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मर्यादाहीनता और असहिष्णुता

चंद लहरें
चंद लहरें
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इधर,कुछ दिनों से राष्ट्र पटल पर तेजी से उभरती कुछ स्थितियों को देखकर मन आन्दोलित एवं सोचने को विवश हो जाता है कि क्या ये स्थितियाँ किन्हीं घटनाक्रमों की सत्य वाँछित प्रतिक्रियाएँ हैं या कृत्रिम बलात् उत्पन्न की गयी प्रतिक्रियाएँ,जिनका तमाशा देखने में कुछ सामान्यजनों को भी आनन्द आता है और जिनसे राजनीतिक उद्येश्य भी सधते हैं ।सूत्र किसके हाथों में है-प्रत्यक्ष राजनीति के अथवा मनोवाँछित उद्वेलन उत्पन्न करनेवाली ,विरोध साधनेवाली कुटिल अप्रत्यक्ष राजनीति के!!
या कि, कोई तीसरी ही शक्ति उद्वेलन उत्पन्न कर रही है जिसका पक्ष और विपक्ष से कोई मतलब नहीं और जो मात्र तमाशबीन है।

तनाव उत्पन्न करने के लिए एक दादरी कांड ही पर्याप्त हो गया।एक व्यक्ति की जान गयी मात्र एक अफवाह पर। अफवाह की सत्यता की जाँच परख किये बिना,उस सत्यता को भी औचित्य की कसौटी पर कसे बिना कर दी गयी हत्या- और,पुनः प्रतिक्रियास्वरूप फैलता विश्वासहीनता का माहौल।सौहार्द बिगाड़ देने के लिए इतना ही काफी था कि एक और दलित परिवार के दो बच्चों का दाह—कारण घर केअन्दर था या बाहर,इसकी पड़ताल किए बिना दलित विरोधी मानसिकता का आरोपण और फिर माहौल को बिगाड़ने का प्रयास।समझ में नहीं आता कि चारो ओर इस देश में असहिष्णुता क्यों व्याप्त हो रही है।यह तो भारतवर्ष का प्रकृत स्वरूप नहीं है। असहिष्णुता तो यहाँ भारत विभाजन के पश्चात और अन्य कई बार धार्मिक विवादों को लेकर पनपी और शान्त हो गयी।आज की भारतीय संस्कृति ने,भारतीय लोकतांत्रिक,धर्मनिरपेक्ष जीवन पद्धति मे बुद्धिजीवियों ने,सामान्यतः जाग्रत लोगों ने असहिष्णुता की व्यर्थता को स्वीकार कर लिया है,फिर भी,प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति केआह्वान और अपनी उदार बहुलतावादी संस्कृतिकी बार-बार याद दिलाने की आवश्यकता पड़ रही है ।क्या हम इसे सांस्कृतिक ह्रास की संज्ञा नहीं दे सकते-!!
हमारा बौद्धिक समाज,-आदिकाल से जिसका प्रतिनिधित्व साहित्यिक करते आए हैं।कभी समाज का यथार्थ दिखाकर, कभी आदर्शों का लेखन मे समावेश और पुरजोर समर्थन करते हुए,बिना किसी से प्रभावित हुए,उन्होंने अपनी वर्चस्वता प्रमाणित की है।अपनी तीक्ष्ण बुद्धि की पैठ से सदैव सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयत्न,और उसके भंग होने के कारणों की पड़ताल विशुद्ध निरपेक्ष भाव से करने की कोशिश की है,उस वर्ग ने नजाने किस पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो एक सर्वमान्य, सर्वसम्मानित संस्था के द्वारा दिए गए अवार्ड जनित सम्मानों कोइस प्रकार लौटाना आरम्भ किया मानो जमाना अँग्रेजों का हो,और पदवियाँ अँग्रेजी शासन ने दी हों और विरोध करने के लिए पदवियाँ लौटा दी जानी चाहिए थीं। स्बशासन में विद्वता की कद्र करते हुए एक सम्मानित संस्था के द्वारा प्रदत्त सम्मान को लौटाना संस्था वा किसी व्यक्तिविशेष के विरोध के लिए होने पर भी अपने देश और साहित्य अकादमी जैसी संस्था का स्पष्ट अपमान है। वे सार्वजनिक रूप से वक्तव्य प्रसारित करते, सामान्य जनता से सहिष्णुता की अपील करते हुए कहीं ज्यादा अच्छे लगते।किन्तु उनकी वर्तमान प्रतिक्रिया संवेदनशीलता नहीं देश की मर्यादा के प्रति संवेदनहीनता का प्रदर्शन है।यह उनके निष्पक्ष स्वरूप को भी आहत करता है।
सरकारें आती जाती रहेंगी पर ये पुरस्कार उनके गौरवमय जीवन केप्रतीक के रूप मे सम्मानित होनी चाहिए न कि लौटाने की हृदयहीनता का प्रदर्शन।
कहना नहीं होगा कि जीवन में मर्यादा का अतिशय महत्व है।मर्यादित सोच और मर्यादित व्यवहार देश की सुचारु प्रगति में सहायक हो सकता है।मर्यादाहीनता असंतोष और अराजकता को जन्म देती है।
