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रँगभेद बनाम रेसिज्म

चंद लहरें
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आज जब भारत के प्रमुख मुद्दों मे चुनाव की सरगर्मी व्याप्त है ,काँग्रेस और बी जे पी जैसेदलों की आपसी नोंक झोंक शीर्ष पर है और तमिलनाडु का नेतृत्व दाँव पर है ,ऐसे समय में किसी अन्य ऐसे मुद्दे परबातें करना बेमानी तो प्रतीत होता है किन्तु दूरदर्शन केएक प्रसिद्ध चैनल पर रेसिज्म से सम्बन्धित दिए जा रहे एक सैद्धान्तिक वाक्य पर ध्यान चला ही जा रहाहैFairness cream exact like racism.फेयरनेस क्रीम एक्जैट लाइक रेसिज्म।यह वाक्य किस आदर्श अथवा किसबिजनेस सिद्धांत के तहत बार बारएक सूत्र की तहत उधृत किया जा रहा है पता नहीं ,किन्तु फेयरनेस क्रीम से चेहरे के रंग को निखारना रेसिज़म कैसे है ,समझने की आवश्यकता अवश्य महसूस होती है। खासकर तब, जबकि यह विषय एक वैश्विक विषय है और पूरा विश्व ईस भावना का गुनहगार प्रतीत होता है।
रेसिज्म का एक पक्ष है रँग-भेद।
दो रंग काला और सफेद एक दूसरे के विपरीत हैं।ये ही दो रंग हैं जो अपने आकर्षण के मूल्यों के कारण जाने कितने मायनों में व्यव्हृत होते हैं।काला अँधका र का परिचायक है और सफेद रोशनी का।काला आदिकाल से भयभीत करनेवाला रंग है।मनुष्य ने इस अँधकार रूप कालेपन पर सदैव विजयप्राप्त करने की चेष्टा की है।काला रंग,काला मन ,काला धन ,काली राजनीति और काली करतूतें—आदि मन के विरूद्ध की स्थितियाँ हैं।काले भूतऔर राक्षस होते हैं और गोरे देव।रात काली होती है ,सबकुछ को ढँक लेनेवाली और दिन सफेद—सबकोस्पष्ट करने वाला।तात्पर्य यह कि दोनों ही रँग सदैव एक दूसरे के विपरीत सम्मान और असम्मान के पात्र होते हैं।और इसी कारण एक के लिए हृदय मे तिरस्कार और दूसरे के लिय सम्मान का भाव भर सकता है।और दूसरी तरह सैकहें तो एक दूसरे के प्रति दूर भाव बना रह सकता है।पर जहाँ तक मनुष्यों का प्रश्न है-गोरापन और कालापन उसकी शारीरिक,मौगोलिक और जलवायुजनित स्थितियों का परिणाम होताहै।जिन जातियों के कालेपनको देख हम उन्हे भारतीय आदिवासी अथवा अफ्रिकन कहकर अभिहित करते हैं।अथवा किसी ऐसे देश के जहाँ उनके रंग ही ऐसे होते हैं वस्तुतः वे किसी खास मानवीय रेस केहैं जनके शरीर में रँगतत्व की अधिकता होती है। जिनकेआकार प्रकार भी भिन्नहैं।इस मायने में वे अलग हैं।गोरेपन से मन केभीतर की आसक्ति नेइनकी ओर हीन दृष्टि से देखने की आदत डाल लीहै।इसी दृष्टि ने वस्तुतः रेसिज्म को जन्म दिया है।वे ऐसे प्रदेशों से हैं ,जहाँ आधुनिक सभ्यता का प्रवेश बहुत विलंब से हुआ है परिणामतः आधुनिक सोच शिक्षा तक भी ये विलंब सेपहुँचे है।हो सकता है बुद्धिलब्धि में ये किसी से कम नहीं हों परउस बुद्धिलब्धि को पर्याप्त विकास नहीं मिला।परिणाम तः अन्य गोरे या श्वेत वर्ण के लोगों नेइनकी सरलता निश्छलता का लाभ उठा सर्वदा इन्हें अधीनता स्वीकार करने पर विवश ही किया। यह फर्क ही रेसिज्म हैऔर रेसिज़्म के शिकार लोग इन भावनाओं के तहत समानता का व्यवहार नहीं कर सकते।
