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प्रश्नचिह्न क्यों–?

चंद लहरें
चंद लहरें
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लगता है-यह समय या तो बहुत अधिक उर्जावान है कि देश सब ओर की कई प्रकार की समस्यायों से लड़कर नई राहें निकालने और क्रान्तिकारी परिवर्तनकी ओर बढ़ने परआमादा है या कि भविष्य के गर्भ मे कोई बड़ी अप्रत्याशित घटना करवटें ले रही है। सीमा पर लगातार गोलीबारी, आतंकी हमले, जिसमें पाकिस्तानी सैनिकों की सहायक भूमिका और उसे नाकाम करने अथवा उनके साथ संघर्ष मे भारतीय सेना के जवानों का भी अच्छी सँख्या में हताहत होना विरोधी दलों ही नहीं सामान्य जनता का भी चेहरा प्रश्नात्मक कर देता है।कारण ,उत्तर और संलग्न आतंकवादी गुटों की खोजबीन, कार्रवाई आदि की प्रक्रियाएँ तो बाद की स्थितियाँ हैं पर तत्काल की प्रश्नात्मकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। आखिर कब तक? पर भारतीय सेना की अपराजेय आजतक की स्थिति और एक सशक्त मनोबल वाले नेता पर भी लोग पूर्ण भरोसा करना चाहते हैं।
–देश के अन्दर की स्थिति भी कम आन्दोलित और प्रश्नात्मक नहीं है।एक ओर बहुत सारे सुधारों ,संकल्पों की पूर्ति हेतु पुरजोर सकारात्मक प्रयत्नों से एक सुनहला भविष्य दीखने लगा है।लोगों मे जागरुकता लाने के लिए आगे बढ़कर किए गए कार्यक्रमों मेंअधिकारियों का तन मन से संलिप्त होना ,योजनाओं के कार्यान्वयन की गति में तीव्रता तो लाएगा ही,साथ ही उन्हें भी जाग्रत करने में सहायक होगा जो अभी तक आँखें मूँदे इस आशा में बैठे हें कि सबकुछ पूर्ववत ही चलता रहेगा। अब यह अर्ध सुषुप्ति की स्थिति बन चुकी है।
–हर आमूल क्रान्ति में कुछ लोग प्रथम पंक्ति से जुड़ने आगे आते हैं,विरोधियों को अपने अनुकूल करते हैं अशक्त असमर्थ जनों और बुजुर्गों सेवैचारिक सहमति प्राप्त करते हैं।जबतक पूर्णरूप से यह स्थिति नहीं आती ,आमूल परिवर्तन संभव नहीं होता। डिजिटल इन्डिया,कैशलेस इन्डिया स्वच्छ भारत ,भ्रष्टाचार मुक्त भारत के सपनों की पूर्ति भी तभी हो सकेगी।इनके पूर्ण हुए बिना आर्थिक भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं हो सकती।क्योंकि ये सब मनोबल की माँग करते हैं।
—- अखबारों के रुख में सकारात्मक खबरों के प्रति स्पष्ट अभिरूचि इस तथ्य को संकेतित करती है कि लोगों की मनोदशा धीरे धीरे परिवर्तित हो रही है।
— –किन्तु , विमुद्रीकरण अथवा नोटबंदी ने विरोध का जो माहौल उत्पन्न किया है वह समाज की भ्रष्टाचारिता का नग्न चेहरा जहाँ उपस्थित करता है वहीं अत्याचार की संज्ञा से इसे अभिहित कर कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न भी खड़े कर देता है।यह आखिर अत्याचार क्यों और किसके प्रति है ? एकबड़े विश्व स्तरीय विद्वान व्यक्ति ने किसी निजी चैनल को दिये अपने विचारों मे इसे अत्याचार और अविश्वास उत्पन्न करनेवाला कार्य माना है।निश्चय हीउनके विचार आर्थिक मायनों से जुड़े होंगे।अर्थ शास्त्रीय दृष्टि से प्रोमिसरी नोट्स के देय को किसी विधि अदेय बना देना भी अत्याचार की कोटि में आता है।उन्होंने पिछलेबीस वर्षों मे हुई देश के विकास के कारक तत्वों पर इसे प्रहार बताया ।विश्वास पर चलने वाले आर्थिक नियमन पर यह एक प्रहार है—यह आंशिक सत्य हो सकता है परअगर अर्थ की वैधता ही संदिग्ध हो,तो उसपर प्रहार करना क्या उचित नहीं हो सकता?
–यह अवश्य ही अपनी ही व्यवस्था को रद्द कर देने जैसी स्थिति हो सकती है पर कभी कभी ऐसा करके आमूल परिवर्तन लानेकी आवश्यकता महसूस होती है।खासकर तब जब एक सामाजिक बदलाव के लिए भी देश मे फैले प्रदूषित अर्थतंत्र को सुधारने की आवश्यकता हो।
