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लोग कहते हैं
यह धरती भिन्नवर्णा है
कहीं काली कहीं लाल
भूरी कहीं कहीं श्वेताभ
कही चाँदीसी चकमक
दूर सागर तटपर प्रिय
त्यक्त लवणपट ओढ़
श्वेत दुग्धसी शीतल कहीं,
मिजाज भी अलग हैं उसके
कही उगाती, शस्य गेहूँ
फल फूल,
कहीं काँटे कपास
जाने कितने खाद्य अखाद्य
बहाती कहीं जलधार ,
संस्कृति निर्माण करती,
कहीं चट्टानें सेती
रुष्ट भी होती कभी
कही उगलती आग धूम सघन
काला करती नभ को,
पिघलाती चतुर्दिक जीवन,
मर जाती सारी करुणा
उसके जीवॆत अंतर की
करवटें लेती कभी
दहलाती कँपाती
जग ,चर अचर को
कभी स्नेह छलकाती
और कभी
निष्काम योगिनी सीशान्त
देती एक सम छूट
व्यवहार करें चाहे जैसा
योगी भी
भोगी भी
भिन्नधर्मा भिन्नस्वरूपा
पर अभी इस भींगी बारिश में
खोल दिये पट अपने,
धरती ने
आनन्दित, उजास भर हृदय
समेटती बूँदों को
झम झम झमकती
धाराओं को, जल प्रवाहों को
उज्ज्वल मन
देने को उत्साहित निज संपदा
निज पुत्रों को, नर को
किन्तु आज तो –
आकाश ही काला है
तोड़ रहा धरती के श्रृंगों को,
बहा रहा धरा-संपदा को
उजाड़ रहा गृह-बार
डुबो रहा जीवों को
लक्ष-लक्ष,अनगिन
मानवों को,
जाने क्यों किस विध निकाल रहा
मन की भड़ास !
कर धरासुतों का सीधा विनाश।
आकाश तो पिता है
पालनहार
मार्गदर्शक
जीवरक्षक
पर आज है क्यों रुष्ट
प्रबुद्ध?
कालिमा पट ओढ़
बना
मन का काला!!
आशा सहाय ६ -८–2016
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