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यह भारत क्या है?जगत के मान चित्र पर खिंची वे लकीरें? –जो हमारे पुराने शासकों की शक्ति और पराक्रम से राज्यसीमा बनी—या वेभौगो लिक स्थितियाँ ?जिन्होंने इसे अन्य भू –भागों से अलग कर दिया– या वह भू भाग?,जहाँ शेष विश्व से अलग रंग ढंग के लोग, अलग ढंग की वेश-भूषा वाले, अलग ढंग के विश्वासों पर आधारित जीवन यापन करते हैं- जहाँ की जलवायु अलग है,और इन सबके फलस्वरूप जहाँ का चिंतन अलग है,जहाँ की संस्कृति अत्यंत प्राचीन है और जहाँ ऐसी दार्शनिक विचारधाराएँ पनपीं जिसने सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान की नई दिशा दी?
जब हम भारत की बात करते हैं तो ये सारी बातें अनायासतः हमारे मस्तिष्क मे आ जाती हैं। फिर एक स्वरूप झलकता है नवीन भारत का भी, जिसने पश्चिम के दरवाजे खोल सारे विश्व का भ्रमण किया है , भौतिकता और आध्यात्मिकता की नयी परिभाषाएँ गठित की हैं ,जो भौतिक कल्याण को आध्यात्मिक कल्याण के उपर तरजीह देता है, ओर भेद भाव रहित समाज में विश्वास रखता है। विश्व मे रहकर भोतिकता से मुँह मोड़ लेना इतना सरल और व्यावहारिक भी नहीं ,अतः भौतिक उन्नति के हर सपने व्यक्ति अथवा राष्ट्र के स्तर पर हमारा भारत पालने लगा। देश के विकास की परिभाषाएँ बदल गईं। अपनी आध्यात्मिकता कहीं विलीन होती चली गयीं ।ज्ञान विज्ञान के हर क्षेत्र में होड़ ही देश के विकास की परिभाषा बन गयी। प्राचीनता को भुलाकर नयेपन को अपनाना समय की माँग तो है, पर इसमें अपनी वह पहचान विलुप्त होती जारही है जिसने सम्पूर्ण विश्व को कभी हमारी ओर आकृष्ट किया था और जिसने समय समय पर पूरे विश्व को जाग्रत कर सम्पूर्ण और शाश्वत सत्य की जानकारी दी थी।
आज का भारत स्पष्ट ही इन दो विचार धाराओं के बीच पिसता हुआ दृष्टिगोचर होता है।एकओर तो वे लोग हैं जो नितान्त प्राचीन विचारधाराओं को लेकर जीना चाहते हैं और हिन्दुस्तान की अवधारणा के साथ हिन्दु ,हिन्दु धर्म और हिन्दुत्व की परिभाषाएँ गठित करते हुए व्यावहारिक रूप से उसपर अमल करने और कराने परआमादा हैं दूसरी ओर वे हैं जो आधुनिक दृष्टिकोणों के तहत भारत में पल रहे वैश्विक दृष्टिकोणों के समर्थक हैं।
वैसे, भारत की हिन्दु संस्कृति, जिसनेकुछ आध्यात्मिक दृष्टिकोणों को जन्म दिया है, जिसने कुछ देवी देवताओं को अपने आराध्य के रूप मे स्वीकारा है,और जिसके सिद्धान्तों ,नामरूपों को अपनी जीवन शैली का अभिन्न अंग बनाकर उनके बलपर नैतिकता ,जीवन मूल्यों की परिभाषा गठित कर विश्व मेंअपनी एक स्वतंत्र पहचान बनायी है; एक मिश्रित संस्कृति है , और यह इसलिए किभारत के इतिहास मेआर्यों के आगमन के पूर्व जो आदिम जातियाँ बसी हुई थींऔर जिनमे वास्तविक भारत का स्वरूप निहित था,वे भी अन्य स्थानों की संस्कृति के प्रभावों से उत्पन्न विशेषताओं से सम्पन्न धीं।सुदूर उत्तर पूर्व में और उत्तर में विशेषकर मंगोलियन संस्कृति सुदूर दक्षिण में द्रविड़ियन संस्कृति और भारत की आधारभूत जनसंख्या की संस्कृति जिसके विषय मे शोधी इतिहासकार बताते हैं कि वे भी प्रोटो आस्ट्रेलियन ऩृवंशीय जनसमूह की थी जिनकी एक पहचान मुंडा भाषा से जुड़ी है, हमारे आदिवासियो कीपहचान बनाते हैं।
