जीवन की जो उसे पुनः जन्म लेने को विवश करे।
इसी भूख और आहार की चिन्ता मेंजीवन गतिशील होता है।बालपन से लेकर मृत्युपर्यन्त सारे क्रियाकलापों का मुख्य उद्येश्य आत्मनिर्भर होअपनी भूख को तृप्त करना होता है। जीवन कीअन्य वासनाएँ इस भूख केचतुर्दिक उसी प्रकारघेरे रहती हैंजैसे प्रकाश वृत का बढ़ता हुआ घेरा जो केन्द्रप्रसारी होता जाता है।शान्त ताल मेंपत्थर फेंकने से बनने वाले वृत जो बढ़ते ही जाते हैं आगे की ओर—कहीं अन्त नहीं दीखता।पर वह बुभुक्षा सबके मध्य में रहती है।
यह अलग बात है कि बुभुक्षा कम और अधिक होती रहती है।कभी दो बूँद दूध से तृप्त होनेवाली भूख दो-चार फलों से भी तृप्त हो सकती है,दो कौर अन्न सेभी,आर पूरे के पूरे एक बड़े जीव को आहार बनाकर भी।जितना चाहें इसे बढ़ा सकते हैं।इसे शान्त करने के लिएएक लघु प्रयत्न भी काफी होता है और बड़े बड़े प्रयत्न भी नाकाफी हो सकते हैं।यह भौतिकता की माँग है।तबतक जबतक मनुष्य यह नहीं समझ लेता किवह क्या है,? इस विराट विश्व में उसकी महत्ता और इयत्ता क्या है ! वह छुद्र है या कि विराट्! वहध्रुव है या अध्रुव !
वह वस्तुतःछुद्र भी है और विराट भी,इस बात को समझना या समझने की चेष्टा करना हीआध्यात्मिकता में प्रवेश करने की प्रधम सीढ़ी है, प्रथम प्रयास है।व्यक्ति जैसे ही अपनेअस्तित्व की नगण्यता को ढूँढ़ लेता है,बुलबुले जैसे अस्तित्व को पहचान लेता है,वह आध्यात्मिक हो उठता है।.यह वह एहसास हैजिसके होते ही व्यक्ति की वे सारी चेष्टाएँजो मात्र भौतिकता की प्राप्ति के लिए होती है,उसे महत्वहीन प्रतीत होने लगती हैं। पर, जीवन, जो,इस विराट की देन है,उसे जीने के ळिए सैद्धांतिक पवित्रता के साथ प्रयत्न तो करना ही होता है,। ऐसा भी नहीं है किक्षणभंगुरता का एहसास या ब़हत ब्रह्माण्ड में एक जर्रे केसमान होने का एहसास व्यक्ति को अकर्मण्य बना देता है,तप और वैराग्य की ओर ढकेल देता है,वरन् वस्तुतः वह जीवन के कुछ अर्थों को समझाता है।,,हमारे आध्यात्म की नींव- गीता -हमें कर्म पथ पर बढ़ने को अग्रसर करती है।
गीता का गायन जिस समाज में हुआ,वह बहुरूपी ही है।उसमें राजा भी है, प्रजा भी,विभिन्नपदों परआसीन बड़े-बड़े पदाधिकारी भी,पंडित भी, गुरु भी ,शिक्षक भी, वणिक भी,सुर और असुर भीऔर बधिक भी।सब धर्मानुसार अपने,अपने कर्मपथ पर। धर्म यानि विवेक आधारित कर्तव्य। कर्तव्य से विचलन ही अशांति और युद्ध का कारण बनता है।
आज के परिप्रोक्ष्य मे भी यही सच है।आध्यात्म किसी के मार्ग में बाधक नहीं,सबका सहायक है।। जीवन के विभिन्न कर्म पथों पर सरलता और आवश्यक हो तो कूटनीतिज्ञता की भी दिशा निर्धारित करता है।
आज राजनीति के गँदलेपन की चर्चा हर जगह होती है।पर, आध्यात्म के चरम सत्य का साक्षात्कार करनेवाला व्यक्ति राजनीति का प्रयोग उसी प्रकार करेगा,जैसा कृष्ण ने किया था या राम ने किया था,आध्यात्म की डोर नीति और न्याय के पथ से भटकने नहीं देगी। गाली गलौज करने नहीं देगी ।संयमित व्यवहार की रेरणा देगी।व्यक्ति लोलुपता के वश में हो अनावश्यक हस्तक्षेप से,दूसरों को कर्तव्य पथ से विमुख नहीं करेगा। रचनात्मकता की हत्या करने का प्रयास नहीं करेगा।
