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आन्दोलित युवामानस

चंद लहरें
चंद लहरें
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भारतीय युवामानस का आन्दोलन वाह्यरूपेण तो युवाओं के बीच दलीय राजनीति का पदार्पण दिखाई पड़ता है,जो विद्यालय स्तर से लेकर महाविद्यालय स्तर तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है।और, प्रत्येक छात्र को स्वनिर्मित,पूर्वस्थापित दलों में विभक्त करदेना चाहती है । हालाँकि विद्यालय लोकतंत्र की प्रथम पाठशाला है,पर वैचारिक लोकतंत्र का विद्यालयों मे मात्र प्रशिक्षण होना चाहिए,क्योंकि वह उनके अध्ययन का एक हिस्सा है ।उसकी परिपक्वता में अभी काफी समय शेष होता है।
स्पष्ट ही सन्दर्भ वही है।देश की कुछेक उत्तेजक घटनाऔं नेमूल समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करना आरंभ कर दिया है।वरीय संस्थाएँ –सामाजिक राजनीतिक, न्यायिकआदि ने जिस प्रकार अपनी प्रतिक्रियाएँ अभिव्यक्त की हैं उसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है।लोकतंत्र का दार्शनिक स्वरूपअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की माँग अवश्य करता हैपर उससे जुड़े कर्तव्य की उपेक्षा भी सहन नहीं कर सकता क्यों कि वह घातक सिद्ध हो सकताहै। यहस्वतंत्रता किसी हद तक जा तो सकती है पर हिंसक गतिविधियों का आश्रय कदापि नहीं ले सकती।
ये सारी बातें कालांतर में धीरे –धीरे विचारणीय बन गयी हैं।यानि बोलना, गाली देना ,व्यक्ति को या देश को– दंडनीय नहीं है।
अब रही बात कि आखिर ऐसी स्धितियाँ आती क्यों है—कोन जिम्मेदार है इसके लिए ?स्पष्ट ही जे. एन. यू, हैदराबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी, यादवपुर यूनिवर्सिटी की भाषणबाजी, व्यक्ति केरूप में रोहित वेमुला, घटना के रूप मेंआत्महत्या ,आदि जिन मूल तथ्यों, समस्याओं की ओर संकेतित करती है, उनकी जड़ें कहीं और हैं।
ये गहरी कहानी कहती नजर आती हैं,जिन्हें हम सुनकर भी अनसुनी करने के आदी हो गए हैं।इनकी गहरी जड़ें सामाजिक सोचों को छूती हैं जिन्हें लाख सांकेतिक प्रयासों के बाद भी हम बदलना नहीं चाहते,प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से व्यवहारों से उसे ईंगित कर ही देते हैं।
सामान्यतः तीन तरह की विकृतियाँ हैं जो इसप्रकार कीघटनाओं को जन्म देती हैं—जिन्हें हम सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विकृति की संज्ञा दे सकते हैं।इन्ही तीन वैचारिक स्तरों पर अधिकांशतः युवा मानस का चिंतन सक्रिय रूप लेता है।युवाओं की शक्तिसम्पन्नता उनका वैभव है और आवाज उठाना उनका अधिकार।ऊपर,ऊपर इस अधिकार को हम संविधान के अधिकार और कर्तव्य की पृष्ठभूमि पर अवश्य तौल सकते हैं, पर विद्रोह कहीं न कही अपनी आवाज मुखर करेगा ही।
