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जल रहे हैं दिये
एक,दो,चार सात
और अब
अनगिनत।
स्वर्ण कमल चंचु युक्त
बतखों से
तिर रहे जल में,
तड़ागों में,
नदियों में
उस छोटी सी गढ़ैया में भी,
–
ओ भुवन भास्कर!!
तुम्हारी अभ्यर्थना मैं
जुड़े हैं दो काँपते से हाथ
नयन साभार,
व्याकुल तुम्हारेदर्शनों के
प्रतीक्षा मे पड़े
गाँव की बँसिया केसूप ,
दौरा, डलिया,
छोटी सुपती।
क्रोड़ में
फल फूल और पकवान
पानसुपारी ,जलते दिये।
–
भुवन भास्कर
उदित हो,
प्रभा स्नेह लालिमा की
करो प्रसारित,
स्वीकार करो आभार
पूर्ण आस का।
थाली से ले स्नेह भार,
पूर्ण करो
निभृत कोने की,कामनाएँ,
छोटी छोटी
पर
तुम्हारे इस लोक को मुदित करती।
भावनाएँ
कामनाएँ,
तुमसे ही उत्पन्न
पोषित,
तुमसे ही पूर्ण ।
–
ओभुवन भास्कर!!
प्रिय थे तुम
कल भी,
अस्ताचलगामी,
विकीर्ण रश्मियाँ समेट,
श्रान्त देह को
देते हुए विश्राम।
नव शक्ति अर्जन का
आदेशित संकेत।
जाते हुए तुम सप्ताश्व रथ पर,
पुनरागमन के पथ पर,
संकेतित जीवन पथ पर।
सिमटी प्रभा
छिटकेगी फिर
फिर होगा
जीवन का विस्तार,
एक कोना त्याग जग का
भर दे प्रकाश से
दूसरे अनगिनत कोने
बस
दिशाएँ बदलतीं,
होता जीवन का सतत प्रसार
अलँघ्य एकसूत्र जीवन।
–
ओ अस्ताचल गामी,
चरम पूज्य तुम इस स्वरूप में
जीवन का महा सत्य ले ,
अनवरत प्रकाश का
आत्मा के अनवरत उजास का ।
तुम्हारा हर स्वरूप आलोक युक्त
प्राकट्य ब्रह्म का,।
कल पुनः आने को संकल्पित
उपहार अर्घ्य का लो
ओ सनातन।-
अर्घ्य ,
मन के सम्पूर्ण विस्तार का।.
तुम,
बिखेरते लाल रँग
स्नेह के तिरते विहग सा,
ओ संध्या के अनुराग विहग
अँजुरी मेंदीप मेरे
लो सहस्त्र प्रणाम।——आशा सहाय
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