तात्पर्य यह कि सिन्धु घाटी की सभ्यता जो आर्य पूर्व की सभ्यता है अपने मे एक विकसित सभ्यता के प्रमाण समेटे हैं; वह नष्ट अवश्य हो गयी,किन्तु कालप्रवाह में उसने अवश्य ही सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव छोड़े होंगे ,और इन सबों के प्रभाव को लेकर ही आगम निगमों की दार्शनिक पृष्टभूमि बनी होगी । फिर दक्षिण में विभिन्न संप्रदायों का उदय,द्वैत अद्वैत द्वैताद्वैत ,विशिष्टाद्वैत आदि सिद्धान्तों ने जीव ,जगत, ब्रह्म, माया आदि से सम्बद्ध नयी दृष्टियाँ विकसित हुईं ।दक्षिण में विष्णु शिव और उनके महावतारों के साथ मूर्तिपूजन,मंदिर स्थापन ,उत्तर से आए ब्राह्मणों का वर्चस्व ,तमिल और संस्कृत आगम और ग्रंथम के दवारा हिन्दु संस्कृतिअथवा धर्म का जो स्वरूप आज दिखायी पड़ता है ;आर्यों के आगमन के पश्चात् ही उसमें वर्ण –आश्रम आदि की अवधारणा आई और वैदिक धर्म का अस्तित्व सामने आया।आज हमारे देश की तथाकथित हिन्दु जनता मूर्तियों की भी पूजा करती है ,यज्ञ और हवन भी करती है ,वेदान्त और गीता दोनों पर एक समान विश्वास भी करती है,राम ,कृष्ण हनुमान की भी पूजा करती है साथ ही अपने विश्वासों को दूसरे सिद्धान्तों के अन्दर झाँकने की भी कोशिश करती है। ये सभी हिन्दू हैं ।वे गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं और वैष्णव, शैव और शाक्त मंत्रों काभी। कहीं निषेध नही है। कर्मकांडों का प्रभाव विचारों के खुलेपन के सम्मुख घटता जा रहा है।
वस्तुतः धर्म का अर्थ व्यवहार्य कर्तव्यों से है। विशेषकर आध्यात्मिक विचारधारा से जुड़े वे कर्तव्य जो हमारी विशेष पहचान को सुरक्षित रख सके। किन्तु देशकाल का प्रभाव इनपर पड़ना अवश्यम्भावीहै।आध्यात्म ;जो हमारा विशेष चिंतन है ,तर्क सिद्ध है ; वह अपरिवर्तित तबतक है जबतक कोई अन्य वैज्ञानिक चिंतन उसकी प्रमाणिकता को खंडित न कर दे किन्तु जिसे हम धर्म की संज्ञा देते हैं उसमे संशोधनों की सम्भावना बनी रहती है। ऐसा होना भी चाहिये अन्यथा जमे हुए प्रवाहहीन जल की भाँति वह अशुद्ध एवं अनाकर्षक हो जाएगा।युग चिंतन का प्रभाव ही जीवन्त और प्रवहमान जल की भाँति उसे आकर्षक बना कर रख सकता है। उसके किंचित बदलते स्वरूप को स्वीकारना ही सदियों से चली आई उसकी उदार प्रकृति का प्रदर्शन कर सकता है। यही सत्य है । परिणामतः कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई अपने खाद्य में क्या सम्मिलित करता है।आज विशुद्धि के लिए किसी को गोबर खाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।यह अपनी विवेक बुद्धि पर निर्भर करता है।इस सम्बन्ध की कट्टरता निश्चय ही विनाशकारी प्रभाव उत्पन्न करेगा।हर धर्म में अतिवादी दृष्टिकोण हैं और अतिवादिता सर्वत्र संघर्ष का कारण बनती है। इस संघर्ष से बचकर जब मध्यम मार्ग का अनुसरण किया जाता है तो विकास की राह अवरुद्ध नहीं होती।हमारा हिन्दु धर्म भी अपने मध्यम मार्गी सोच के कारण इतना उन्मुक्त विचारों वाला हो गया है कि उसमें कोई भी समा सकता है ।
अब प्रश्न उठता है कि क्या आज का यह हिन्दुत्व देश के विकास में किसी प्रकार बाधक है?उपरोक्त तथ्यों के आलोक मे हम उसे एक उदारचित्त विचारधारा के रूप में देखने की कोशिश करते हैं जो अपने विविध प्रतिफलित स्वरूपों मे एक आध्यात्मिकता से जुड़ी है ,जिसमे जीवों के पुनर्जन्म आदि विषयों की धारणाओं का अन्य धर्मो मे आंशिक प्रतिवाद तो हो सकता है पर इस आधार पर पूरे विश्व में यह अस्वीकार्य कदापि नहीं हो सकता।मूर्ति पूजा के इसके अपने तर्क हैं जो निराकार ब्रह्मकी निस्सीमता मे हर किसीके ध्यान के पूर्ण केन्द्रीकरण की अशक्यता के निवारण हेतु है। भक्ति और चितन को भटकाव से रोकने के प्रयत्न स्वरूप है।