यह कोई नया आन्दोलन नहीं ।इन्दिरा गाँधी द्वारा लगाए इमरजेंसी केदौरान जयप्रकाश नारायण केनेतृत्व में पूरेदेश नेआन्दोलन कापाठपढ़ा था। स्वतंत्रता पश्चात् युवाओं के राजनीतिक आन्दोलन कायह पहला सशक्त प्रयोग था, युवाओं नेअपनी शक्ति पहचाननी शुरु कर दी थी।आज उस आन्दोलन के नेतागण बड़े बड़े राजनीतिक पदों पर हैं।तत्पश्चात् विश्वनाथ प्रसाद द्वारा लागू किए मंडल कमीशन की अनुशंसाओं नेतो युवाओं को आंदोलन की आत्मदाहक अग्नि में ही झोंक दिया। यह अग्नि अभी भी भीतर ही भीतर सुलग रही है जिसके परिणामस्वरूप युवाओं केएक बड़े वर्ग मे घोर असुरक्षा की भावना घर कर गई है।बेरोजगारी से बड़ी समस्या तो और कोई नही हो सकती जो उन्हें अपने गाँव राज्य और देश छोड़ने पर विवश कर दे।समाज में फैले भ्रष्टाचार ,राजनीति से असन्तोष हर प्रकारके युवामानस को ही आन्दोलित करते हैं। घटनाएँ चाहे रेप की हों,बेईमानी घूसखोरी,मँहगाई, संग्रह की दिनानुदिनबढ़ती प्रवृति ,कालाबाजारी, वर्गभेद,जोअभी भी ज्यों का त्यों जीवित है।प्रेरणाएँ निम्न स्तर के लोगों को मिलती रहीं,- तरह- तरह के सरकारी सहाय्य भी -पर,हमेशा ही उन्हें दिल्ली दूर ही नजर आती है। यह निरंतर बनी रहने वाली स्थिति है।
अध्ययन के लिए,आजीविका के लिए उन्हें देश से पलायन करना पड़ता है।अगर वे ऐसा करने में अक्षम हैं तो अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।एक दो नहीं ,अनगिनत कारण हैं किसामाजिक और आर्थिक रूप से वे आहत होते हैं।परिणामतः विद्रोह पीढ़ी दर पीढ़ी उनके रक्त को उबलने को विवश करता रहता है।
सम्पूर्ण विश्व में,देश और समाज की शक्ति युवाओं में ही निहित होती है,और मात्र वर्तमान में जीनेवाले युवाओं की चिन्ता देश और समाज में चलनेवाली उन स्थितियों कीहोती हैजो उनके सम्मुख है,और विकास में समस्याएँ पैदा कर रही है। विकास का यह एकाँगी स्वरूप भी हो सकता है जो सम्पूर्ण इतिहास को भूलकर महज उन सिद्धान्तों की ओर दृष्टि फेरता है,जो आज की स्थितियों के लिए जिम्मेवार हैंऔर जिनके निवारण के लिए क्रान्तिकारी कदमों की आवश्यकता है।सम्पूर्ण विश्व की वर्तमान स्थितियाँ इन्ही बेचैन आन्दोलनों की स्थितियाँ हैं।ये प्रतिक्रियावादी स्थितियाँ है।
पूरे विश्व में आन्दोलित होनेवाली युवाशक्तिकी दिशाएँ निश्चित हैं । समग्र देशहितउनका वेचारिक केन्द्रविन्दु अगर होता है तो वह विचारणीय होता है। पर भारतीय युवा आज दिशाहीनता के शिकार हैं आज वे मात्र आन्दोलन के लिए आन्दोलन करते है, उनकी विवेकहीनता को स्वार्थी तत्वों का बल मिलता है। आज समृद्ध समुदायो द्वारा किए गए आरक्षणहेतु आन्दोलनों को किस श्रेणी में रखा जाय ,यह सोचने का विषय है।
पर विशेषकर,विद्यार्थियों कै द्वारा किया गया आन्दोलन सदैव प्रश्न चिह्न खडे़ करता है। विद्यार्थी , जो ,युवापन मे विशेष उर्जा और चिंतनशक्ति के साथ विश्वविद्यालय मे प्रवेश करते है,उनका प्रथमिक कर्तव्य क्या होना चाहिए ,यह विवाद का विषय हो सकता है।

आज शिक्षा का उद्येश्य बदल चुकाहै।एक ही डंडे से सभी विद्यार्थियों के साथ एक तरह के सैनिक- प्रशिक्षण जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता।उनके अंतर्निहित विशेष गुणों को प्रतिभासित करना शिक्षा का उद्येश्य है। परिणामतः विश्वविद्यालय में पलनेवाले छात्रों के चिंतन की सीमा हम निर्धारित नहीं कर सकते।हाँ ,हाँ , राष्ट् चिन्तन की प्रेरणा देने का यत्न हम कर सकते हैं ।