सारी दुनिया इस रेसिज्म की शिकार है।परिणामतः काले लोगों के साथ अभद्र व्यवहार करती है।अंग्रेज जब भारत में शासन कर रहे थे वे भारतीयों को काला आदमी कहकर अपमानित करते थे।और अफ्रिका में येही गोरेवहाँ केमूल निवासियों कोकाला दास वर्ग का मान करव्यवहा र करते रहे।दक्षिण अफ्रिका का सम्पूर्ण इतिहास इस नस्लवाद की प्रताड़नाओं से भरा पड़ा है।साउथ अ फ्रिका का नाम आते ही जो दो बातें मस्तिष्क में कौंधती हैं ,वे एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और अपने आप मेंअत्यन्त महत्वपूर्ण।जब से साउथ अफ्रिका के एक बड़े भूभाग (आधुनिक जोहानसबर्ग)मेस्वर्ण –वैभव की प्रतीति हुई, सभी जानते हैं कि आग की तरह सम्पूर्ण विश्व में यह जानकारी फैल गयी और विश्व भर के लुटेरी गोरी विकसितजातियों वाले राष्ट्रों ने इस खुली धरती पर स्वर्ण की खोज , उसकी माईनिंगऔर उसकी प्रकारांतर से लूट के लिए इस देश पर धावा बोल दिया।इतना ही पर्याप्त तो नहीं था,यहाँ की मूल जातियों ,निवासियों को ही जाति और रँगभेद और नस्लभेद का शिकार बना उनके अधिकारों से बुरी तरह वंचित कर दिया।इस नस्लीय रंगभेद ने इनकी बुरी तरह अवज्ञा की,इन्हें हीन भावना से ग्रस्त कर दिया ।इसे ही हम चोरी और सीनाजोरी भी कह सकते हैं।अपनी ही भूमि पर येउन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्धसे ही विदेशी गोरी जाततियों की अधीनता का दंश भोगते हुए दासों कीतरह,मजदूर बमन खटते रहेऔर अधिकारों के लिए तरसते भी रहे। सम्पूर्ण विश्व जब गोल्ड-गोल्ड-गोल्ड से ध्वनित हो रही थी ये अपने वैभव कोलुटता हुआ देखने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सके।
इस स्वर्णमोहऔर मजदूर वर्ग की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए देश विदेशसे खदानों में काम करने वाले लोगआते रहे और उनमें से भीकाले लोगों को उसी रँग भेद का शिकार होना पड़ा।यह उन्नीसवीं और बीसवीं शती की उनकी अर्धविकसित स्थिति की गाथा है।पर-मूल भावना तो और पूर्व की ही रही होगी।अपनी एक विकसित सभ्यता औरसंस्कृति के अभाव मेंनतो उनमें विरोध करने का साहस था,और नअपने वैभव को सुरक्षितरखने का साहस। योरोप अमेरिका ,न्यूजीलैंड ,आस्ट्रेलिया ,रूस जैसे देशों नेयहाँ इसी आधार पर शोषण का तांडव नृत्य किया।बापू नेइस रँगभेद का जिस तरह अनुभव किया ,वह सारा संसार जानता है।
आज भारत भी आजाद है औरसाउथ अफ्रिका भी।पर काले गोरे का भाव पूरी तरह मिटा नहीं।क्योंकि काले रंगवाली जातियों का स्वाभिमान पूरी तरह जाग्रत नहीं हुआ है।बहुत सारे मानवीय गुणों मेंकाले रँग की जाति गोरों से श्रेष्ठ हैं।अगर विनम्रता उदारता आदि मानवीय गुण हैं तोये काले वर्ण के उन व्यक्तियों मेंअधिक हैं।कहीं कहीं उजड्डता भी है ,वहाँ-जहाँ अधिकारों का हनन् असह्य हो जाता है, और यह आवश्यक भी है।
रेसिज़्म केवल रँग भेद ही नहीं।वस्तुतःरेस मूल जाति की और संकेतित करता है।जो अपने भिन्न रूप रँग कद काठी के कारण पृथक पृथक पहचान बनाती है।व्यक्ति की बुद्धिलब्धिता भी इससे जुड़ी हो सकती है।काला और गोरा होना तो उसकी एक वाह्य पहचान है।यह पहचान गलतसंदेश भी दे सकती है।आज रंगों के प्रति लोगों के विचार पूरी दुनियामे बदल रहे हें और लोग गहरे रँगों की ओर आकर्षित भी हो रहे हैं।अतिरिक्त गोरापन गोरे लोगों को भी स्वीकार्य नहीं।वॆभी समुद्र तटों पर रँगों को गहरा करने के लिएखुले शरीर धूप स्नान किया करते हैं.।और,रंग रूप आकार प्रकार का भिन्न होना जिस नस्ल की पहचान बनाता है वह उनके गुणसूत्रों या जीन्स परज्यादा निर्भर करता हैऔर रेसिज्म भी वस्तुतःइस मायने में उन गुणसूत्रों वाले व्यक्तियों को निर्देशित करते हैं ।रंग को हल्का करने का प्रयास या गहरा करने के प्रयास से इसका कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता।
