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दहकी ज्वाला
जल उठें ञगत के वैर भाव,
संवत जलता जब लहक-लहक
जब चीर होलिका का जलता
दुर्दम्य प्रयासों का राक्षस –
दम तोड़ रहा हो क्षीण काय
फिर भी हँसता।
–
हर बार वर्ष के घावों का
विष जला-
कामना मन करता,
जल जाय कलुष,
ईर्ष्या मन की,
जल जाय वैर औ,भेद-भाव
तप कर कुन्दन बन निखरे मन
बन प्रेम भाव आलिंगन सा
उर दमक उठे मानवता का।
–
बस एकदिवस यह होली का
जन जन में स्नेह पीर भरता
मदमस्त मनुज बिसरा देता
कृत्रिमता को, दानवता को,
क्षण भर ही बस,
क्षण भर ही बस,
मन का राक्षस फिर
सहज सहज
सिर उठा मनुजता पर हँसता।
–
हो काश!
चिरन्तन भावों की
औ,रंगों की
सुमधुर होली।
–
हो काश!
चिरंतन दहन
विषैले मनःपाप की।
–
हा! काश! दनुजता जल जाती
नव संवत पाप मुक्त होता
नव मानवता खिलती, हँसती।
–
फिर भी होली तो होली है
मस्ती है और,रँगेली है,
सम्पूर्ण जगत हमजोली है।
यह होली है।
आशा सहाय 21 -03 2016
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