— दूसरे प्रकार के जिन अत्याचारों की बात हमारे कुछ नेतागण कर रहे हैं और जिसके कारण निरंतर सदन की कार्रवाईयाँ बाधित की जा रही हैं ,हमारा प्रत्यक्ष सम्बन्ध उनसे अवश्य है।क्या यह अत्याचार उनके प्रति है जिनके घर मे अवैध रूप से अर्जित दबे छिपे पैसे बाहर निकल रहे हैं।क्याउनके प्रति है जिन्हों ने बार बार गुहार लगाने पर भी इनके लिए टैक्स नहीं भरे ।या उनके प्रति है जिन्होंने चोरी छिपे आयात किए नकली नोटों से बाजार को भर देने की कोशिश की।कहीं यह अत्याचार उनके प्रति तो नहीं जिन्होंने नकली नोटों के सहारे जम्मू कश्मीर या अन्यत्र पैसों का खेल खेल आतंक पालने की कोशिश की। ये सारी बातें एक स्वस्थ मस्तिष्क वाले नागरिक को कभी अत्याचार नही लग सकतीं तब नोट बन्दी के परिणाम स्वरूप ,आपा धापी मेंजो तात्कालिक परिणाम उत्पन्न हुए, जैसे बैंकों के आगेलम्बी कतारों का लगना,ए.टी.एम की असुविधाजनक स्थितिऔर कुछ घबराहट की स्थिति में बड़े बूढ़े और रोगियों का लम्बी कतारों में प्रतीक्षा करना या करवाना जैसी स्थितियोँ का अकस्मात उत्पन्न होजाना और तनावपूर्ण स्थिति में कुछ संदिग्ध मौतें ।असुविधाजनक स्थितियों के कारण उत्पन्न इन परिणामोंको हम आलोचना के दायरे में अवश्य ले सकते हैं। कहा जा सकता है कि इतने विशाल देश की विविधता भरी आबादी के इन कष्टों का ख्याल पहले से रखना चाहिए था पर, दूसरी ओर यह भी तोकहा जा सकता है कि इतनी बड़ी आबादी की विभिन्न मनोदशाओं का ख्याल एकसाथ ही अकस्मात उत्पन्न स्थितियों में रख पाना इतना भी सरल है क्या। पर इन कारणों से इतने बड़े निर्णय को वापस तो नहीं लिया जा सकता है ।जहाँ तक मृत्यु का सम्बन्ध हैवहो सकता है, बेगुनाहों के साथ भी ऐसा हुआ हो। इसके वास्तविक कारणों को पहचानने की आवश्यकता है।एक महा यज्ञ में लोग बलिचढ़ गए, पर दोषी और निर्दोष का फैसला कौन करे।कहना नहीं होगा कि आरंभिक दिनों की अतिरिक्त सनसनी मेंकुछ ऐसे लोग भी संलिप्त थे,जो उन निर्दोष लोगों के माध्यम सेअपने काले को सफेद बनाना चाह रहे थे।इन संदेहास्पद स्थितियों को ध्यान में रखते हुए सख्त से सख्ततर उठाए गए कदमों सेअवश्य ही उनकी संख्या कम हुई होगी। अभी भी कुछलोग बैंक कर्मियों की सहायता चाहने की कोशिश कर ही रहे होंगे।
अत्याचार की परिभाषा तो विस्तृत हो सकती है।स्वच्छता अभियान में,कूड़े कचरों को हटाना ,जलाना उन्हें गड्ढों में डालना ,बलात् शौचालय आदि बनवाकर उसके अनभ्यस्त आदतों वालों को अभ्यस्त बनाने की चेष्टा करना भी तब अत्याचार की श्रेणी में ही आ जाना चाहिए।क्योंकि अपने मन से जीने की स्वतंत्रता प्राप्त इस देश के ग्रामीण नागरिकों को यह रास नहीं आता।
–एक बड़े बदलाव के लिए सम्पूर्ण विश्व ने बड़े बड़े संकटों को झेला है सरकार के प्रति अविश्वास का माहौल भी पैदा हुआ है पर सफलता मिलने पर सारा अविश्वास स्वयम ही धराशायी हो जाता है। हाँ सफलता के लिए अपूर्व दृढ़ता की अपेक्षा है। हो सकता है अबतक के परिणाम बहुत उत्साह वर्धक नही प्रतीत हो रहे हों पर काला धन सिर्फ पाँच सौ और हजार के नोटों मे ही नहीं छिपा, वह अन्यत्र भी है जहाँ सरकार का ध्यान जाना आवश्यक है।
— कैशलेस इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे लक्ष्यों की पूर्ति बिना कालेधन पर सम्पूर्ण रोक लगाना संभव नहीं और इन लक्ष्यों की तत्काल पूर्ति मे कुछबाधाएँ हैं ।भारत न अभी शत प्रतिशत शिक्षित है और न ही इन तकनीकि जानकारियों में पूर्ण प्रशिक्षित ही।ऐसी स्थिति में समय लगना आवश्यक है।विशेषकर उन बुजुर्गों के लिए जिन्हें सम्मान का जीवन जीने केलिए अपने पैसों का स्वयम प्रयोग करना आवश्यक होता है और जो उपरोक्त कार्यक्रम मे दूसरों के द्वारा न तो प्रशिक्षित होने की आशा कर सकते है और न उस कौशल का सहज प्रयोग ही।हमारे देश के सभी बच्चे भी अभी इतने स्मार्ट नहीं हो सके हैं। बच्चो को स्मार्ट बनाने का प्रयत्न तो किया जा सकता है ,किया जा रहा है पर यह समय तो लेगा ही। पर इन बाधाओं से बदलाव की प्रक्रिया बाधित नहीं होनी चाहिए क्योंकि विकास के लिए बदलाव और उसके लिए किए जानेवाले प्रयत्नों की एक सतत् प्रक्रियाकी आवश्यकता तो होती ही है साथ ही उसमें सबकी निःशंक सहभागिता की आवश्यकता भी।—-

आशासहाय 3 12—2016–।

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