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भारतमाता

चंद लहरें
चंद लहरें
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इधर कुछ दिनों से,पता नहीं क्यों पर आबो हवा में एक सनक भरी हलचल व्याप्त है।सनक सदैव खतरनाक होती है।उसका आधार तर्क नहीं बल्कि मन का कोई दुराग्रह होता है,जो असंयमित होता है।स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्ष बीत गए है ।.प्रकृति ने अपने संतुलित असतुलित रूप के जाने कितने दृश्य दिखा दिये हैं।बाढ़ें आईं ,भूकम्प आए, पर्वत टूटे, नदियों ने करवटें बदलीं,जंगल साफ हो गए ,निर्झरों ने अपनी स्वाभाविक गति और तीव्रता के रूप रंग बदल दिए, बहती दरियाओं पर पुल बने, सबकुछ मानव जीवन को संघर्षों में डालकरउसे अनुकूलित करते गए। विकास के बढ़ते चरणो ने भारत को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया।वर्षों सेघरों में दुबकी हुयी संत्रस्त महिलाएँ नये नये आकाश तलाशने लगी हैं ।मूल मेनिहित रोटी की चिन्ताओं नेप्रतयेक व्यक्ति की चिन्तन धाराओं को उन्मुक्तता प्रदान की है।सब कुछ बदल गया है,बस बदली नहीं हैं तो हमारी वेज़िदें जो कभी कभी तोनिर्माण का हिस्सा बनती हैं और कभी कभी घोर संग्रामों को जन्म देने परउतारू हो जाती हैं।
-दो तरह के वाग्विवाद आरम्भ से ही इस भारत भू पर जन्म लेने लगे जो कभी धार्मिक आधार को लेकर उभरते हैं ,तो कभी भावनाओं की अति को लेकर।.ऐसी ही एक जिद है भारतमाता की जय– होसकता है एक नया नारा जन्म ले ले –गंगा मैया की जै या फिर गो माता की जय इसका यह अर्थ कदापि नही कि यहाँ भारत माता के साथ ही अन्य दोनों की तुलना कर दी गई है । निश्चय ही भारतमाता की जय का महत्व सर्वश्रैष्ठ है ।वह हमारी दृष्टि में देशभक्ति का पर्याय है, इसकी अवहेलना हमारी दृष्टि से कभी नहीं होनी चाहिए। पर थोड़े विश्लेषण की आवश्यकता तब भी प्रतीत होती है।
-विवाद है शब्द “माता” पर । जबतक इस शब्द की गहरी भावभूमिका विश्लेषण ही हम नहीं कर लेते किआखिर भारत को माता का ही दर्जा हमने क्यूँ दिया ,सबकुछ स्पष्ट नहीं होता। यह नारा उस समय का है जब हम अपनी भारतभूमि को अँग्रेजी शासन से आजाद कराना चाहते थे।यह भूमि मात्र एक भूमि ही नहीं थी बल्किउस समय कीभारतीय जनता थी जो पारस्परिक सद्भाव से एक दूसरे का पोषण करती थी ,जिसकी एक विशेष संस्कृति थी जिससे हमें विशेष लगाव था,जिसके धन –धान्य हमें प्रिय थे जिसकेआध्यात्म पर हमें गर्व था।हम अवश्य ही गरीब थे ,शोषित थे पर हमारे खेतों की मिट्टी हमें प्राणों सेप्रिय थी, दो शाम की भूख मिटाती थी वह।कृषि आश्रित हमारी सभ्यता के लिए यह भूमि निश्चय ही माता सदृश थी।यह तो अँग्रेजों की कूटनीति थी ,,जिसने विषाक्तता भर दी।भेद भाव का रंग भर दिया औरयह विश्वास दिला दिया कि दो प्रमुख धर्म हिन्दु और मुस्लिम अपनी भिन्न धार्मिक मान्यताओं के कारण,एक संग नहीं रह सकते, एक नहीं हो सकते।.इस तैयार भावभूमि ने अनर्थ कर दिया।बँटवारे की नींव पड़ गई, दिल फट गयेऔर पारस्परिक सद्भाव की भावभूमि खत्म हो गयी।
