Menu
blogid : 21361 postid : 1293386

प्राथमिकशिक्षा –कमियाँ और निदान

चंद लहरें
चंद लहरें
  • 180 Posts
  • 343 Comments

यूँ तो किसी भी देश के विकास का कोई अर्थ नहीं होता अगर देश में अशिक्षा और अर्ध शिक्षा की स्थिति हो।विकास की परिभाषा मानसिक विकास के बिना अधूरी होती है।इसी तरह मानसिक विकास के लिए पढ़ना, लिखना, अध्ययन करना ,मनन करनाऔर विवेकपूर्ण निर्णय लेना अत्यन्त आवश्यक है।पर डेमोक्रेसी में तोशिक्षा का दोहरा उद्देश्य होता है।परिभाषाओं में बिना भटकेही यह सोचा जा सकता है कि शिक्षा का प्रथम उद्देश्य व्यक्ति –व्यक्ति के सर्वाँगीण विकास के लिए,समुन्नति के लिए,उसके अपने जीवन केसफल सम्पादन हेतु सक्षम बना देना होता हैऔर द्वितीयतःडेमोक्रेसी के सफल संचालन एवम् निर्वाह के लिएदेश की जनता को प्रजातांत्रिक तरीके से प्रजातंत्र की प्रणाली एवम् विभिन्न स्थितियों से परिचित कराने के लिए भी शिक्षा की आवश्यकता होती है।इस मायने में प्रत्येक नागरिक का चाहे वह बच्चा ,किशोर, वयस्क या वृदध ही क्यों न हो ,थोड़ा बहुत शिक्षित होना आवश्यक होता ही है।
—पर, जहाँ तक सम्पूर्ण देश के विकास का प्रश्नहै प्रत्येक व्यक्ति की गुणात्मक शिक्षा की अनिवार्यता होती है ।उसकी शिक्षा ही देश मेंएक विकसित माहौल की सृष्टि करती हैजिसके तहत देश के अन्दर और बाहर उसके व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचान बनती हैऔर शिक्षित स्वस्थ मानस के द्वारा ज्ञान की विशेष शाखाओं मे,विधाओं में और अत्याधुनिक तकनीकोंमें प्रशिक्षित हो अपने जीवन को स्वस्थ दिशा देने के साथ-साथ देश की समुन्नति में सहयोग कर सकती है।
ऐसी स्थिति में विकास की अनगिनत सीढ़ियाँ चढ़ चुके भारत मेंअगर प्राथमिक शिक्षा की ही दुर्गति हो तो यह लज्जा का विषय है।प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा को ध्यान में रखते हुए पूरे देश में अनगिनत विद्यालय कोने- कोने में खोले गए।पर समस्याएँ अभी भी ज्यों की त्यों प्रतीत होतीहैं।निजी विद्यालयों और सरकारी प्रथमिक विद्यालयों के मध्य गुणात्मक क्षमता से सम्बद्ध स्थितिगत चौड़ी खाई है।यह खाई क्यों है? वे कौन से कारण हो सकते हैं ?क्या उन कारणों से जूझा नहीं जा सकता ,क्याउनका निदान नहीं हो सकता?यह दूरी ही सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुःस्थिति के साथ सरकारी प्रयत्नोंकी हँसी उड़ाती सी जान पड़ती है।
— शिक्षा विभाग मानो प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ नामांकन चाहता है।संख्यात्मक वृद्धि का होना बहुत अच्छी बात है।पर स्कूल जाते बच्चों को देखकर खुशी का अनुभव होना ही अगर लक्ष्यपूर्ति कर देता हो तो इस दिशा में इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है!सरकारी वित्त से पोषित विद्यालय में,गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों और शिक्षिकाओं की नियुक्ति,नियुक्ति मेंअनिवार्य न्यूनतम प्रशिक्षण आदि ऐसी शर्तें है जिनके पूर्ण होने पर ही की जाती है तो ऐसी प्राथमिक कक्षाओं मॆंपढ़ने वाले छात्रों से हम सही उच्चारण, शब्दों को जोड़कर पढ़ना,थोड़ी समझने की शक्ति विकसित होने की उम्मीद तो कर ही सकते हैं।अगर ये प्राथमिक मूलभूत योग्यताएँ भी बालक हासिल नहीं कर पाता है तो विद्यालय, शिक्षक शिक्षिकाएँ, प्रशासन आदि सबों पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं।इतना ही नहीं, इस स्तर पर बच्चों में अनुशासन की भावना भरना, स्वच्छता की आदतों से परिचित कराना , सामाजिकता एवम् राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाना भी आवश्यक होता है।रिक्त काली स्लेट की भाँति मस्तिष्क लेकर विभिन् स्तर के पारिवारिक माहौल और जीवन स्तर में जीने वाले बच्चे इन विद्यालयों में आते हैं ,अतः उन्हें उपरोक्त गुणों मे दीक्षित करना आवश्यक होता है।
