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विफलताएँ—और समस्याएँ

चंद लहरें
चंद लहरें
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सबसे अधिक संवेदनशील विषय जो देश की राजधानी कोकठघरे मे खड़ा करने के लिए पर्याप्त है वह है दिल्ली का घोर प्रदूषण युक्त पर्यावरण।.कहते हैं ,दिल्ली आजकल गैस चैम्बर की तरह पीड़ादायक हो गयी है।यह हत्यारी स्थिति है। ऐसी या ऐसे से ही कुछ बदतर स्थितियों में लोगों की जानें चली जाती हैं कुछेक देशों में ऐसा हुआ भी है।दिल्ली की वर्तमान स्थिति के कई कारणों में एक पड़ोसी राज्यं पंजाब एवम हरियाणा में पुआल को जलाए जाने की प्रक्रिया बताई जा रही है और सारा दोष उनपर मढकर स्वयं दोषमुक्त होने की कोशिश की जा रही है।पर र्इसके पूर्व भी दीपावली और ऊसके पूर्व और बाद मे भी वायुमंडल में जहरीले गैसों केभरने का कारण पटाखों और आतिशबाजियों का खुलकर प्रयोग ही हो सकता है।दिल्ली का पर्यावरण पहले भी पर्याप्त असंतुलित रहा हैदेश के किसी भी कोने से वहाँ जानेवाले लोगों की यह आम शिकायत रही है।
समझ में नहीं आता कियह खतरनाक स्थिति तथाकथित सुसंस्कृत,देश की राजनीति में सक्रियता प्रदर्शित करने वाले प्रबुद्ध लोगों, और पूँजीपति वर्ग के लोगों की अदूरदर्शिता और प्रदर्शन की भावना के कारण हुआ, तो यह लज्जाजनक विषय प्रतीत होता है।गरीब तबके के लोगों के पास प्रदर्शन में फूँक देने के लिए इतने पैसे ही नहीं होते अतः उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। राजधानी में रहनेवाले ,वहाँ की समस्याओं से नित्यप्रति रूबरू होनेवाले लोग,सरकार की जरा सी लापरवाही पर उसे कठघरे में खड़े कर देने वाले लोग इतनी गैर जिम्मेदार असंवेदनशीलता का परिचय दें,यह अत्यधिक लज्जाजनक और हास्यास्पद स्थिति है ।

ऐसा नहीं कि स्थिति के कारक तत्वों से प्रत्येक नागरिक परिचित नहीं ,न ही यह सत्य हो सकता कि राजनीतिविद, राजनेतागण ,पर्यावरणविद, सरकारी तंत्र को ही यह ज्ञात नहीं– तब हमारे आपके लेखन का प्रयोजन उनकी मुँदी आँखों को खोलने एवम् झकझोरने का है।पहले से इस स्थिति का ज्ञान होने के बाद भी सही कदम नही उठा सकने के पीछे आखिर सरकार की कौन सी अशक्यता और विवशता है—इसओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने की जिम्मेवारी तो बाहर से स्थिति का आकलन करनेवालों की ही होती है।
क्या पिछले साल के कुपरिणामों को देखते हुए बृहत पैमाने पर पुआल जलाने की प्रक्रिया के प्रति सतर्कता नहीं बरती जा सकती थी? क्या पड़ोसी राज्यों को राजधानी की भौगोलिक स्थिति से परिचित करा पुआलों की कोई अन्य उपयोगी व्यवस्था करने को निर्देशित नहीं किया जा सकता था?इस प्रका र की लापरवाही कदापि क्षम्य नहीं कही जा सकती।यह पर्यावरणविद् एवम् तत्सम्बन्धित अधिकारियों की बहुत बड़ी नाकामी है।
पटाखे एवम् अन्य आतिशबाजियाँ भी पर्यावरण में जहर घोलते ही हैं।क्या उस राजधानी के लोगों को जागरुक करना सरकारी तंत्र का कर्तव्य नहीं थाजहाँ नित्य उस प्रदूषण से लड़ने के लिए ऑड और इवन जैसीअसफल बंदिशें गाड़ियों के प्रयोग के लिए लगायी गईं।पूर्ण रूपेण प्रतिबंधित नहीं कर ,थोड़े समय की छूट दे प्रतिबंध तो लगाना ही चाहिए था। परिणामतःस्थिति की घातकता आक्सीजन की बोतलों एवं मास्क लगाने की ओर संकेतित कर रही है।जीने की साँसें मंहँगी होती जा रही हैं।
ये समस्याएँ तो तब सरकार अथवा राजनेताओं को झँझोड़ें जब उन्हें राजनीतिक संघर्षों से फुर्सत मिले।अभी कुछ दिनों पूर्व तक दो प्रमुख घटनाएँ राजनीतिक हवा को प्रदूषित कर रही थीं।O ROP मामले को लेकर सेवानिवृत एकसूबेदाररामकिशुन ग्रेवाल की खुदकुशी पर सियासत ने पुनःघृणित मोड़ ले लिया। स्थितियाँ उसकी आत्म हत्या को भी बलात् प्रेरित आत्महत्या की ओर संकेतित करती हैं। ठीक वैसे ही जैसे AAP की सभा में एक किसान ने आत्महत्या की थी।रामकिशुन ग्रेवाल को शहीद बनादिया गया , उसकी शहीदी मे कैन्डल मार्च निकाले गए और देश की सीमाओं पर मरनेवाले वास्तविक शहीदों के नाम परदो बूँद आँसू भी नहीं बहाए गए।ऐसा लगता है कि चुनावी माहौल में गर्मी पैदा करने के लिएअब ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करने की कोई मजबूरी ही होकुछ पार्टियों की।
आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं,यह कायरता है।इसे पाप पुण्य की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं रखकर इसके पीछे की परिस्थितियों का आकलन करना उचित हैकि क्या ओरोप के अन्तर्गत मिलने वाली राशि बिल्कुल ही उसकेपरिवार के भरण पोषण के अपर्याप्त थी? क्या वह सरकार द्वारा लिए जाने वाले भविष्य के निर्णयों अथवा समस्या के समाधान की बिल्कुल प्रतीक्षा नहीं कर सकता था?या वह कर्ज भार को सहानुभूति में मिलनेवाली राशि से दूर कर परिवार को भारमुक्त करना चाहता था?इनमेंसे किसी भी कारण से की गई आत्महत्या समस्या का उचित समाधान नहीं हो सकता। आत्महत्या कभी भी वंदनीय नहीं खासकर एक पूर्ववर्ती सैनिक के लिए जो देश केलिए सदैव कुर्बानियों के लिए तत्पर रहता है।धैर्यपूर्वक समस्या समाधान की ओर आगे बढ़ना ही उचित होता।पर जब सैनिक भी निम्नस्तरीय पॉलिटिक्स का सहारा लेने लगें ,तो उसके कदमों को भी अश्रद्धा की दृष्टि सेदेखनी पड़ती है।किन्तु उन विरोधी दलों का क्या जो इस बुने हुए घटनाक्रम को ही भुनाने में लगे हैं।
सत्ताधारी पार्टी से हर घटनाक्रम कासाक्ष्य माँगना तो जैसे आम बात हो गयी है।.कैद सेभागे हुए आतंकियों को मुठभेड़ में मार गिराना भी साक्ष्य कीतलाश में है।ऐसे आतं कियों को इतने दिनों तक न्याय प्रणाली में नहीं लाने का कारण एवम् जेल प्रशासन द्वारा ऐसे आतंकियों पर इतना ढीला नियंत्रण कि एक अधिकारी की हत्या कर वे –सशस्त्र भाग निकलें–दोनों को ही कठघरे में ला खड़ा करता है।
सरकारें बदलती रहती हैं ।ऐसी घटनाएँ कभी भी घट सकती हैं।सरकार को आतंकियोंको पकड़ने की कोशिश करनी ही पड़ सकती है मुठभेड़ मे उन्हें मारा भी जा सकता है।साक्ष्य खोजना और देश की सुरक्षाव्यवस्था पर शंका करना कदापि उचित नहीं।
बहरहाल अभी सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा दिल्ली के प्रदूषण से सम्बन्धितहै। सुप्रीम कोर्ट ने भी शीघ्र समाधान ढूँढ़ने का निर्देश सरकार को दियाहै।आज लिए गए कदम कल के लिए भी कारगर होंगे हम ऐसी आशा कर सकतेहैं।और यह सब निर्भर करता है हमारी जागरुकताऔर दूरदर्शिता पर।हम सब को दूरदर्शी होना होगा और सरकार को पूर्णतः सचेत।

आशा सहाय

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