– खैर,स्वतंत्रता- संग्राम के लिए एक जुनून की आवश्यकता थी।सबको जगाना था। देश की दुर्दशा के प्रति सचेत करना था।अपनी धरती अपनी संस्कृति की रक्षा करनी थी।मुगलों के अत्याचारों से देश की संस्कृति की रक्षा हेतु दक्षिण मे धार्मिक पुनर्जागरण काआरम्भ हो गया था जिसने देश को अपने आध्यात्मिक चिंतन के जरिये अपने स्वाभिमान कीरक्षा के लिए बल प्रदान किया था । उसीप्रकार स्वतंत्रतापूर्व आन्दोलन के लिए अभी तो देशवासियों में वह जुनून भरना था जिससे कोई अछूता नहीं रहे।इस कार्य मे पुनः देश के बौद्धिक समाज ने सर्वाधिक योग दिया ।तत्कालीन कवियो साहित्यकारों मनीषियो संतों और योगियों की रचनाएँ,भावनाएं इससे सतत् जुड़ती गगयीं जो एक अत्यन्त स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी । बंगाल केबौद्धिक समाज से प्रसिद्ध चित्रकार श्री अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने सर्वप्रथम भारत की कल्पना माता के रूप मे करते हुए अपने चित्रोंमे एक नारी का स्वरूप प्रदान किया।उसके पूर्व विवेकानन्द नेअमेरिका से लौटकर भारत की धरती का स्पर्श कर उसे माँ की संज्ञा से सम्बोधित किया था। देशभक्त और भारत की स्वतंत्रता के स्वप्नद्रष्टा योगी अरविन्द ने भी भारत को माता के रूप में देखा।बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने आनन्दमठ में जिस वन्देमातरम गीत की रचना की वह भी देश के प्राकृतिक और मानवीय आध्यात्मिक स्वरूप की प्रतीकात्मक अभिव्यक्लि है।शक्तिपूजक प्रवृति ने शस्य श्यामला भूमि को दुर्गा, काली, जगत धारण करनेवाली माता के रूप मेंदेख भारतमाता की कल्पना की। चित्र बने,मूर्ति स्थापित हुई और विधि विधान से पूजन भी।किन्तु मूर्ति के प्रति अंधभक्तिदेश को स्वतंत्रता दिलाने में बहुत सहायक नहीं हो सकती इसकी प्रत्यभिज्ञा होते ही देशभक्त योगी अरविन्द ने वन्दे मातरम् मेंप्रयुक्त मातरम् या मातृभक्ति को नयी दिशा देते हुए संकेतित किया था कि स्वतंत्रता आंदोलन में देश को जाग्रत करने के लिए भारत को माता के रूप में ही पूजित करना आवश्यक नहीं।एक धार्मिक स्वरूप दिए बिना भीभारत को उसकी जनता ,उसके वाह्य उस स्वरूप से जोड़ने की आवश्यकता है,जो सबका प्रतिपालक है।,फल फूल से युक्त शस्य श्यामला धरती के रूप में, अपने आध्यात्मिक स्वरूप में जो लोगों को प्रिय है।धीरे –धीरे मूर्ति स्वरूप में पूजन निरर्थक लगने लगा।यह पूजा भारत को विदेशी चंगुल से छुड़ा नहीं सकती थी।उसे तोदेशप्रेम देशभक्ति,और विविध प्रयत्नों की आवश्यकताथी।भारतमाता एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी। “भारतमाता ग्रामवासिनी”—गाँवों के सौन्दर्यऔर उसकी तत्कालीन दरिद्रता के प्रतिवजागरुक करने की प्रयत्नशीलता थी।देश के प्रति भावुकता जगाने की कोशिश थी।
— इस जुनूनी नारे की आवश्यकता तब थी, जब देश एक विशेष प्रकार की अन्तर एवं वाह्य दशाओं को झेलते हुएउससे निकलने की क्रान्तिकारी कोशिशें कर रहा था। जब बच्चे बच्चे को जगाने की आवश्यकता थी,उन्हें भी जिन्हें स्वतंत्रता के मायने ज्ञात थे और उन्हें भी जो इसका अर्थ तक नहीं जानते थे।वे विदेशियों के कुचक्रों में नफँसें ,उन्हें आगाह करना था। स्वतंत्रता की लहर ने परतंत्रता की बेड़ियों कीभी कल्पना की।बेड़ियों में जकड़ी मातृभूमि की कल्पना की।एक असहाय नारी केरूप मे मालृभूमि की कल्पना में उसके सबसे ममतामय स्वरूप माँ को प्रतिष्ठित किया।और, इस रूपक के सहारे जन-जन केमन को आन्दोलित करने काप्रयत्न किया गया।
— इस देश की जनता अत्यन्त भावुक भी है।इतनी कठोर भी कि किसी उददेश्य की सिद्धि के लिए.आत्मबलि देने के लिए भी तत्पर हो।अतः उनके हृदय को स्वदेश प्रेम से लबालव भर देने के लिए सामयिक साहित्य ने ऐसे नारोंऔर कविताओं कीसृष्टि की।
