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शिक्षा और सकारात्मकता

चंद लहरें
चंद लहरें
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चारो ओर फैले हुए अविश्वास के माहौल को देखते हुए किसी भी व्यक्ति का इस संदर्भ में मुखर हो जाना और भीतर की नकारात्मक सोच से उस अविश्वास के घनत्व मे वृद्धि कर देना आज एक आम बात हो गई है। यह सोच व्यक्तिगत ,सामाजिक या मुख्य रूप से राष्ट्रीय जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती नजर आ रही है।
इस विशाल देश की सबसे बड़ी समस्या या यों कहें कि विशिष्टता यहाँ की जाति धर्मगत विविधता है।इन विविधताओं के भिन्न भिन्न विश्वासोंऔर तद्जनित सारी समस्याओं का निराकरण कर हमारा प्रजातंत्र सबके विकास का दम भरता है।सबों को मूलभूत सुविधाओं से युक्त करना चाहता है,और चाहता है कि किसी भी व्यक्ति का विकास बाधित नहीं हो ,न,ही कोई ऐसी समस्या उत्पन्न हो जिसका समाधान न मिल सके।
जब समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, समाधान उसके साथ साथ ही उदित हो जाते हैं,पर,समस्याओं और उसके समाधान में कार्य-कारण का अनवरत सम्बन्ध होता है।एक का समाधान दूसरे के लिए समस्याएँ उत्पन्न करता है। इनके मूल में पुनः वही जाति धर्म विचारगत विविधता होती है।और,प्रजातंत्र एक ऐसी सामाजिक शासकीय स्थिति है जिसकी सफलता प्रत्येक व्यक्ति के शिक्षित होने परनिर्भर करती है।शिक्षा उसकी अनिवार्य शर्त होनी चाहिए।
-वैसे तो भारतीय प्रजातंत्र की अवधारणा मे निरक्षरता को मननशीलता और विचारशीलता के विरोधी स्वरूप मेंदेखने की आवश्यकता ही नहीं समझी गयी , परिणामतः नेतृत्व अथवा मतदाता होने के लिए ऐसी किसी शर्त का प्रावधान नहीं किया गया।पर, गाँधी जी ने इसे अवश्य ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा बाधक तत्व माना था।फिर भी विचारशीलता को कभी गौण नहीं माना जा सकता क्योंकि एक स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए स्वस्थ विचारों की एकरूपता की आवश्यकता होती है।यह पूर्णतः किसी भी समाज में संभव नहीं है। स्वस्थ विचारों की समरूपता के लिए बौद्धिक स्तर की समानता की आवश्यकता होगी जो कभी संभव नहीं दीखता।
व्यक्तिगत ,सामाजिक,आध्यात्मिक अथवा धार्मिक ,सारी विविधताएँ इसी असमानता की ऊपज हैं।इस असमानता अथवा मनुष्यमात्र का एकही ढंग से समान ऊँचाइयों तक नहीं सोच सकना कुछ तो प्राकृतिक देन है और कुछ शैक्षिक उपलब्धियों की।यही कारण है किएक देश के ही पृथक पृथक भूभागों में विभिन्न प्रकार की विचार धाराएँ पलती रहती हैंजिनकी उत्पत्ति तो मानव विशेष के मन में होती हैं पर जिनका सम्पोषण बाहरी शक्तियों द्वारा भी होता रहता है। इस देश में साम्यवादी विचारधारा का सम्पोषण भी कुछ इसी तरह से होता रहा।
भारतीय लोकतंत्र को अगर खतरा है तो मात्र अशिक्षा से क्यों कि शिक्षा ही लोकतंत्र में व्यक्तिगत जीवन की सफलताओं कोसामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन से जोड़ती हैऔर एक ऐसे समाज का निर्माण करती है जिसमें बौद्धिक स्तर की पराकाष्ठा भी होऔर न्यूनतम बौद्धिक स्तर का परिपोषण भी।इन सबके बीच से एक ऐसेसर्वहितकारी समाज का निर्माण हो जिसमे परस्पर का घना जुड़ाव हो,विचारों का आदान प्रदान हो,राष्ट्रीय प्रातिनिधिक चेतना से स्थितियों पर पूर्ण पकड़ हो।