आज विश्व जिस युग मे जी रहा है वहाँ नस्ल के नाम पर भेदभाव करना अमानवीय ही नहीं अपराध भी है।यह पुराना घृणित रोग है जिसे समूल नष्ट करने काप्रयत्न अपेक्षित है। मानव मन को जागरूक और सुसंस्कृत करने काप्रयत्न विश्व स्तर पर वाँछनीय है।
ये तो आज की वैचारिक स्थापनाएँ है। किन्तु, विगत कल की स्थापनाएँ निश्चित ही कुछ अलग थीं।वर्ण और ज्ञानाभिमान ने इन्हें सदैव हीनतर कर आँका था।हर स्थान का जातियों के मध्य हुआ संघर्ष इसका साक्षी है।आर्य बाहर से आए—गोरे चिट्टे लम्बे और कुछ अध्यात्मिक सोचों से युक्त।चिन्तन की ऊर्ध्वगामी प्रवृति नेइस देश के अंदर निवास करने वाले काले वर्णवाले आदिम जातियों कोनिम्नतर आँकते हुएउन्हें अपने साथ मिलाना अस्वीकार कर दिया था।वे ही वर्ण आश्रम व्यवस्था के वर्णों की हीन स्थिति के प्रथम भोगी थे।आर्यों की दमनकारीप्रवृति के प्रथम शिकार।ये आदिम जातियाँ निश्चित रूप सेउनकी सोचों के कीप्रतियोगिता में निम्नतर,अशिक्षित और असभ्य सोचों वाले थेपर समाज मेंउनकी कालान्तर में सशक्त भागीदारी हो गयी थी।भारतीय समाज ने सभ्यता के विकास केसाथ –वर्णों और नस्लीय भेदभाव की ओर से आँखें मूँदने काएवम इसपर विजय पाने की चेष्टा की हैपरआंतरिक सम्पूर्णता सेअभी भी यह संभव नहीं हो सका है।आज भी भारती य राज्यों मे रहनेवाली आदिवासी जातियों का विकास इसलिए भी अवरुद्ध हो जाता है ।उनको इस रेसिज्म की भावना के कारण भी समाज की मुख्य धारा से जुड़ने मे परेशानीहोती ही हैउनके रँग रूप ,बुद्धिलब्धता आदि भी कभी कभी कारक तत्व हो जाते हैं।सम्पूर्ण विश्व मे आज इस नस्लवादिता का विरोध हो ही रहा है।उत्त्पत्तिस्थान ,भौगोलिक कारणों एवम गुणसूत्रो के परिणामस्वरूप आकार प्रकार के वैभिन्न्य के आधार पर टीका टिप्पणी करना ,भेदभाव करना इसी रेसिज्म के अन्तर्गत आता है ।आधुनिक युग में भारतवर्ष इस रेसिज्म का शिकार है।बिहारियों, नार्थ ईस्ट के लोगों,चाईनीज ,जापानी लोगों मे किसी केप्रति घोर दुराव और अभद्र टीका टिप्पणी करना भी रेसिज्म की भावना का परिचायक है।इतना ही नहीं,भारतीय मानसिकता की इस समस्या को विश्व भी नजरंदाज नही कर सका जब अफ्रिकन समुदाय पर जानलेवा हमले किए गये ,जब एक फ्रेंच भाषाभाषी शिक्षक पर राजधानी दिल्ली में जानलेवा हमला होऔर किसी के रूप रंग के आधार पर बंदर और हब्शी की संज्ञा से अभिहित कर आपमानित कर दिया जाए।इसप्रकार के नस्लवादी आक्रमण घृणित मनोवृति के परिचायक तो हैं ही ,सम्पूर्ण विश्व के नस्लविरोधी समुदाय की दृष्टि में घोर अपराध है।
रेसिज्म मानवीय घृणा का विकृत पहलू है इसे मानवीय संवेदनाओं से दूर करना अत्यंत आवश्यक है। काला रंग घृणित नहीं , इससे हमे प्यारकरना सीखना तोहोगा पररेसिज्म के सारे पक्षों पर विचार कर उसे जीवन से दूर भी करना होगा।

आशा सहाय—11 –2 –2017–।

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