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धर्मनिरपेक्षता-दृष्टि आज की।

चंद लहरें
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भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इस देश के लिये धर्मनिरपेक्षता को आवश्यक बताया गयाहै। एक अत्यधिक आकर्षक और प्रभावशाली शब्द है यह। – मानवतावादी एवम् गाँधीवादी दृष्टिकोण से जुड़ा हुआ एक आदर्श शब्द है ।सम्पूर्ण विश्व का बौद्धिक वर्ग इसका विरोध कदापि नहीं कर सकता।शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का भी पोषण इस शब्द से जुड़ी भावना से होता है।विशेषकर वह देश जहा विविध धर्मावलम्बी रहते हों, यहाँ के उदार माहोल को त्याग कहीं जाने की इच्छा नहीं रखते हों, यह शब्द उनको कितनी आश्वस्ति प्रदान करता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।पर आज की स्थितियों में यह अवश्य ही विचारणीय शब्द है।, वर्तमान परिप्रेक्ष्य मेंइसकी भूमिका संदिग्ध प्रतीत होती है,।यह वस्तुतःएक विवादित विषय हो सकता है।
प्रशासन का यह ऐसा सैद्धान्तिक पहलूहै जिसके तहत देश में मतभेदों को परे रखकर शान्तिपूर्ण ढंग से कार्य करने की आवश्यकता है।यह कार्य सर्वमंगल का हेतु बनना चाहिए।पर प्रशासन अगर इस धर्मनिरपेक्षता के प्रभाव में या उसके वशीभूत हो सभी धर्मों के अमानवीय कृत्यों के विरोध में कोई निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है तो धर्मनिरपेक्षता न्याय धर्म और विकास धर्म का बाधक तत्व हो सकती है।
इसका यह अर्थ नहीं कि इस शब्द का महत्व नही,और यह अहैतुक है।इस शब्द का महत्व सदैव था और रहेगा भी अगर प्रयोग के पीछे वैचारिक शुद्धता हो।इस शब्द की आवश्यकता तब अधिक थी जबदेश स्वतंत्र हुआ था और देश विभाजन का दंश हर स्तर पर झेल रहा था।कुछ विशेष धर्म को माननेवालों के हृदय में सुरक्षा के प्रति शंका उत्पन्न होगयी थी।बहुसंख्यक धर्म वालों से भय उत्पन्न हो गया था।धार्मिक दंगे का उन्माद कहीं न कहीं शेष था।यह भाव भूमिविभाजन का था और उससे उत्पन्न भयास्पद स्थिति का।धर्म भेद का जहर वातावरण में घुला हुआ था।स्वतंत्रता प्राप्ति के समय मात्र एक व्यक्ति ने धर्म के नाम पर सर्वोच्च पद –प्राप्ति के लोभ में इस देश को तोड़ दिया था।अंग्रेजों की विभाजन की नीति भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार थी ही।मुगलों ने जिस लम्बी अवधि तक यहाँ शासन किया था,हिन्दु राज्यों ने तब भी उनका विरोध किया था।पर भारतवासियों ने फिर भी उदारता का परिचय दिया ही था।
यह स्थिति अनायास ही उत्पन्न नहीं हुई थी। इसके पीछे अत्यन्त प्राचीन भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोणथा,जो सर्वधर्मसमभाव मे विश्वास रखता था।मुगलकालकेपूर्व के ऐतिहासिक प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।अशोकऔरहर्षकेशासकीय आलेखोंसेएवं अन्य प्रमाणों सेभी यहभाव झलकता है।
इसीभावकी पुष्टि कालोपरांत रामकृष्ण परमहँस ने,विवेकानन्दने अपनी सशक्त हिन्दु-धर्म- अवधारणा के अंतर्गत स्थान देते हुए किया।महात्मा गाँधी भी उसी भावभूमि के समर्थक रहे।
