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समस्याएँ वैश्विक हैं—साउथ अफ्रिका के संदर्भ में

चंद लहरें
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मैसाउथ अफ्रिका मिडरैंड में हूँ।ऐतिहासिक महत्व का यह स्थल अथवा देश मेरे लिए सदैव से आकर्षण का विषय रहा है।उत्सुकता सदैव रही है इसके प्रति। दुनिया में बहुत सारे देश हैं जोबहुत समुन्नत हैं , जहाँ लोग अध्ययन ,रोजगार और विकसित माहौल मेंरहने की इच्छा से जाना और रहना चाहते हैं।किन्तु ,कुछ दिनों के लिए यहाँ आकर रहना मैंनेइसलिए स्वीकार किया कि इस देश के नाम से ही मुझे अपने देश के उस स्वतंत्रता संग्राम की याद आतीहै जिसके विषय में जितना पढा ,जाना और निष्कर्षतः महात्मा गाँधीके नेतृत्व की महत् भूमिकाको स्वीकारकिया, उनकी आरंभिक लड़ाई की शुरुआत साउथ अफ्रिका में हुई ,इस तथ्य को जान सदै व यह देश आकर्षित करता रहा।महात्मा गाँधी को नेतृत्व का पाठ यहाँ उनके प्रवास केदौरान यहाँ की जनता और प्रशासकीय स्थितियों ने पढ़ाया था।आज भी यहाँ के वरिष्ठ नेताओं का भारतीयों कोयह कहना कि you gave us a barrister and we gave you mahatma. उचित कथन है क्योंकि यहीं उनके गाँधी से महात्मा तक के सफर की शुरूआत हुई थी।सत्याग्रहों का आरम्भ हुआ था और उसकी कई सफलताओं से प्रभावित हो उस अस्त्र का प्रयोग भारत मेंकरने का संकल्प उन्होंने लिया था।यहीं उस जाति की विकृत मानसिकता को उन्होंने भाँपा जिसकी गुलामी का दंश भारत भी झेल रहा था।व्यक्ति अपने अनुभवों से ही अपनी जीवनयात्राके प्रकार का निर्धारण करता है।यही गाँधी के साथ भी हुआ।वैसे भी साउथ अफ्रिका से भारतीयों का रिश्ता काफी पुराना है।सन् 1860 या उसके कुछ पूर्व से हीदक्षिण भारतीय –आंध्र प्रदेश,तमिलनाडु, पूर्वी उत्तरप्रदेश,और बिहार से लोगों ने यहाँ आना आरम्भ कर दिया था।पहले तो वे खेतों में काम करने,नटाल में चीनी मिल के आपरेटर्स के रूप में,एवम् अन्य एग्रीकल्चरल प्रोग्राम के तहत यहाँ आए।एक दूसरी बड़ी लहर मे 1880 केपश्चात गुजराती समुदाय के लोग आए ।बहुत सारी बंदिशों के बाद भी उन्होंने यहीं रहने का संकल्प भी किया।फिर धीरे धीरे वे गोल्डफील्ड से भी जुड़ते चले गए। गाँधी भी सर्वप्रथम 1896 में ही यहाँ आए।अंतिम रूप से गाँधी 1914 में वापस लौट गये।रोजगार की तलाश में भातीय यहाँ आते रहे। भले ही यह रोजगार मजदूरी ही क्यों नहो।स्वतंत्र व्यवसायी भी आये। ऐसे भारतीयों से डर्बन भरा पड़ा है।बड़े बड़े प्रशासनिक पदों परभारतीय हैं।
यहाँ की परिस्थितियाँ आज क्या हैं ,समझना इतना आसान तो नहीं ,क्योंकि ये नित्य परिवर्तनशील है और दो भिन्न मानसिकताकी उपज हैं।स्वाधीनता कीलड़ाई विभिन्न मुद्दों के तहत जारी है।इसे मै आसपास के वातावरणऔर मुखर टी.वी चैनलों से जानने की कोशिश करती हूँ। राजनीतिक आजादी प्राप्त होने केबाद भी सम्पूर्ण उद्योग धन्धों पर यहाँ के मूल निवासियों का हक स्थापित नहीं हो सका है।विदेशी शासन से मुक्त हुए इस देश को मात्र बीस वर्ष ही हुए हैं।1996 में आजाद हुआ यह देश उस संक्रान्तिकाल का गवाह बन रहा है जो 1947 के बाद के दशकों में भारत ने झेला था।,भारत और साउथ अफ्रिका के संक्रान्तिकाल के अनुभवों मेथोड़ी भिन्नता इसप्रकार हैकि भारत की स्वाधीनता के पश्चात विदेशियों नेभारत को उसके भाग्य और उसकी शासकीय क्षमता के हाथों छोड़ दिया था, पर साउथअफ्रिका के साथ बात कुछ भिन्न प्रकार की है।