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समस्याः-कश्मीर की

चंद लहरें
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आजकल देश की बहुचर्चित एवं बार- बार देश को आन्दोलित करने वाली समस्या जनित खबरेंजो मीडिया के माध्यम से हर व्यक्ति को अपनी राय बनाने को विवश कर रही है,उनमें कश्मीरमे उत्पन्न संकट सर्वाधिक महत्व रखता है। और हर आदमी इसलिए वहां की स्थिति जानने को समुत्सुक है क्योंकि प्रत्येक भारतीय का उससे भावनात्मक सम्बन्ध बन चुका है।लोगों के पास जो समाधान होते हैं उनमें आक्रोश प्रधान होता है जो मात्र इस बात की गारंटी देता है कि वे तत्काल समाधान की तीव्र इच्छा रखते हैं।
काश्मीर समस्या तो बड़ी समस्या है ही जिसकी जड़ें वहाँ समायी हैं जहाँ रोज रोज झाँकना भीअब बेमानी लगता है।लगता है, वर्तमान में कोई समाधान मिल जाए बस।.किसने इस समस्या का बीजारोपण किया,किसने विस्तारित।किसने इसका लाभ उठाया,यह सब इतना स्पष्ट हो चुका है कि कुछ भी कहना निरर्थक लगता है।तब समाधान कैसे हो, किसे दोष दिया जाए। कूटनीतिक प्रयत्नों के अन्तर्गत जबसे भारतका हिस्सा कश्मीर बना है, यह देश की ऐसी अनिवार्यता बन चुका है कि किसी भी शर्त पर भारत इसें खोना नहीं चाहता या भविष्य में ही खोना चाहेगा।यह भारत का अन्यतम सोन्दर्य है,देश की विशिष्ट ऐतिहासिक संस्कृति की पहचान है।विश्व के आकर्षण का केन्द्र है। क्या हम उन परिस्थितियों को दोषी ठहराएँ, जिसने आधे कश्मीर कोकबायली हमले के प्रत्युत्तर में पाकिस्तान में ही छोड़कर युद्ध विराम करवा दिया,,या उसे जिसने कश्मीर के जनमत को ज्यादा महत्व दे दिया।.ये सब देश की वह कमजोर नीतियाँ रहीँ, जिन्होंने काश्मीर को आज की स्थिति में ला खड़ा किया है।बार बार जनमत संग्रह की माँग,बार बार मानवाधिकार के उल्लंघन का हवाला देनाऔर बार –बार हँगामाओं की सृष्टि करना, बार बार देश की निर्णायक शक्ति को कमजोर करने की चेष्टा के सिवा और कुछ नहीं।राज्य के शासक वर्ग मे भी कभी कभी सम्पूर्ण ईच्छाशक्तिअथवा भारतीय अधिकारों के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का अभाव सा दीखता है। लगता है राजनीति इतनी उथली हो गयी है कि मित्र और शत्रु की पहचान कठिन हो रही है।
केंन्द्रीय शासन की मुस्तैगी पर वहाँ की प्रतिक्रिया विपरीत होती है।देश के अन्य हिस्सों में विविध आतंकवादी संगठनों द्वारा अराजकता पैदा कर देश की विचारधारा को दो भागों में बाँटने की कोशिश की जाती है।मानवाधिकारों के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय द्ष्टिकोण का मुख मोड़ने की कोशिश भी की जाती है।
कशमीर से अनन्त यातनाएँ देकर काश्मीरी ब्राह्मणों को भगा दिया गया था।अब तथाकथित अनुकूल स्थिति में वे पुनः वहाँ नहीं जाना चाहते।बस ,देश की राजनयिक सफलता के लिए स्वयं को कुर्बान कर देनाउनको कितना अनुकूल प्रतीत हो सकता है?
समझौतों के कई तरह के प्रयासों को बार बार रोक देनेकी साजिश होती रही ।।लगता हे हम दोनों ही आखें चुरा रहे हों ।कश्मीर हमारा है और हमारा रहेगा, यह सच्चाई है, और यह हमारा राग है और कश्मीर अंतर्राष्ट्रीय विवादग्रस्त मसला है ,यह उनका राग है। आखिर कहीं तो एक कमजोर कड़ी है जिसके टूटने का डर दोनों को ही निर्णायक स्थिति में पहुँचने से रोक देता है।
तो कश्मीर समस्या के समाधान केलिए शांत दोस्ती के माहौल में वार्ता की आवश्यकता है जो होने नहीं दिया जाता।इस दिशा में वर्तमान राजनयिक प्रयत्न किये गये पर फिर वही ढाक के तीन पात।
वर्तमान आन्दोलन एक आतंकवादी नेता के मारे जाने के विरोध में है।यह कश्मीरी पृथकतावादी विचारधारा का आंदोलन है। यह इतना सशक्त है कि शांति के सारे प्रयास अपर्याप्त से प्रतीत हो रहे हैं। देश के भीतर पैठकर ये पृथकतावादी तत्व घुसपैठिये की तरह समय समय पर हवा देने से नहीं चूकते जिन्हें हम दबाने की कोशिश तो करते हैं पर यह एक और नयी स्थिति को जन्म दे देती है।
कश्मीर की आजादी की माँग वस्तुतः कश्मीरियों की माँग नही यह उन देशों की माँग है जिन्हें हमारे देश के नक्शे परकाश्मीर की सुन्दरता नहीं सुहाती और गाहे बगाहे वे उसे मानचित्र सॆ उड़ा भी देते हैं।जिन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति केलिए कश्मीर को अशान्त रखने की ठान ली है।कश्मीर का अपना पुराना राग” कशमीर छोड़ो” तोसबके मूल में है ही,हुर्रियत नेताओं के द्वारा समय समय पर किया गया आन्दोलन इसे और गम्भीर बनाता जा रहा है। 2010 में क्रिकट खेलते बच्चेकी टियर गैस शेल लगने से मृत्यु ,उसे शहीद घोषित करना आदि हथकंडों का सहारा घाटी को अशांत करने के लिएही लिए जाते हैं उनके द्वारा की गयी पत्थरबाजी प्रायोजित सी होतीहै ।इंडियन ट्रूप्स को कम करने की माँग में दुहरी राजनीति होती है।इन सबों से सामान्य जनजीवन बहुत प्रभावित होता है।बार –बार कर्फ्यू लगाने की आवश्यकता पड़ती है।.फिर चाहे किसी धार्मिक ग्रंथ को जला देने का मामला हो या कुछ और। कर्फ्यू स्थापित करने की स्थिति यानी सामान्य जनजीवन का प्रभावित हो जाना।
ये सारी प्रतिक्रियाएँ कश्मीर को देश की सामान्य धारा से पृथक कर देखने का ही परिणाम है।कश्मीर अपने को कश्मीरियत संस्कृति को मानने वाला बताता है।उसे ही अपनी राष्ट्रीय भावना घोषित करता है। वह एक ऐसी संस्कृति है जिसमें हिन्दु मुस्लिम ,बौद्ध जैन ,सिख किसी के लिए भेद भाव नहीं है।ऐसी मिश्रित संस्कृति जिसमे शैव धर्म का प्रमुख स्थान है।ऐसी स्थिति में कश्मीर में हुए उपद्रवों में निश्चय ही पाकिस्तान जैसे देश से समर्थित अलगाववादियों द्वारा होता है।और यह सब इसलिए कि अशान्ति के लिए किये गए कार्र्वाइयों को वह मानवाधिकार विरोथी कह अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बना सके।
मीडिया नित्य ही नये तथ्यों को उजागर कर रही है।यह किंचित भी आश्चर्य का विषय नही कि कश्मीर के बड़े बड़े अलगाववादी नेता अपने बच्चों को इस माहौल से दूर रखने के लिए विदेशों में पढ़ाते लिखाते एवं नौकरी करवाना पसंद करते है ।तात्पर्य यह कि उनके स्वयं के द्वारा किया गया कार्य उन्हें भी पसंद नहीं।तब, यह सब वे पैसों के लिए करते हैं।वे भाड़े के टट्टू हैं।पत्थरबाजी करने के लिए भी उन्हें पैसे मिलते हैं.।इस स्थिति पर काबू पाने लिए राजनयिक प्रयासों की आवश्यकता तो है ही,वहाँ केलोगों को जागरुक करना भी आवश्यक है।
ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं किये जा रहे।राज्य स्तर पर भी सर्वदलीय बैठक बुलाकर स्थिति को वश में करने की कोशिश की ही जा रही है पर वहीं के अन्य पूर्व मुख्यमंत्री ने इसकी निरर्थकता समझते हुए इसका बहिष्कार भी किया। वे भी राजनयिक प्रयत्न की इच्छा रखते हैं।उनके विचार से कश्मीर के लोगों को आर्थिक पैकेज नही शान्ति चाहिए।यह सही दृष्टिकोण प्रतीत होता है। यह सही है कि युवाओं को भटकने से रोकना होगा।गृहमंत्री का युवाओं से तत्सम्बन्धित वादा एक सही कदम है।शांति औरसद्भाव का माहौल बनाने के लिए सभी प्रतिनिधियों से बातचीत भी एक आवश्यकता थी।ये सारे प्रयत्न सकारात्मक हैं। सुप्रीम कोर्ट ने एक अच्छा निर्णय लेते हुए काश्मीर के न्यायिक मसलों को देश के अन्य न्यायालयों मे सुलझाये जा सकने का प्रवधान कर दिया है।
नवाज शरीफ अपने गंदे इरादे को अभिव्यक्त करने से नही चूके ।यह इनके साथ किये गये मित्रता के सारे प्रयत्नों की निरर्थकता और खोखलेपन की ओर स्पष्ट संकेतित करता है।साथ ही कश्मीर में होनेवाले सारेउपद्रवों केमूल में पाकिस्तान की संलग्नता की यह स्वीकृति भी मानी जाएगी।
सारे प्रयत्न सकरात्मक किये जा रहे हैं पर द्वन्द्व की भावना तो वहाँ वातावरण में घुसी बैठी है।यह जहर जिस पड़ोसी देश की देन हैउसके इरादों को नाकाम करने के लिए सार्थक पहल तो करनी ही होगी ।उन्हें उनकी भाषा में उत्तर देना ही होगा। यह बहुत चिन्ताजनक विषय है कि आजादी के इतने सालों बाद भी और उनके कई छद्म हमलों को नाकाम करते रहने केबाद भी हम कोई स्थायी समाधान नहीं निकाल पाये कि कश्मीर की जनता का जीवन इस प्रकार लम्बी लम्बी अवधि की कर्फ्यू से संत्रस्त न हो।

आशा सहाय

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