अकबर का शासनकाल आदर्श माना जाता रहा है। उसने दीने इलाही की स्थापना की थी, पर यह मात्र धार्मिक सुधारवादी सिद्धांत बनकर ही रह गया।उसने जजिया कर समाप्त कर दिया था परऔरंगजेब ने उसे पुनः लगा दिया था। हिन्दू सताए ही जाते रहे थे।मुगल काल मे मनोवैज्ञानिक रूप से हिन्दु जजिया टैक्स से प्रताड़ित हुए थे ।मन्दिरों कोतोड़ा गया था।एक पूर्ण विकसित संस्कृति को ध्वस्त कर देने की चेष्टा की गयी थी।।और जब अंग्रेजी शासन ने दोनों धर्मों के लोगों पर तीसरी हस्ती के रूप में शासन करना आरम्भ किया तो देश की स्वतंत्रता प्रमुख मुद्दा बना ।धार्मिक मतभेदों को भुलाकर उस विदेशी सत्ता को बाहर करने मेंपूरी जनता जुटी जुट गयी जो राजनैतिक रूप से ज्यादा परिपक्व थी,पर मतभेद भुलाए नहीं गए थे।
ब्रिटिश शासन ने हीयहाँ धर्मनिरपेक्षता का पृथक स्वरूप प्रस्तुत कर दिया ।धर्म और राज्यको एकदूसरे से अलग नहीं रखा गया बल्कि अपने व्यापार जनित उद्येश्य की पूर्ति के लिए धर्म वैभिन्न्य को प्रशासन का आधार बना लिया।बाद मे धार्मिल पर्सनल लॉ को भी बहुत सारे मामलों मेआधार बना लिया ।यह आधुनिक भारतीय धर्म निरपेक्षता का आधार बन गया।जबकि दूसरे प्रमुख राष्ट्रों मेइसके अर्थ भिन्न हैं।धार्मिक स्वतंत्रता ,समान नागरिकताऔर राज्य और धर्म की एकदूसरे सेपृथकता इसके विशिष्ट तत्व माने गये हैं ।यह पृथकता ही कानून-व्यवस्था स्थापित करने में मददगार होती है।प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को मानने को स्वतंत्र है- और कानून की दृष्टि में समान।प्राप्त जानकारी के अनुसार फ्राँस में तो इसकी स्थिति अधिक सुलझी हुई प्रतीत होती है।वहाँ सरकारी संस्थाओं का धर्म में कोई दखल नहीं और धर्मों का भी सरकारी संस्थाऔं एवम् विद्यालयों मे कोई दखल नहीं।परभारत में यही शब्द धर्म को राज्य से विलग कर नहीं देखता।प्रत्येक धार्मिक समुदाय के लिये समान व्वहार को प्रश्रय देता है।यह उनके पर्सनल लॉज को प्रश्रय देता है चाहे वह इस्लाम ,हिन्दु या क्रिश्चियैनिटी ही क्यों न हो।भारतीय व्यवस्था में धार्मिक आधार पर बने विद्यालयों का भी पोषण होता है।यह जहां धर्मों को बहुत सुविधाएँ देनेवाला है वहीं बहुत सारी समस्याएँ भी खड़ी करने में सहायक होता है।
हाँ तो, ब्रिटिश शासन की समाप्ति के दौर में कुछ भयों ने मुस्लिम सम्प्रदाय कोविशेष रूप से उत्तेजित कर दिया था।सत्ता हस्तांतरण उनको क्यों न कीगयी जबकि प्रमुख रूप से ली उनसेही गयी थी ,कहीं हिन्दुस्तान फिर से हिन्दु राष्ट्र ही न घोषित हो जाए,अदि अंतरिक भयों नेऔर असंतोष ने मुस्लिम पृथक राष्ट्र की अवधारणा को जन्म दियाऔर पृथक राष्ट्र का जन्महुआ। पर भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल स्वरूप में तब भी धर्मनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख नहीं था। इसे 1976मे बयालीसवें संशोधन के द्वारा समाजवादी शब्द के साथ जोड़ा गया।इस संशोधन का बहुत विरोध भी किया गया ,अनावश्यक करार दिया गया किन्तु स्पष्ट ही धर्मनिरपेक्ष शब्द का उद्येश्य अन्य धर्मावलंबियों को भयरहित करना ही था।