पहलेभी इन विद्यार्थियों केद्वारा आन्दोलन किए जाते रहे थे। पर वे विशुद्ध शैक्षिक समस्याओं से जुड़े होते थे। परीक्षा, सत्र,प्रश्नपत्र ,प्राप्तांक आदि विषय हुआ करते थे। देशभक्ति हाल –हाल का विषय था ,स्वतंत्रता आन्दोलनों से वे परिचित थे ,अतः देशभक्ति उनकी नसों मे थी । विदेशी आक्रमणो से वे स्वयं ही उबल पड़ते थे ।वाद- विवाद तब भी हुआ करते थे जिनके विषय देशहित से सम्बन्धित तो होते ही थे, अधिकांशतः वे भाषा सम्बन्धी ,विज्ञान से जुड़े अथवा शुद्ध सांस्कृतिक होते थे । देशविरोध और विद्रोह की तो बू तक नहीं आती थी। किन्तु आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है वह पीढ़ी जिसने गुलामी देखी थी, कहीं नहीं है। अब देशभक्ति की नयी खेती की आवश्यकता पड़ती है।
साम्यवादी स्वर का उभरना तो बहुत पहले से आरम्भ होगया था ।.द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संध के बढ़ते प्रभाव ने भारतीय जनमानस को इस ओर बुरी तरह आकृष्ट किया था। यह एक आकर्षक संक्रामक रोग की तरह लोगों केदिलो-दिमाग पर छाने लगा था , दिनकर की कविताएँ जबान पर चढ़ी रहती थीं।—शान्ति नही तबतक ,जबतक सुखभाग न नर का सम होगा—नहीं किसी को बहुत अधिक औ नहीं किसी को कम होगा।– पर ,क्रान्ति के ये स्वर विषैले इतने भी नहीं थे । प्रयोगात्मक रूप से यह सिद्धान्त बहुत अधिक सफल नहीं हुआ।समाजवादी स्वर के रूप में यह सदैव जीवित रह सकताहै ।केरल ,पश्चिम बंगाल त्रिपुरा आदि राज्यों ने इसका भरपूर स्वाद चखा।. परयुवा मानस में इस सिद्धांत के आकर्षण ने साथ नहीं छोड़ा।
हमारा विषय सम्पूर्णतः तो नहीं पर थोड़ा इतर है। यह सत्य है किसामाजिक बदलाव की वह चिंतनधारा,जो पूरे विश्व में एक कोने मेंढकेल दी गगयी है, अपना सिर बार बार उठाने की प्रक्रिया में युवामानस को आन्दोलित करती है।यह देश की चिंतनधारा के प्रतिकूल दिखाई देती है।पर यही नहीं,सामाजिक जीवन के गहरे असंतोष से यह ज्यादा जुड़ा है।बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाएँ,बेरोजगारी इसके मूल मेंहै।विद्यार्थियों की चेतना आज सर्वत्र व्याप्त होती है,अतः हर वह वजह,जो प्रिंट या दृश्य मीडिया पर चर्चित होती है,उससे स्वतःही उनका जुड़ाव होता है, और वे आन्दोलित होते हैं ।अपार शक्ति संबलित इस वर्ग कोऐसा करने से हम रोक भी नहीं सकते।,समाज सुधारक विचारधाराओं का साथ देने के लिए कभी वेअन्ना हजारे के साथ होते हैं ।भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कभी वेआम आदमीपार्टी केसाथ होते हैं।अन्य सामाजिक कुकृत्यों के विरुद्ध भी उसी प्रकार खड़े मिलते हैं।मात्र,इतना ही नही राजनीतिक गलियारों में चल रही गतिविधियाँ,न्यायिक निर्णयों पर उद्वेलित होना भी अपना कर्तव्य समझते हैं।
इन सारे मुद्दों पर उनका जाग्रत होना,सामाजिक जागरण का संकेत अवश्य देता है,पर दिशाभ्रमितता तब भी है। स्थायित्व का अभाव लक्ष्य केपहले ही चिंतन को विघटित करदेता है।