संभव है ऐसीस्थिति में विभिन्न भू भागों पर पलने वाली क्षेत्रीय या गैर क्षेत्रीय विचारधाराएँ विभिन्न प्रकार कीसामाजिक सोच का पोषण करने लगे।अपनी तात्कालिक सोच व वाह्य प्रलोभनों से समय समय पर जीवन दिशाओं को भी परिवर्तित करने की सोचने लगे। लोकतंत्र में इसका भी निषेध नहीं बशर्ते कि लोक कल्याण इससे बाधित न हो।हर भू-भाग विचारों की प्रयोगशाला बन जाता हैसाथ ही सफलता और असफलता का पूर्ण जिम्मेदार भी। लोकतंत्र में पनपनेवाली समाजवादी, साम्यवादीआदि सभी विचार धाराओ का सम्मान होता है अगर प्रबुद्ध लोगों की सोच उसे राष्ट्र हितकारी समझती है।
इन सभी स्थितियों में शिक्षा ही व्यक्तिवादी आदर्शों और सामाजिक वैचारिक आदर्शों के प्रति सामाजिक चेतना का निर्माण करती है।
यह सही है कि क्षेत्रीयता और साम्यवाद का प्रसार प्रजातांत्रिक राष्ट्रीय और समाजिक स्थिति के लिए बहुत बड़ा खतरा है।साम्यवादी सिद्धांत एक वैश्विक साम्यवादी सिद्धांत का पोषण करता है और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पर स्वयं को हावी करना चाहता है। क्षेत्रीयता या क्षेत्रवाद राष्ट्रीय प्रजातंत्र के बहुसंख्यकवाद मेंअपने लिए असुरक्षा की स्थिति महसूस करता हुआ,प्रबलता से क्षेत्रीयता की रक्षा के लिए सक्रिय रहना चाहता है।इसी तरह अल्प संख्यक समुदाय भी अपने अधिकारों और अस्तित्व के लिए निरंतर वक्र दृष्टि से संघर्षरत रहना चाहता है। प्रजातंत्र की ये चुनौतियाँ इन सबों कोसाथ लेकर चलने को उसे विवश करती हैं।इन सबों को अनुकूल करने का एकमात्र उपाय शिक्षा का प्रसार एवं उसका उन्नयणीकरण ही है।
जहाँ तक शिक्षा का प्रश्न है,–शिक्षा बुद्धि का विस्तार करती है।उसे मानव दर्शन का साक्षात् कराए बिना शिक्षा का अंतिम उद्येश्य पूर्ण नहीं होता। हम कह सकते हैं कि आधुनिक जीवन मे जीवन दर्शन के प्रति वह ललक नहीं जो पुरातन जीवन में थी जब मनुष्य अपने को प्रकृति और प्राकृतिक शक्तियों के अधिक करीब और निरंतर प्रभावित महसूस करता धा। आज के जीवन की विश्रृंखलताएँ निर्मित हुई हैं बढ़ती जनसंख्या से,तत्सम्बन्धित जीने कीसमस्याओं से,और जीवन स्तर और जीवन शैली के निरंतर उन्नयन से।आज भरण पोषण की समस्याएँ मात्र दाल रोटी तक सीमित नहीं बल्कि प्रतियोगितात्मक जीवन शैली मे तत्सम्बन्धित विविधताओं का कोई अन्त ही नहीं।हर व्यक्ति हाथ बढ़ाकर अपनी बढ़ी हुई सीमाओं को छूना चाहता है और इसके लिए आवश्यक कलाओं तथा वैज्ञानिक,अथवा तकनीकी निपुणताओं तक हीअपने को सीमित भी कर लेता है। समाज के बहुसंख्यक स्वरूप को इससेअधिक की चाहना नहीं होती और राष्ट्र का सामान्य उद्येश्य भी यहीं पूर्ण हुआ सा दीखता है।विभिन्न शिक्षण संस्थाएँ भी,विशेषकर निजी क्षेत्र की,इससे आगे की शिक्षा के लिए न तो तत्पर हैं और न विवश ही।अल्प बुद्धि लोगों के लिए शायद यह पर्याप्त हो पर उच्च बुद्धिलब्ध के लिए इतना कदापि पर्याप्त नहीं होना चाहिए।उच्चशिक्षा के उपयुक्त हर व्यक्ति की आजीविका की माँग तो पूरी नहीं हो सकती, यह सत्य है पर इससे कुंठाएँ तभी पैदा होंगी जब श्रम के महत्व कोहम नहीं समझेंगे अथवा उसे असम्मान की दृष्टि से देखेंगे।
किन्तु हम देश में जिसस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैंउसके लिए शिक्षा के उस स्वरूप का समावेश करना सर्वथा अपेक्षित है जो तथ्यों, सापेक्ष सच्चाइयों के चरम सत्य तक पहुँचने में हमारी मदद करे।जो भौतिक उपलब्धियों के लक्ष्यों के साथ-साथ मानवता के चरम सत्य तक पहुँचाने में हमारी मदद करे।चरम ज्ञान प्रदान करने वाली यह शिक्षा तर्क वितर्क तथा चिंतन की अभिव्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता तो देती ही है साथ ही व्यक्तिगत उपलब्धियों की असीमितता को भी एक हद तक छूट देती है।शिक्षा का यह स्वरूप मानवता का रक्षक है।चरम सत्य की उपलब्धि जीवन को निष्क्रिय नहीं बनाती,कर्मयोगी बना सकती है,घोर आसक्ति से दूर कर सकती है,पर जन्म से जीवनान्त पर्यन्त की अवधि को एक सार्थक भराव देती है,जिसमे मानवमात्र को कष्ट से मुक्त करने केसारे प्रयास होते हैं और मूल भावभूमि जीवन के मूल दर्शन से अलग नहीं होती।