–ऋषि मुनियों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक नेदेश के उस आध्यात्मिक स्वरूप की पूजा की,जिसने सत्य की खोज का दावा किया और जिसकी गूँज विदेशों तक सुनाई पड़ीऔर भारत के इसी स्वरूप से स्वयं को जोड़नेकी लालसा ने उसके साथ माता और पुत्र का सम्बन्ध स्थापित कर लिया।
– देश के प्रति भक्तिभावना की सतत् आवश्यकता है।यह उन करोड़ों भारतवासी जनता केकल्याण को मूल में रखकर होनी चाहिए,इस देश को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सर्वोच्च स्थान पर देखने की लालसा के रूप में होनी चाहिए,व्यक्ति- व्यक्ति केविकास के लिए प्रतिबद्ध भावना के रूप में होनी चाहिए।आज इसके लिए देशभक्ति की उन वीचियों की आवश्यकता नहीं,जो समुद्र केऊपर कोलाहल करती रहती हैं,किनारे पर सर पटक पटक कर शोर करती हें बल्कि समुद्र के अन्दर शान्त धीर प्रवाहित जलधारके रूप में होनी चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर में हो।उच्छृंखल रूप में जिसे प्रदर्शित होने की आवश्यकता नहीं। इस तरह के नारे बलात् लगवाए जाने पर उन दबे हुए विरोधों को भी सतह पर ले आने मे कामयाब हो जा सकते हैं जिन्हें दबाकर हम एक विशाल लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा पर निरंतर आगे बढ्ते जाना चाहते हैंऔर निरंतर प्रतीक्षा करते हैंकि विरोधी भावनाएँ बिल्कुल ही देश की सम अवस्था पर आजाएँ,जहाँ विरोध के लिए कोई अवकाश न हो।प्रतीक्षा करनी होगी अभी भी।आज किन्हीं क्रान्तिकारी कदमों और मार-काट से इस भावना कीसृष्टि नहीं हो सकती।न ही आवश्यकता है।शनेः शनैः ही इस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।
-जब हम नारों के प्रति ऐसी विरोधी भावनाओं की बातें करते हैं तो एक धर्म विशेष नारों के मूल में निहित,पूजित प्रतिमा विशेष कीआड़ लेकर इसका विरोध करते हैं।वे प्रतिमापूजक नहीं हैं ।वस्तुतः कारण कुछ और है।यह कट्टरपंथिता की एक आड़ है जिसके तहत यह विरोध उभरता है। इस सम्प्रदाय विशेष केसमुन्नत विचारों वाले लोगों के लिए भारतमाता की जय बोलने से उनके धर्म को कोई हानि नहीं पहुँचती। ये उदारमना लोग हैं।अन्य लोगों के लिए यह एक जिद है ,,जिसे वे लगातार धार्मिक मान्यताओं से जोड़ लेते हैं।हमें ऐसे तत्वों की अनदेखी करनी चाहिए।अगर वे अपने धार्मिक सिद्धांतों की मूल भावना से खिलवाड़ करना चाहते हैंतो कोई बात नहीं। कभी तो उनकी तर्कशक्ति इसका विरोध भी करेगी। इस देश की लालन पालन करने वाली एवम पहचान देनेवाली मातृ- शक्ति के रूपमें इसे स्वीकार कर लेने में उन्हें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
— दो तीन विश्विवद्यालयों मेदेश विरोधी नारे लगाये जाने के संन्दर्भ में आज हम पुनः इस नारे की सहायता सेदेशप्रेम की भावना को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। पर, इसकी शुरुआत अगर बच्चों के स्कूलों से की जाय तो संभवतः-अधिक फलदायी हो। अतः निष्कर्षतःऐसा प्रतीत होता है कि दोनो ही पक्षों को तत्सम्बन्धित जिद का परित्याग करना समुचित है।इसबात को स्मरण रखने की आवश्यकता है कि तत्सम्बन्धित जुनून की आज आवश्यकता नहीं।विकास केबढ़ते चरणों को शान्ति और सद्भावपूर्ण वातावरण कीअपेक्षा है, संघर्ष की नहीं।.
जय –भारतमाता की।.
आशा सहाय—5-4-2016–।

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