प्रश्नयह भी है कियह सब करने के लिये पठन-पाठन ,सत्र की निर्धारित समयावधि के बाद कासमय उन्हें कैसे मिलता है। चिंतन तक तो ठीक है, पर,कार्यान्वयन अतिरिक्त समय की भी माँग करता है जो बड़ी मुश्किल से पैसे का प्रबंध कर पढ़ने वालेछात्रों के लिएसंभव नहीं हो सकता। आन्दोलनो मे समय व्यर्थ करनेवाले छात्र अवश्य ही अतिरिक्त सुविधायुक्त और बेपरवाह हुआ करते हैं ,अगर नही तो ऐसै विद्यार्थियों की एक परिणति आत्म हत्या तक हो सकतीहै। मौजूदा अशान्ति के लिए यह बेपरवाही भी किसी हद तक जिम्मेवार रही ही होगी।निःशुल्क शिक्षा भी कारण रूप में एक बड़ी भूमिका का निर्वाह करती है।यह लापरवाही का कारण बन सकती है पर मूल कारण अंतश्चेतना मेंप्रवाहित वैचारिक विद्रोह ही है।

दिनकर् आज भी प्रासंगिक हैं,पर, आज मूल अशान्ति साम्य का अभाव नहीं बल्कि उसका सहारा ले प्रत्येक व्यक्ति के वैयक्तिक अधिकारों की माँग है।व्यक्तिवादिता ने जो सपने दिखाए हैं,उनमें उनके व्यक्तिगत चिंतन का जुड़ाव सम्पूर्ण देश को उलट पुलट कर देने के सपने देखने लगता है।विचारों में हर सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक सिद्धाँतों की विषमताएँ उच्छृंखल होकर कौंधती हैं।विचारों मेंअनुशासन का सर्वथा अभाव होता है।
आज ,बाल्यपन से ही अनुशासन विहीनता की प्रवृति भी इसके लिए कम जिम्मेवार नहीं।आज की शिक्षण व्यवस्था भी इसी अनुशासनहीनता को प्रश्रय देती है।चिंतन को स्वतंत्र छोड़ना उचित है,पर देशकाल हित को देखते हुए उसपर अंकुश लगाने की भी आवश्यकता होती है। बड़े-बड़े विश्वविद्यालय भीआज चिंतन की स्वच्छंदता विकसित करते हैं, स्वतंत्रता नहीं।
विश्वजनीन चिंताओं से युक्त युवामानस यह भूल जाता है किवहएक देश का नागरिक है जिसका हित ओर विकास उसका प्राथमिक नहीं तो द्वितीय कर्तव्य अवश्य होना चाहिए।
युवापन में दृढसंकल्प भी होता है और बिछलन भी।प्रगल्भता भी और कुछकर गुजरने का उन्माद भी।दिशाहीनता ही वह कारण है जो सभी दिशाओं में भटकता है और सही मार्ग ढूंढ नही पाता अन्यथा स्वामी विवेकानन्द की भाँति मात्र आध्यात्म केमार्ग पर चलकर भी करोड़ों करोड़ दरिद्र भारतीय बन्धु केउद्धार,भटके हुए भारतीय युवाओं कोसहीमार्ग पर लाने काउपाय खोजते राष्ट्र के उत्थान कीबातें सोचने की भाँति -देश के लिए सोचना आज के महती सुविधायुक्त युवाओं के लिए कुछ बहुत कठिन नहीं होता।
राहें अलग होती हैं पर युवामानस हरक्षेत्र में आन्दोलित होता है। उन्हें मात्र सही लक्ष्य चाहिए। विश्वविद्यालय के युवकों में व्याप्त दिशाहीनता सिद्धांतों और व्यवहारों का अंतर समझ नहीं सकता।शिक्षक इसे शायद समझा नहीं पाते,क्योंकि उनका मौखिक व्यापार मात्र सिद्धांतों को ही स्पष्ट कर सकता है,व्याख्यायित कर सकता है। देशकाल में उसकी उपयोगिता स्पष्ट करना शायद उनके लिए गौण होता है।
यह युवामानस का युगसत्य तो है पर सही दिशाएँ उन्हें भटकाव से रोक सकती हैं और उनकी क्षमताओं का भरपूर उपयोग देश के विकास में भी किया जा सकता है,पर इसके लिये देश की सभी राजनीतिक सामाजिकऔर शैक्षिक संस्थाओं एवम् शक्तियों को एकजुट हो निश्छल रूप से प्रयत्नशील होना होगा।—–

आशा सहाय- 13—03—2016—।

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