परिस्थितियाँ भी भिन्न रहीं और दोनों देशों के बोद्धिक वर्ग की क्षमताओं में भी भिन्नता रही।परिणामतः परिणाम भी अलग प्रकार के आए।भारत में नीति के तहत बड़े और छोटे उद्योग धन्धों दोनों के समान विकास पर ध्यान दिया गया।परिणातःहरआर्थिक वर्ग को पोषण मिला, आर्थिक गुलामी नहीं महसूस की गयी ।स्वतंत्रतापूर्व से स्वतंत्रता पश्चात की स्थितियाँ बदल गयीं।किन्तु राजनीतिक स्वतंत्रता के पश्चात भी आर्थिक स्वतंत्रता के लिए लोगों के मन में बैचेनी द्रष्टव्य है।यह जीवनशैली के साथ साथ स्वतंत्रतापश्चात अनिवार्य उत्पन्न वैचारिक संघर्ष का एक स्वाभाविक पारिणामिक पहलू है।
बड़ी बड़ी संरचनाएँ और बड़ीकुशलतापूर्वक बसाए गए शहरों को देखकर बुद्धिकौशल पर हैरत होती है ।विश्व साउथ अफ्रिका की सराहना करता है और जोहान्नसबर्ग को तोविश्व के सौ उत्कृष्ट नगरों मेंएक माना जाता है।पर इन संरचनाओं मेंएवम बड़े उद्योगों मे लगाया गया धन कहने को तो साउथ अफ्रिका का हैपर उससे प्राप्त आय उन बड़े बड़े पूँजीपतियों की है,जो आज भी विदेशी ही हैं,अफ्रिकानेर हैं, काले लोगों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैंऔर द्वितीय श्रेणी की बौद्धिक क्षमता से युक्त समझते हैं। वे सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था के संचालक हैं।मूल निवासियों के हाथ में वह पैसा नहीं आता ,वेआज भी शोषित हैं।नौकरियाँ वे करते हैं,भरपूर पैसा प्राप्त कर आराम की जिन्दगी जीना चाहतेहैं परउद्योग धन्धों पर उनकी न्यूनतम भागीदारी है।
विकास और शिक्षाका गहरा सम्बन्ध है।नीतिगत दोयम दर्जे की शिक्षा इसके लिए जिम्मेवार है। प्राथमिक से लेकर उच्च वर्गोंतक काले लोगों के लिये पृथक विद्यालय और उसमें उच्चस्तरीय शिक्षा का अभाव मूल कारण रहा।अब गोरे लोगों के विद्यालयों में उन्हें प्रवेश मिलने लगा है परइतने दिनोतक शोषित रहे मस्तिष्क को प्रतियोगिता के आधार पर प्राथमिकता मिलनी थोड़ी कठिन अवश्य होती है।
यहाँ रेसिज्म अब भी मुखर है।.पर एक विपरीत प्रकार का रेसिज्म अब अपनेउत्तर विकृत पहलू के रूप में भी देखने को मिलता है जब काले अफ्रिकन गोरे भूमिपतियों सेभूमि लौटाने की बातें करते हैं—वहभूमि जो खाली थी और जो काले अफ्रिकन्स की सम्पत्ति थी ,जिसे भूमिपतियों ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिएअवैध ढंग से अपने अधिकार मेंकर लिया,जिसके आधार पर उन्होंने बड़े बड़े भू-स्वामित्व को हासिल कर लिया । इस भूमि से प्राप्त सुविधाएँ उन्हे साम्राज्य का ही आनन्द प्रदान करती हैं।भूमि लौटाने की बातें वर्तमान में है।श्वेत लोगों की असंतुष्टि का कारण बनता जा रहा है।वर्तमान सरकार के तत्सम्बन्धित निर्णयों को ,जो देश के विकास से सम्बद्ध है, रेसिज्म की संज्ञा दी जा रही है।वैसे रेसिज्म यहाँ अबतक विद्यमान हैही, पर सरकारी स्तर पर अब उसके लिए दंड व्यवस्था भीहै, पर जिस रेसिज्मकीबात हमम यहाँ करना चाहरहे हैं वह इस दृष्टि से विपरीत प्रकार की है।रेसिज्म के आरंभिक शोषक स्वरूप का विकृत परिणाम भी रेसिज्म ही हो सकता है। यही काले लोगों के मन में पल रहे आक्रोश का परिणाम है।।वे अब अपनी भूमि और बढ़ते कारोबारों मेंअपने अधिकारों की रक्षा चाहते हैं।किन्तु वे यह भूलते हैं किइतने बड़े साम्राज्यवाद केपरिणामस्वरूप फलते फूलते कारोबार एवं मुख्य उद्योगों को वे काले अफ्रिकन्स के हाथों मे लोकतांत्रिक तरीके से देना कदापि स्वीकार नहीं करेंगे।यह अधिकार माँगने से नहीं, छीनने से मिलेगा।