सभ्यता के बढ़ते हुए परिवेश में वह एकमात्र चीज जो व्यक्ति कोसभ्य बनाती है,वह है बातचीत और व्यवहार की मर्यादा।यह मर्यादा बलात् ही बातचीत और व्यवहार के पूर्व उसके उचित औरअनुचित होने के सम्बन्ध में सोचने को विवश करती है।आज की स्थितियों में राजनीति ने संयम खो दिया है,हर सामाजिक राजनीतिक मंच पर जिह्वा को खुली छूट दे अशालीन भाषा का प्रयोग इनकी आदत बनती जा रही है। मात्र राजनीति के लिए विरोधी व्यक्तित्वों का निरादर करना जनता के सामने गलत उदाहरण पेश करना होता है, यह विपक्षी नेताओं की छवि को तो मलिन करता ही है,स्वयं कीछवि भी मलिन करता है ।
देश के चुने हुए नेता जब असंयमित वक्तव्य देने लगते हैं तो दया उनपर ही नहीं खुद पर भी आती है कि ऐसे गैर जिम्मेदार अविवेकी ,अप्रबुदध नेताओंको काश, हमने चुना नहीं होता।
एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षदेश में हम किसी के धर्म के मामले वेशभूषाऔर खान-पान के मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
किसी प्रकार के भोजन पर बंदिश स्वास्थ्य के कारणों से लगायी जा सकती है। किसी विशेष पशु जाति की सुरक्षा अथवा उसके नष्ट हो जाने से बचाने के लिए बंदिश लगायी जा सकती है, उनकी प्रजातियाँपूरी तरह समाप्त न हो जाय इस हेतु भी बंदिश लगायी जा सकती है, दुधारु पशुओं पर, चूँकि वे मानव जाति के पोषक हैं,के सम्बन्ध में ऐसा निर्णय लिया जा सकता है ,अन्यथा ऐसा निर्णय लेना कैसे समीचीन हो सकता है!
बहुत सारी संस्कृतियों में गाय और भैंस जैसे पशुऔं का महत्व एक दुधारू पशु से अधिक कुछ नहीं, उनका कोई धार्मिक महत्व नहीं।आदिकाल से आहार में उनका उपयोग होता आया है ।हिन्दुस्तान जैसे देश मे अचानक खानपान की इस विविधता पर बलात् अंकुश लगाना आन्तरिक संघर्ष का कारण बन सकता है। इन मामलों में बिना सोचे समझे गैर- मर्यादित वक्तव्य देना, छोटी-छोटी घटनाओं को तूल देना ,आपसी सौहार्द को बिगाड़ने की ही कोशिश समझी जाएगी।जबकि सदियों से इस देश ने इस सम्बन्ध मे सहिष्णुता प्रदर्शित की है ,एक दूसरे के प्रति मर्यादित व्यवहार किया है ।अगर ऐसा न हो तो क्या सुदूर उत्तर पूर्व उत्तर पश्चिमसे लेकर सुदूर दक्षिण तक के भरतीयों को विविधता में एकता के सूत्र में आबद्ध कर रख पाएँगे?जानबूझकर छोटी-छोटी स्वार्थजनित उपलब्धियों के लिए सम्पूर्ण देश को गृहयुद्ध की कगार पर खड़े कर देने का यह प्रयास कितनी छुद्र मानसिकता का परिचायक है यह सहज ही समझा जा सकता है।
किसी विशेष धर्म की मान्यताएँ सब पर लादी नहीं जा सकतीं जैसे यह सच है वैसे ही खान पान के विधि –निषेध को भी सबपर लादा नही जा सकता।विविधता भारत की सांस्कृतिक सम्पत्ति है।विकास की लम्बी सीढ़ियो पर चढ़कर तत्सम्बन्धित सौहार्द और सहिष्णुता को हमने देश के अलंकरण के रूप में स्वीकार किया है।
हमें देखना है कि मानव धर्म का विरोध कर हम कहीं मानवभक्षी न हो जाएँ।बीफ खाने और न खाने के विवादों मे फँसना व्यर्थ ही देश को धार्मिक रूप से आन्दोलित करना है।
हमारे देश की भूमि कोई रणभूमि नहीऔर न,देश का जन जीवनवजूझते हुए योद्धाओं का जीवन ही कि निरंतर युद्ध के डंके बजते रहें,एक के पश्चात एक नए शगूफ़े छोड़े जाएँ जो जनता की भावनाओं को बलात् उद्वेलित कर उन्हें मनोविकारों की अग्नि में जलने को विवश करें।जब दो व्यक्तियों में मतैक्य नहीं होता तो इस विशाल देश में पल रहे एवं विकास पा रहे समुदायों के मत वैभिन्न्य को कैसे रोका जा सकता है ।यह क्या कम है कि इसके पश्चात भी सभी सम्प्रदाय के लोग सहअस्तित्व बनाए रखना चाहते है!
देश में मीडिया का सशक्त होना आवश्यक है, पर उससे ज्यादा निष्पक्ष और विवेकशील होना भी। हर खबर को सनसनीखेज बना देने केपूर्व विवेकशील तहकीकात की भी आवश्यकता होनी चाहिए।सत्य तक पहुँचने के लिए घटनाओं को छीलें अवश्य पर उसे बदरंग न बना दें ।देश की शान्ति अशान्ति, फैलते असंतोष,आक्रोश के कुछ हद तक वे भी जिम्मेदार होते हैं।ऐसा लगता है कि हर क्षेत्र में सहिष्णुता एवम् मर्यादित व्यवहारों की अपेक्षा है।

आशा सहाय—4—11—2015–।

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