और कभी कभी जो कट्टरता दिखायी पड़ती है उसे हम किन विचारों के तहत देखना पसन्द करेंगे? हमारे देश की प्राकृतिक स्थिति और वैभव ने इतने और ऐसे आक्रमणकारियों को आमंत्रित किया , जिन्होंने देश की समृद्धि को लूटने और संस्कृति को छिन्न भिन्न कर देने की कोशिश की । परिणामतः उसकी रक्षा के लिए हमें सन्नद्ध होना पड़ा।सुरक्षा की इस भावना ने हमें भी कभी कभी आक्रामक बना दिया।और वही सुरक्षा की भावना आज तक बनी हुई है।किन्तु विवेकशीलता हमारी नसों में है । हम उसका कभी त्याग नहीं करते। उफान आता अवश्य है, पर विवेक से पराजित भी होता ही है।और यह तो निर्विवाद तथ्य है,कि, हर धर्म में निवास करनेवाली यह कट्टरता विश्व धर्म अथवा सर्वधर्म समन्वय की भावना के विकसित होने से ही अत्यंत धीरे धीरे जा सकेगी।
आश्रमों की अवधारणा तो विलुप्त हो ही चुकी है। समाप्तप्राय इस अवधारणा के पीछे वह भोतिकतावादी सोच है जो हमें कभी विश्राम लेने ही नहीं देती। व्यक्तिवादिता ने वानप्रस्थ और सन्यास को अवाँछित कर दिया है। वर्तमान सामाजिक ढाँचों ने इसकी व्यर्थता प्रतिपादित करते हुए जीवन की भावनात्मक सोचों तक सीमित कर दिया है।वर्ण-व्यवस्था वाह्य जगत में कोई मायने नहीं रखती।अपनी उदारवादी सोचों से विवश हो हम बाईबिल, कुरान, अवेस्ता आदि सभी धर्मग्रन्थों कै मूलभूत मानवीय सिद्धान्तों की एकरूपता से इन्कार नहीं करते। सम्पूर्ण विश्व केमानवीय दृष्टिकोणों से प्रभावित हमने अपने इस देश में धर्मनिरपेक्ष शासन व्यवस्था की वकालत की है। फिर,कैसे और कहाँ हिन्दुत्व देश की विकास –यात्रा में बाधक हो सकता है? यह तो राजनीतिक सोचों की विफलता है जो अबतक पुराणपंथी विचारों का आश्रय ले देश मेंभावनात्मक उन्माद पैदा करती है। आपस में लड़ाती है और अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकती हैं।
स्वतंत्र भारत कीधर्म निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक व्यवस्था मे सभी धर्मों के पोषण और विकास की छूट है,ऐसे में धर्म के अतिवादी दृष्टिकोणों को भी वहाँ तक विकसित होने की छूट तो मिलनी ही चाहिए जहाँ तक वह किसी अन्य धर्म अथवा लोकतांत्रिक धर्म निरपेक्षता के आड़े न आ जाए।गायों के पोषण और गोवध के विरुद्ध की उनकी ध्वनियाँ तबतक बिल्कुल सही हैं जबतक वे लोगों के मन में इसकी सम्पूर्ण उपयोगिताजनक प्रभावों की सृष्टि कर सकते हैं। गायों को सर्वत्र भटकने से रोक सकते हैं, उनके लिए सेवाश्रमों की व्यवस्था कर सकते हैं ।हाँ ,बीफ खानेवालों को वे बलात् नही रोक सकते। अगर परंपरागत हिन्दु जीवन शैली पर विश्वास करनेवाले भी ऐसा करते हैं तो हिन्दुत्व विश्वासी दृष्टिकोण उनके विचारों को झकझोर अवश्य सकते हैं । उनके विवेक पर प्रश्न चिह्न अवश्य खड़े कर सकते हैं,पर बल प्रयोग नहीं कर सकते।
तेजी से वैश्विक दृष्टिकोणों को आत्मसात करती हुई यह विचार धारा उन्मुक्तता की ओर कदम बढ़ा चुकी है।यह कभी भी देश के विकास में बाधक नहीं होसकती।
आशा सहाय—–01—02—2016—।
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