हलाँकि बात थोड़ी पृथक है पर बिल्कुल पृथक भी नहीं कि भारत मे गरीब भूमिहीन किसानों के लिएसंत बिनोवा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया था,भूमिपतियों से जमीन माँगी थी , पर मिला क्या !अधिकांश बेकार और बंजर जमीन उदारतापूर्वक दान किए गए।हमारे भारत में पहले से पनपी हुई जमीन्दारी प्रथा ,बड़े छोटे भूमिपति जो अपार भूमि के स्वामी थे,को एक झटके से जमीन्दारी उन्मूलनऐक्ट के द्वारा समाप्त कर दिया गया।यह अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया।साउथ अफ्रिका में ऐसे शक्तिशाली कदमों की आवश्यकता है। अन्तर इतना ही है कि यहाँ लड़ाई अपनी जाति के भूमिपतियों से नहीं बल्कि विदेशी साम्राज्यवादी शोषक मानसिकता से पीड़ित अर्थलोभी पूँजीपतियों से है।अतः उपरोक्त कदमों के प्रति सशक्त विरोध की प्रबल संभावना है।इस दिशा में यहा जो प्रयत्न किये जारहे हैं उनमे सर्वाधिक महत्वपूर्णपूर्व कोलोनियल भूमि का सर्वे और तत्कालीन मूल भूस्वामियो को किये जानेवाले हस्तांतरण की चेष्टा है। इस नीति की विरोधी दलों द्वारा आलोचना हो रही है,साथ ही विरोध भी।भारत मेंभी आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे प्रयासों की माँग की जा रही है।
यहाँ की समस्याओं की चर्चा करते हुए हम उन्हे सार्वभौम समस्याओं से जोड़कर दे खने की चेष्टा करना चाहते हैं। गरीबी यहाँ भी बहुत बडी समस्या है।गरीबी का कारण बेरोजगारी का बढ़ता हुआ स्वरूप है।सड़कों पर चलती ,दौड़ती गाड़ियाँ एक दृष्टि में समझने नहीं देतीं कि यह देश गरीब भी है।पर सामान्य जनता की स्थितियों को देखते हुए कहा ही जासकता है कि गरीबी कास्तर सामान्य से काफी नीचे है।बेरोजगारी जनित इस समस्या को दूर करने के सरकारी स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। भारत की तरह ही कुछ श्रेणी के लोगों को पेंशन जैसे ग्राँट दिए जा रहे हैं। पर यह अत्यल्प है।रोजगार उत्पन्न करने की दिशा में प्रयत्न आरम्भ हो चुके हैं। आर्थिक साधनों पर सामान्य मूल निवासियों का अधिकार अथवा अधिकतम भागीदारी की आवश्यकता है।भारत और साउथ अफ्रिका में रोजगार उत्पन्न करने वाले श्रोतों में पर्याप्त अन्तर है।. साउथ अफ्रिका में माइनिंग क्षेत्र–कोयला ,सोना,हीरा ,प्लेटिनम आदि– बहुत बड़ा रोजगार बहुल क्षेत्र हो सकता है। सरकार इस दिशा में विशेष प्रयत्नशील है।नये उद्योग धन्धों और कृषि की दिशा में भी प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है। कृषि रोजगार का विशिष्ट साधन हो सकता है।यह देश अन्यों की अपेक्षा अधिक विविध वैश्विक जातियों वाला राष्ट्र है जिनके स्वार्थऔर रुचियाँ पृथक है। सामंजस्य स्थापित करने में थोड़ा अधिक समय लग ही सकता है।
गरीबी से हर विकासशील देश लड़ रहा है।यह एक सार्वभौम समस्या है।भारत जैसे सवा अरब जनसंख्यावाले देश में तो यह एक स्वाभाविक समस्या है,जब कि देश को आजाद हुए सत्तर साल व्यतीत हो गये।साउथ अफ्रिका तो दमनकारी चक्रों से उबरे अभी बीस वर्ष ही हुए हैं यह संक्रांतिकाल है और तद्जनित समस्याएँ स्वाभाविक रूप से यहाँ मौजूद हैं।संघर्ष आरम्भ हो चुका है और स्वतंत्रता और विकास के लिए किया गया संघर्ष विजय के पक्ष में ही जाता है।