– आज इस शिक्षा का सर्वथा अभाव हो रहा है।आज सारे व्यापारिकसंसार के सम्राट जीवन शैली पर व्याख्यान देते नजर आते हैं, वह इसलिए कि व्यवसाय अथवा व्यापार को वे मानव हित से जोड़कर देखने का प्रयास करें।स्व हित से उपर उठकर सर्वजनहिताय की दृष्टि रखनी चाहिए।स्वहित तो उसमे स्वयं ही समाहित हो जाता है।
एक अन्य अनिवार्य पक्ष जो भारतीय शिक्षा के उस पहलू से जुड़ा हैजो व्यक्ति को मात्र प्रजातांत्रिक व्यवस्था मे दीक्षित करने और जीवन स्तर को सुधारने तक अपने को सीमित करता है.वह है देश के सभी संस्थागत कार्यप्रणालियों, प्रजातांत्रिक प्रयासों को मात्र आलोचनात्मक दृष्टि से देखना।शिक्षा स्वयं ही एक अणुवीक्षण यंत्र है। इस अणु अणु को परखने की दृष्टि से युक्त हर शिक्षित व्यक्ति हर क्षेत्र के नकारात्मक पहलुओं को पहले देखना चाहता हैऔर उसे इतना विस्तार दे देता है कि सारे सकारात्मक पहलू ढँक जाते हैं। सभी अवाँक्षित तत्व दृष्टि के सम्मुख अन्य तत्वों को अस्तित्वहीन करते प्रतीत होते हैं।
नियमविरुद्धता,अपराध,असामाजिकता ,लोभ से प्रेरित कार्यशैलियाँ ,भ्रष्टाचार जो इस देश मे सर्वत्र व्याप्त है ,उसे नकारा नहीं जा सकता।जातीयता का जहर भी हर क्षेत्र को जहरीला बना ही रहा है।पर ये सब गैर संवेदनशीलता की उपज हैं।दृष्टि का यह अणुवीक्षण यंत्र ढूँढ़कर उन्ही पक्षों को दिखाता है,यह बहुत अनुचित तो नहीं,क्योंकि उसे दूर करने की आवश्यकता होती है।पर, जो आजतक अच्छा हुआ है,होरहा है,और होने के क्रम में है,उसे भी तो देखने की चेष्टा होनी चाहिए।यह सकारात्मक दृष्टि है और उस दृष्टि का विस्तार भी शिक्षा ही करती है।आवश्यकता यह देखने की है कि शिक्षा से हम क्या प्राप्त करते हैं,मात्र आलोचना या समालोचना।समीक्षा करने की दृष्टि सकारात्मक पहुँच है।यह हमें हर क्षेत्र की उपलब्धियों और अनुपलब्धियों की तुलनात्मक स्थितिसे परिचित कराती है।इस समीक्षात्मक दृष्टि के पथ में आती है देश की विराटता,जनसंख्या की भयकारी स्थिति,विविधताएँ—धर्म ,सोच ,वेशभूषा और जीवनशैलियों की। और, देश का महत् संकल्प कि इन सबको साथ लेकर, सबके विकास कामार्ग प्रशस्तकरना है तो सबसे पहले अनिवार्य उपलब्धियों तदुपरांत शनैःशनैः प्राप्त होनेवाली उपलब्धियों का आकलन करना होगा।यह सकारात्मक सोच कार्यक्षमता में वृद्धि करती है जबकि स्धितियों के प्रति मात्र नकारात्मकता कुंठाओं को जन्म देती हुई, इस विकास के मार्ग को अवरुद्ध करती है।साथ ही इमानदार प्रयत्नों को गैर इमानदार बना देती है।
न,केवल राष्ट्रीय जीवन बल्कि निजी जीवन में भी दृष्टि की नकारात्मकता अवसाद को जन्म देती है।जीवन से विरक्ति पैदा करती है , परिणामतः आत्महननकी प्रवृति को प्रश्रय मिलता है।शिक्षा केसाथ सकारात्मक दृष्टि का योग ही निजी एवं राष्ट्रीय स्थितियों को ग्राह्य बनाती है साथ ही बेहतर केलिए प्रयत्नशील भी।इस सकारात्मक सोच के साथ नैतिक मूल्यों का समावेश निश्चय हीबहुत अच्छे परिणामों को जन्म देनेवाला सिद्ध होना चाहिए ऐसा विश्वास है।—-इति
आशा सहाय

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