रचनात्मकता चाहे वह किसी भी क्षेत्र की हो,वह प्रेय अवश्य है।वह भौतिकउपलब्धियों के हेतु है तो-,पर वही जब अन्ततः मानव हित की डोर से जुड़ती हैतो उसका उन्नयणीकरण होता है और वह श्रेयस हो उठता है,मानव का श्रेय बन जाता है,इसलिए कि मानव हित या कल्याण आध्यात्मिकता से जुड़ी सोच है।
विनाशकता भी कभी कभी मानव हित का उपादान बनती है।यों भी प्रकृति का नियम है कि हर अनुपादेयता का कभी नकभी विनाश होता ही है।यह विनाशकता भी मानव हित के विरुद्ध होने वाली अनुपादेयता के लिए,हर जगह व्याप्त विषों के लिए,चाहे वह मानव मन में हो वस्तुओं में हो,अस्त्र शस्त्रोंकेरूप में हो,उसे नष्ट करने की चेष्टाएँ भीआध्यात्मिक सोच की ही परिणति है।वह मानव जो किसी भी क्षेत्र में कार्य करता हुआ,अपने को अर्जुन की भाँति मात्र माध्यम मानता है,ब्रह्मांण्ड काएक कण मात्र जो ब्रह्म से युक्त है , अपने कर्मों को एक ब्रह्मांण्डीय उद्देश्य के प्रति समर्पित कर देता है,वस्तुतः आध्यात्मिक सोच का हीआश्रय लेता है।तब, युद्ध में उसकी विनाशक लीला भी श्रेयस की सीमा में ही आती है।
सत्य औरअहिंसा के दो आध्यात्मिक मूल्यों से महात्मा गाँधी ने भारत कीतैंतीस करोड़ जनता को उद्बुद्ध न किया होता तो अहिंसक क्रान्ति विजयिनी नहीं होती। संग्राम का यह स्वरूप विश्व में एक पहचान नहीं पाता,और भारत की एक अलग पहचान नहीं बनती।मन की हिंसक प्रवृतियों से मारते और मरते तो सभी जीव जन्तु हैं ,मानव की श्रेष्ठता तो उनपर विजयपाने में है।
• कृष्ण का चरित्र हमें प्रिय है।इसलिए, कि- आद्यन्तउसमें आध्यात्मिकता का समावेश है।जीवन केआरंभ से हीयह एक अंतर्धाराके रूप में प्रवाहित है।उनके प्रत्येक कृत्यमें कभी बचपन के नटखटपन कीझाँकी दिखती हैऔर कभी कैशोर्य में पराक्रम और स्नेह सम्बन्धों की झाँकी दिखती है,युवावस्था मेंभारतभूमि में जन्म लेने की सोद्येश्यतासिद्घ करते हुए महायुद्ध का नायकत्व,पुनः गीता केकर्मयोग काउपदेश देकर मानो सम्पूर्ण ब्र्ह्माण्ड केसम्पूर्ण कार्यों को परम आत्मा को समर्पित कर मानव जीवन का सत्य उद्घाटित करदेती है।एक युग का नायकत्व बिना आध्यात्मिक शक्ति के संभव नहीं हो सकता।उनका रास भी राधा प्रेम,गोपिकाओं के प्रति प्रेम यशोदा और नन्द के लाल केरूप में उनकी भूमिका,सबकुछ आध्यात्मिक था।परिणामस्वरूप कृष्ण नेप्रत्येक हृदय में स्थान बना लिया।उस व्यक्तित्व को छिछोरा, माखनचोर कहकर भी हृदय के किसी कोने में उस आध्यात्मिकता का पूजन ही करते हैं ।
आज जीवन उतना संक्षिप्त नहीं है।विशाल भारतभूमि केअरबों लाल से उस आध्यात्मिक भावभूमि की उम्मीद तो नही कर सकते,किन्तुउसके एक छोटे से अंश को भी जीवन काआधार मानकर हम अपना कर्म करते हैं तो कर्म में भूल की संभावना कम रहती है।हमारे मन के राक्षसत्व का नाश होता है। सामने जन कल्याण होता है।स्वार्थ परमार्थ में परिणत होने लगता है। निष्काम कर्म ने रैदास कोजैसे महान बना दिया,हर व्यक्ति महान बन सकता है। बस।

आशा सहाय 14—10—2015–।

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