सही चिंतन और अधिकारों के प्रति आग्रह के लिए स्वस्थ मानसिकताकी आवश्यकता है।यह देश मादक द्रव्यों के चंगुल में फँसा है।धनी संप्रदाय के विलास का यह साधनहै किन्तु अनुकरण में फँसीसामान्य जनता इसे उस विशिष्ट जीवनशैली का अनुकरण मानती है ,जिस जीवनशैली के प्रभाव में अपनी प्राचीन संस्कृति का वह विस्मरण कर चुकी है।मादक पदार्थों और पेयों का यहाँ सर्वाधिक आवक है।और हर तबके लोगों केलिए यह अत्यन्त कम मूल्य पर उपलब्ध है।इस मादक द्रव्य ने इन्हे वह सोचने से रोक रखा हैजो देश और उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए आवश्यक है।यह एक विकासशील देश की विकराल समस्या है।चीन जैसा देश भी कभी अफीम के चंगुल मे फंसा था। आज उससे मुक्त होकर ही विकसित राष्ट्रों श्रेणी मे खड़ा है।भारत में भी यह समस्या अभीतक सिर उठाए है।मद्य चिन्तन को अवरुद्ध कर मस्तिष्क को कल्पनालोक में लेजाता है।यथा स्थिति की निराशा से मुक्त कर देता है।निम्न तबकों मेंयह रोग अनेक आर्थिक ,सामाजिक समस्याओं कापोषण करताहै। यह वर्ग संघर्ष का भी कारण बनता है।मद्य के विविध रूपों का अस्तित्व भारत में भी है।अफीम की रोकथाम और शराबबन्दी की दिशा में प्रयत्न यहाँ भी किए जा रहे हैं परयह एक अत्यधिक कठिन कार्य है।,यह कहीं भी अचानक नहीं हो सकता पर इनकी आवक तो बन्द की ही जा सकती है।लोकतांत्रिक देशमें उभरने वाले तत्सम्बन्धित विरोधों और पेंचों की सम्भावना होती हैपर सशक्त कदम की आवश्यकता तो है ही।
भ्रष्टाचार, संशोधित स्वरूप करप्शन और अपराध एक दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं।अपराधों के विविध स्वरूप जो भारत में दिखते हैं, यहाँभी हैं। डकैती लूटपाट,छिनतई अपहरण,बलात्कारऔर वभिन्न प्रकार के प्रच्छन्न अपराधों का वही स्वरूप देखने को मिलता है।पर सबके मूल में दो ही भावनाएँ हैं जो वैश्विक सत्य हैं।गरीबी से छुटकारा या मिनटो मेंसम्पन्नों की श्रेणी में ओ जाने की लालसा।मानवीय मनोवैज्ञानिक कारणों से जड़े ये अपराध हर कहीं होते हैं।सभी देशों में इनसे लड़ने केलिए सख्त कानून हैं।यहाँ भी।पर कानूनों के परिपालन की सख्त इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है।घूस लेते पुलिसमैन का कितने लोगविरोध कर पाते हैं,यह द्रष्टव्य है।
किन्तु इससे भी अधिक आवश्यक है समुचित शिक्षा का होना। शिक्षा के वे पहलु जो अबतक यहाँकी सामान्य जनता के लिए अनछुए हैं,और जिसके अभाव में विभिन्न आर्थिक ,वैज्ञानिक विषयों की अत्याधुनिक जानकारीके बिना सर्वसाधारण के लिए विकास का रास्ता नहीं खुलता।यों तो तीव्र बुद्धिलब्धि से युक्त लोग सभी बाधाऔं को पार कर लेते हैं,पर सामान्य बुद्धिलब्धिवाले छात्रों के लिए बुनियादी प्राथमिक शिक्षा का सर्वत्र उच्चस्तरीय होना ही है। यहाँ भीइसतरह की जागरुकता भरे प्रयत्नों की शुरुआत हो चुकी है।शिक्षा महत्वपूर्ण स्थान पाने के दौर में है।एक स्वस्थ वातावरण में स्वस्थ परिणाम देनेवाली शिक्षा जो मनोविकारों से लड़ने में भी सहायक हो।
वर्णभेद लिग भेद वर्गभेद आदि को विस्मृत कर मानवमात्र को मौलिक अधिकार दिलाना मानवाधिकार दिवस का उद्येश्य है,सबसे महत्वरूर्ण अधिकार स्वतंत्रता का है । इस मायनेमें आज कमोवे श सभी देश इन भेद भावों का दंश झेल रहे है। नित्य ही ऐसे भेदभावजनित झड़पों की खबरें आरही हैं।साउथ अफ्रिका में तो अवश्य ही हो रही हैं। मानवाधिकारों की रक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता यहाँ है।कोलोनलिज्मकी वकालत करते लोगों की भी कमी नहीं है यहाँ।लोग पिछली गुलामी में विकास केकिए गये प्रयत्नों के गुण गाते प्रतीत होते हैं।.
गुलामीका दंश झेलते यहाँ के लोग कर्तव्यनिष्ठ अवश्य हैं।समय के पाबंद भी। यह गुण तो है पर गुलामीका प्रसाद भी।समयकी नियत अवधि तक बिना किसी गलत सही के सोच विचार के काम करते जाना अनुशासित कार्यतो है परयह सोचने को विवश करता है ।व्यक्ति समयनिष्ठ हों कर्तव्य निष्ठ हों ईमानदार हों,कर्मठ हों ये गुण हैं। ये गुण स्वतंत्र चिंतन के साथ जुड़े होनेपर वरणीय हैं,पर अगर ये गुलामी और विवशता की आदतें हों तो अब करुणा का सृजन करती हैं।
लोगों ने यहाँ संघर्ष किया है पर वे प्राथमिक संघर्ष थे।अच्छी जीवन व्यवस्था के लिए संघर्ष बाकी है।इस संघर्ष मेंविजयी होकर ही ये सच्ची स्वतंत्रता हासिल कर सकेंगे।स्वतंत्रता के बाद की इतनी अवथि तक तो हम भी इस मानसिक गुलामी के शिकार थे। यह संक्रान्ति काल की मनोदशाएँ हैं जिनसे अचानक उबर जाना संभव नहीं।जनता जागरुक हो रही है और हर स्तरपर समानता की माँग हो रही है ।स्त्रियों के प्रति भेद भाव होते हुए भी हर स्तर पर उनकी पचास प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि उन सारे देशों में ,विशेषकर जहाँ कोलोनियल शासन रहा,शासकवर्ग ने अपनी नीतियों की तहत मूल निवासियो को दर किनार कर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की चेष्टा की,वहाँ से उनके जाने के बाद एकरूप समस्याएँ उत्पन्न हुईं। आर्थिक अशांति,मन्दी, राजनैतिक अस्थिरता आदि सामान्य समस्याएँ हो गयीं।आय में असमानता,गरीबी ,भ्रष्टाचार,नैतिक और धार्मिक संघर्ष,स्त्रियों की असमान स्थिति,राजनीतिक और आर्थिकक्षेत्र से महिलाओं को अलग रखने का प्रयास, स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ थीं।सन 2014 में एशिया फाउंडेशन के60वी एनिवर्सिरी के अवसर पर एक विद्वान डेविड डी आरनॉल्ड के द्वारा भारत में व्यक्त किए गए विचार में इन समस्याओं कोभारत नेपाल(स्वतंत्र), इन्डोनेशिया फिलिपाइन्स , के संदर्भ में कही गयी थीं।(गूगल से प्राप्त जानकारी)।
अन्ततः यही कहनाउचित प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण विश्व मानवता के एक ही झूले में झूलता नजर आता है।सबके विकास परिगाथाओंके साथ कमोबेश समस्याएँ भी एक प्रकार की उत्पन्न होती रही ।आदिम जातियों के मध्य संघर्ष से आरम्भ होती है सभ्यता- और होती है समाज की संरचना ।साथ साथ ही उत्पन्न होती हैं समस्याएँ।समस्याएँ भी एक प्रकार की।सामाजिक ,मनोवैज्ञानिक, जातीय और राष्ट्रीय।फिर राजनीति सारी समस्याओं को गड्डमड्ड करतीहै।संघर्ष घना होता जाता है।यह विकास का क्रम है। कई अपवाद नहीं।न भारत न दक्षिण अफ्रिका ही।

आशा सहाय २- ३- 2017–।

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