— सच पूछिए तो प्राथमिक शिक्षा समाज और राष्ट्र की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।सिर्फ ककहरा और ए.बी.सी.डी का ज्ञान करा देना ही पर्याप्त नहीं होता ,उन्हें मध्य विद्यालय मे प्रवेश के उपयुक्त बना देना भी एक बड़ी जिम्मेदारी होती है।ऐसा नहीं होने पर ये ही बच्चे उच्चस्तरीय विद्यालय में जाकर अपने व्यक्तित्व का समायोजन नहीं कर पाते हैं।
— वैसे तो हमारी यह मान्यता कि डेमोक्रेसी की समझदारी के लिए मात्र साक्षरता की आवश्यकता है,उससे अधिक पठन पाठन, अध्ययन आदि उसकी विशेष उपलब्धियाँ हो सकती हैं;पूर्णतः गलत नहीं।बड़े बड़े डेमोक्रेटिक राज्यों में भी साक्षरता की स्थिति चिन्तनीय है। विद्यालय को मध्यावधि में छोड़ देने वालों की संख्या भीअधिक होती है।यूनाइटेड स्टेट्स के एक सर्वे के अनुसार हर छब्बीस सेकेन्ड में एक छात्र विद्यालय छोड़ देता है।हर जगह यह स्थिति गरीब छात्रों की ही होती है।विद्यालयों की स्थिति में पर्याप्त अन्तर के बाद भी हम यह मानना चाहते हैं कि हमारे देश को उन सबों से भिन्न होना ही चाहिए।हमारे यहाँ इन सब स्थितियों से लड़ने केलिए किये गये प्रयत्नों की कमी नहीं है ।हमारे यहाँ मध्याह्न भोजन योजना ,साईकिल वितरण योजना ,ड्रॉप आउट से बचने के लिए छात्रों को असफल न करने की योजना, मुफ्त पुस्तकें देने की योजना आदि ऐसे ही प्रयत्न हैं।यह अलग बात है कि इन सारी योजनाओं से लाभ कम और भ्रष्टाचार की वृद्धि अधिक हुई है।फलस्वरूप नामांकन की संख्या बढ़ी है,पर ड्रॉप आउट की स्थिति अभी भी कमोवेश वही है।एक सर्वेक्षण केअनुसार उच्च विद्यालय में पहुँचनेवाले बच्चों की संख्या लगभग छियालिस प्रतिशत ही है। फिर भी, हगारा भारतअन्य देशों से भिन्न नहीं है ?हमारे देश मेंउच्च बुद्धिलब्धि वाली जनता की कमी नहीं है ।अपनी इसी शक्ति पर दुनिया के अन्य देशों में इन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।अपनी चिंतन, मनन, अध्ययन की इस परम्परा को बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है।तकनीकी क्रांति के क्षेत्र में आज स्कूल के बच्चे भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चौंकाया करते हैं।चरित्र निर्माण के लिए भी सत्साहित्य से लेकर विज्ञान के विभिन्न पहलुओं की घरेलु क्षेत्रोपयोगी जानकारी की आवश्यकता है।यह विशेषकर उन बच्चों के संदर्भ में सोचने का विषय है जो धुर देहातों में रहते हैं और मात्र प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।सरकारी स्तर परबहुत तरह के साधनों को मुहैया कराने के बाद भीउच्चतर विद्यालयों तक उनकी पहुँच कम ही हो पाती है।तब भी उनकी प्रतिभा को पहचानकर उनमें लगन पैदा की जाए तोआगे पढ़ने के लिए वे विशेष प्रयत्नशील भी हो सकते हैं।व