धर्मनिरपेक्षताके तहत धार्मिक भेदभाव को भूलकर यहाँ की अधिकाँश जनता को रहने की आदत है।आरम्भिक दिनों मे जो हिन्दु मुस्लिम दंगे हो जाया करते थे ,वे धार्मिक अतिवादिता के परिणाम थे।अब भी कुछ अधिक संवेदनशील क्षेत्रों मे यह स्थिति उत्पन्न होजाया करती है परअब यह स्थिति उत्पन्न की जाती है।आज ये दोनों समुदाय के लोग मिलकर रहना चाहते हैं,एक विकसित माहौल चाहते हैं,जहाँ वे खुलकर साँस ले सकें और अपनी इच्छाएँ पूर्ण करसकें।
धर्मनिरपेक्षता सरकार की शासन व्यवस्था की एक कार्यकारी भावना के रूप में सदैव जीवित और व्यवहृत होनी चाहिए पर इसकी जड़ें सामाजिक भावना के रूप में अधिक गहरी हों ,इसके लिए सद्भावपूर्ण माहौल उत्पन्न करने एवम बनाए रखने की अधिक आवश्यकता है।भारतीय सदैव से सद्भावपूर्ण माहौल में रहने के अभ्यस्त हैं। मुगलकालीन शासन व्यवस्था मे भीअपने त्यौहारों मे एक दूसरके साथ सौगातों अथवा उपहारों काआदान प्रदान करतेथे। आजभी सभी सामजिक स्तरों पर इस भावना को पुनरुज्जीवित अथवा बनाए रखने की आवश्यकता है।
यह सही है कि संविधान के प्रस्तावना में व्यवहृत धर्मनिरपेक्ष शब्द अपना अर्थ खो चुका है।अथवा यों कहें कि उसका अवमूल्यन हो रहा है।इस शब्द का प्रयोग इस राष्ट्र के अधिकांश दल इसप्रकार करते हैं कि हिन्दु धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति अन्य धर्मों मे भय उत्पन्न हो जाए। इस मायने में वे धर्मनिरपेक्ष नहीं रहते।बल्कि समय समय पर यह शब्द उनका शिकार करता हैं,उसे अनुदार करार देता है। जबकि वास्तविकता बिल्कुल विपरीत है।अगर इस शब्द को हटा दिया जाएतो गंदे अर्थों मे इसके प्रयोग की आदत पार्टियाँ भुला देंगी।सहिष्णुता ,असहिष्णुता जैसे शब्दों का प्रयोग भी भ्रामक अर्थों में नहीं हो सकेगा।
एक लोकतांत्रिक शासन व्वस्थाके तहत जहाँ बहुमत सरकार का निर्माण करता है,धर्मबहुलता के लिए स्वयमेव धर्मनिरपेक्षता का आग्रह होता है । अलग से इसके उल्ले ख की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।आज की यही आवश्यकता है।इस शब्द का प्रयोग कर अपने कोअल्प संख्यक कहने वाले लोग अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं।छोटेछोटे दंगों की संभावना बनी रहती है।कानून व्यवस्था स्थापित करनें में परेशानी होती है ।मानवाधिकार अथवा मानवीयता से सम्बन्धित मामलों का सहज समाधान नहीं हो सकता। जब सारे नागरिकों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं तो धर्मनिरपेक्ष शब्द की जगह निर्देशक तत्वों में होनी चाहिएऔर उसकी जगह मानवतामूलक या इसके समकक्ष किसी शब्द का प्रयोग होना क्रान्तिकारी कदम होना चाहिए।
भारतवर्ष की मूल चिन्तना सदैव उदारवादी रही है।धर्मों की विविधता की रक्षा सदैव से यहाँ होती रही है।अतः सुशासन व्यवस्था के आड़े इस शब्द को न आने देना ही उचित है।

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