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युगपरिवर्तन- एक संकल्प

चंद लहरें
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द्वापर में श्रीकृष्ण ने युग का नेतृत्व करते हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त या यों कहें कि मूल भारतवर्ष में स्थित जनपदों को आर्य जीवन पद्धति से परिचित कराने और युगथर्म को एक नयी दिशा देने के लिए प्रण ही प्रण, यानि कि स्वयं सॆ वादे ही वादे ही किये थे, जिसकी गूंजती ध्वनि को सच करने के लिए उन्हें घोर संघर्ष करना पड़ा था। एक ओर द्वारकाधीश के पद की गरिमा का निर्वाह और दूसरी ओर युग परिवर्तन का संकल्प। सारी प्रचलित स्धितियों को बदल देना था। उनकी दूरदृष्टि, योगशक्ति, सात्विक कर्मों के महत्व को स्थापित करने की चेष्टा ने सम्पूर्ण युग में उनके चरणों की छाप छोड़ दी थी।

तो, युगधर्म के अनुसार ही युग-प्रवर्तन की चेष्टा एक ऐसा महत्कर्म है जो आगे बढ़ने की चेष्टा करता है। संभव है कुछ ऐसी नीतियां भी अपनानी पड़े जिनने श्रीकृष्ण को रणछोड़ की संज्ञा दे दी।बाल्यकाल के मधुर सरल जीवन का त्याग संघर्षों के लिए,कंस जैसे आर्यद्रोही व्यक्तियों को समाप्त करने के लिए करना पड़े। पर, युग के नेतृत्व की सफलता भी तो इसी पर निर्भर करती है। सफलता कदम चूमे –इसके लिए अटल धैर्य ,गुह्य राजनीति, पारदर्शी विचारों, प्रयोगों और संघर्षों से उत्पन्न उत्साह की प्रबलता की आवश्यकता है। आलोचना सबकी हो पर घृणा किसी से नहीं।

भारत जैसे विशाल देश में जिसे हम भावनाओं में बहकर भ्रष्ट कलियुग की संज्ञा देते हैं, अभी अपनी चरम विकृतियों के साथ आगे बढ़ रहा है।  ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद विकास नहीं हुआ। ठहर जाना तो कभी हो ही नहीं सकता। देश के विकास की स्थिति भी गत्यात्मक ही रही। पर यह गत्यात्मकता कुछ ऐसे लोगों के हाथों में अधिकांशतः केन्द्रित रही जिन्होंने अपने सिद्धान्तों, विचारों के आगे देश का सर्वाँगीण हित देखना आवश्यक नहीं समझा।

राजनीति इन सब का लाभ उठाती हुई मात्र राज्योपभोग तक सीमित होने लगी। इस राज्योपभोग के लिए झूठे वादों और प्रणों की बरसात होने लगी।पोषण उनका हुआ जो पोषण के योग्य नहीं थेऔर पोषण का वादा उनके प्रति जिनके हाथ पोषण के लिए फैले थे। ऐसा नहीं कि पोषण की दृष्टि से काम नहीं हुआ,पर तरह तरह की छूटों ने, बैठे बिठाए पेंशनों की योजनाओं और उनमें होने वाली धोखाधड़ियों ने लोगों में अकर्मण्यता तो भरी ही, मात्रवोटों की झोली भरने का कार्य किया। आरक्षण के नाम पर तो ऐसी झोली भरी जिसमें कोई नकारात्मक सेंधमारी कर ही न सके। आधे अधूरे ढंग से पोषित ये योजनाएं विकास की परिभाषा बन गयीं।

सार्वजनिक विकास हेतु देश के लिए जो देय है उसमें कटौती करने की कला जनता ने सीख ली और तथाकथित कर्मचारी वर्ग ने उनकी सहायता कर दी,थोड़े से लाभ के लिए अपनी मानसिकता को पतन की ओर ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक क्षेत्र की भ्रष्टाचारिता को अगर पनाह मिल जाती है तो अन्य क्षेत्रों की भ्रष्टाचारिता भी सिर उठाने लगती है। गाय भैंसों और उनके चारे से लेकर लड़ाकू विमान क्षेत्र तक में भ्रष्टाचार। शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र का भ्रष्टाचार तो सिर चढ़कर बोलने लगा है।

ऐसी तिलमिलायी सी स्थिति में युग परिवर्तन की घोर आवश्यकता है। इस युग को एक संक्रान्तिकाल बना देने की आवश्यकता है। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही कुछ किया था। एक महाभारत जैसी चेष्टा और हर अत्याचारी की समाप्ति। किसी की शरीर से तो किसी की हृदयपरिवर्तन से। देश का भौतिक स्वरूप तो रक्षणीय है ही। देश के अन्दर की भ्रष्टाचारिता को समाप्त करने का संकल्प लेना और उस हेतु जनसहयोग की अपेक्षा करना भी आवश्यक है। देखना तो यह भी है कि दुर्योधन और कर्ण जैसे दो भिन्न व्यक्तित्वों का साथ भ्रष्टाचारिता को न प्राप्त हो जाए।

वह युग भिन्न था जब एक व्यक्ति के संकल्प और बुद्धि चातुर्य ने सबकुछ बदल डाला था। आज देश की वृहत जनसंख्या उसकी, विविधता और गंदली हो गयी मानसिकता को देखते हुए किसी एक व्यक्ति का संकल्प मार्गदर्शन तो कर सकता है पर वह पर्याप्त नहीं। विभिन्न संस्थाओं मात्र पर निर्भरता भी पर्याप्त नहीं, उसे तो विशाल जनसमूह की सकारात्मक सोच की सहायता चाहिए। उस संकल्प के साथ उन्हें भी जुड़ना होगा जो अकारण मात्र विरोध के लिए विरोध करते हैं।

भ्रष्टाचार मिटाने के संकल्प की शुरुआत हो चुकी है। सामान्य मध्यमवर्गीय जनता का विशाल समर्थक सहयोग भी मिल रहा है। पर इस सहयोग को कुछ लोगों के द्वारा नकारात्मक दिशा में मोड़ने की कोशिश भी जारी है। कष्टों की याद दिलायी जा रहीहै,उन कष्टों की जो संकल्प पूर्ण करने हेतु लोगों को झेलनी ही पड़ती।

पुनः उल्लेखनीय है कि कुर्सियां जनता ने बनायी हैं और उसपर बैठने वालों की योग्यता का वही निर्णय भी करती है। जनता उन्हें अपने हितों की रक्षा के लिए चुनकर सम्मान देती है। उन्हें नौकरी नहीं देती। नेतृत्व को उन्होंने जीविका का आधार मान लिया है तो देशसेवा की पवित्र भावना खंडित हो जाती है। हम संक्रान्ति काल में जी रहे हैं।पीछे जाने का प्रश्न है ही नहीं। जय या क्षय का वरण करते हुएनए विचारों का आलिंगन करने के सिवा राह नहीं है। इतिहास बताता है –स्वतंत्रता संग्राम के कष्टों का आलिंगन करना पड़ा था। सुवधापूर्ण जीवन जीनेवालों ने भी सुविधाएं अन्ततः छोड़ी थीं। कुर्बानियों को स्वीकार किया था। सिद्धांत और व्यवहार में अवश्य अंतर होता है पर सिद्धांतों को ही व्यवहारों में परिणत किया जाता है। अनन्त कठिनाइयां सामने आती हैं। एक बार में ही शत प्रतिशत सफलता भी संदेहास्पद होती है। परिवर्तन धीरे धीरे आता है और लोग अन्ततः उसका स्वागत कर उसके अनुरूप ढलते भी हैं।

इतना सहज तो नहीं पर अगर अनैतिकता का प्रश्रय लेना छोड़ने और भ्रष्टाचारिता से मुक्त होने का संकल्प लें तो नयावर्ष हमें पारदर्शी खुला मन और खुली हवा दे सकता है।

–आवश्यकता संकल्प की है।
—शुभ नव वर्ष की कामना के साथ
आशा सहाय 29—12—2016 ।

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