— हाँ तो देखने में यह आता है कि प्राथमिक स्तर से निकले ये छात्र मध्य विद्यालय में जाकर विषय को समझने में अक्षम होते हैं।प्रथमतःतो अक्षरों को जोड़कर शब्द और शब्दों को जोड़कर वाक्य बनाना भी कुछेक को नहीं आता। संख्यात्मक वृद्धि मे गुणात्मकता की बलि चढ़ जाया करती है।समझ विकसित करना तो बड़ी दूर की बात हो जाती है।सारी सरकारी व्यवस्थाएँ और व्यवस्थाओं पर खर्च की गयी राशि बेमानी हो जाती है।अगर नवीन शिक्षण विधियों एवं नवीन सहायक शिक्षण सामग्रियों सेउन्हें शिक्षित करने की कोशिश की जाय और इसकी सतत् जानकारी सरकारी पर्यवेक्षण तंत्रों द्वारा ली जाय तो अवश्य ही स्थिति में सुधार हो।पर सुस्ती हमारे देश का बहुत बड़ा रोग है।सरकारी शब्द के साथ जुड़े सारे माहौल में सुस्ती अनायास ही जुड़ जातीहै । अधिकारीगण, शिक्षक, परिसर के अन्दर के कर्मचारी या अन्य कोई भी इससे अछूते नहीं रहते। तो क्या प्राथमिक शिक्षा का निजी करण भी इस रोग का निदान हो सकता है?
— विद्यालय में बरती गयी सुस्ती के तो अन्य भी कई कारण हो ही सकते हैं।शिक्षण अवधि के पूर्व और पश्चात की पारिवारिक ,सामाजिक जिम्मेदारियोँ की अहम् भूमिका होती है।ग्रामीण इलाके में काम करने वाले शिक्षक ,शिक्षिकाओं के लिए विद्यालय जाना,पढ़ाना सात अथवा आठ घंटियों में बँधना नौकरी की उनकी विवशता हैजो उनके जीवन निर्वाह से जुड़ी है।पठन पाठन के प्रति अभिरूचि सेउसका दूर का सम्बन्ध भी नहीं होता।इस मायने में बहुत कम लोग ही पूरी तरह कर्तव्य निष्ठ होते हैं।तत्सम्बन्धित आन्तरिक इच्छाशक्ति का अभाव सबसे बड़ा कारण माना जा सकताहै। किन्तु आज इस स्थिति को ही सामान्य स्थिति मान लिया गया है।
— सरकार की वह नीति भी दोषपूर्ण है जिसके तहत आठवें वर्ग तक के विद्यार्थियों को असफल नहीं घोषित किया जाता।परीक्षा का महत्व समाप्त हो जाता है ।एक ही वर्ग में जड़ता अथवा स्थिरता की समस्या का निदान तो होता है पर बच्चों में वह भय भी समाप्त हो जाता है जो उन्हें सीखने की प्रेरणा दे सकता है,अभिभावक या शिक्षकों के आदेशों को मानने को विवश कर सकता है।
—प्राथमिक शिक्षकों का शिक्षकेतर कार्यो मे लगाना भी एक बड़ा कारण है कि सभी बच्चों की समान प्रगति पर वे ध्यान नहीं दे पाते। वे साहस नहीं करपाते कि पिछड़े हुए बच्चों को अतिरिक्त समय देकर अथवा अतिरिक्त कक्षाएँ लेकर उनकी कमियों को दूर करने की चेष्टा करें अगर यह कार्य विद्यालय की घंटियों में नहीं हो सके तो।एक संस्था टीच फॉर इन्डिया की एक शिक्षिका ने सुदूर ग्रामीण इलाके मे बरती जा रही ऐसी बेपरवाही का वर्णन करते हुए बताया कि बच्चों में प्रेरणा भरने की इच्छाशक्ति और साधनों का सर्वथा अभाव है। बच्चे गृहकार्य की अवहेलना करते हैं।यह स्पष्ट है कि शिक्षण में आधुनिकता का समावेश आवश्यक है।
उपरोक्त स्थितियाँ निश्चय ही हताशा की सृष्टि करती हैं।परिणामतः सरकार जब अकस्मात जागरूकता प्रदर्शित करती है तो क्रांतिकारी कदम उठाकरअनपढ़ बच्चों अथवा आसपास के सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों कोअक्षर पहचानने ,जोड़कर शब्द और वाक्य बनाना सिखाने के लिए सामान्य शिक्षित जनता से अपील करती है।यह ठीक है कि इस कार्य मे सरकार के साथ अगर जनता की भी सहभागिता हो तो बच्चों की, विशेषकर गरीब बच्चों की शिक्षा के मौलिक अधिकार की सही रक्षा हो सके।पर यह सोचकर आश्चर्य होता है कि स्वतंत्रताके इतने दिनों पश्चात तक प्राथमिक शिक्षा पर सर्वाधिक ध्यान देने पर भी बच्चों का सही ढंग से किताबों का नहीं पढ़ सकना दृष्टिगत क्यों नहीं हो सका , कारणों के निदान की दिशा मे प्रयत्न क्यों नहीं हो सके। यह सरकारी प्रयत्नों और तत्सम्बन्धित सदिच्छाऔं पर ऊँगली तो अवश्य उठाता है।
—हम यह आशा करेंकि सरकारी प्रयत्नों के साथ सामान्य शिक्षित जनता के सहयोग से स्थिति मे उम्मीदों के अनुकूल सुधार हो सके।

आशा सहाय 14 -११ 2016

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh