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भय बिन प्रीति नहीं

चंद लहरें
चंद लहरें
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मुझे स्मरण हैं सन् 1975 से 1977 केवे दिन जब इन्दिरा गाँधी नेइस दे श पर आपत्काल लगाया था।इस इक्कीस महीने की इमरजें सी में मानवाधिकारों को ताक पर रख दिया गया था । इन्दिरा गाँधी पर चुनावों मे धाँधलीऔर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग और सीमा सेअधिक खर्च का आरोप कोर्ट के द्वारा तय हो गया था और उन्हें छह वर्षों तककोई भी पद सम्हालने को प्रतिबंधित कर दिया था।और इस स्थिति से बचनेके लिएप्धानमंत्री इन्दिरा गाँधी नेआपतकाल घोषित कर दिया था।कारण यही था-पर उसकी कार्यप्रणालियों और प्रभावों ने देश को जिस तरह आन्दोलित किया एवमजनता ने जिस दृष्टि से उसे देखा यहमहत्वपूर्ण है।उस दौरान महत्वपूर्ण कार्य भी हुएबीस सूत्री कार्यक्रम से विकास कार्य भी हुए पर अत्यधिक दबावों में और दबाव जनता सह नहीं सकती।गरीबी हटाओ का महामंत्र भी आया।पर इमरजेंसी ने जनता पर दो प्रकार के प्रभाव डाले थे।एक तो सम्पूर्ण देश मेंअधिकारों की रक्षा के लिए विरोध की लहरें उठने लगी थींजाने कितने लोग जननेता बन गये थे।अवसर का लाभ भी लोगों ने खूब उठाया।छात्र आन्दोलन में कूदपड़े।भागे भी, छिपे भी ,बन्दी बनाएगएऔर नेता की छवि लेकर उभरे। डायलिसिस पर चल रहे जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व एक बार पुनः जीवन्त हो गया।यह बहुत ही विवादास्पद अवधि थी।इस इमरजेंसी का एक असर कार्य संस्कृति पर भी पड़ा।यह बलात् था,आकस्मिक था पर इमरजेंसी के दबावों मे स्वीकार कर लिया गया था।समयबद्धता एक जबर्दस्त विशेषता बन गयी थी।समय पर कार्यालय जाना –काम करना-कार्यों को निपटानाआदि उसके सकारात्मक प्रभाव थे।छुट्टियाँ कैन्सिल कर दी गयी थीं लोग छुट्टियों मेंइधर उधर अवकाशोपभोग के लिये गये थे वे बुला लिए जा रहे थे।दहशत का माहौल था।एक विशेष दहशत थी जिसने उस अवधि को विशेष विवादास्पद और अलोकप्रिय बना दिया-वह थी परिवार नियोजन से सम्बन्धित।आफिसर्स को एक निश्चित लक्ष्य को पूरा करना थाऔर उसकी पूर्ति हेतु नसबन्दी और बंध्याकरण के लिएसभी क्षेत्र के कर्मचारियोंपर उचित ,अनुचित दबाव डाले जारहे थे। यह संजय गाँधी का आदेश था जो किसी तरह इन्दिरा गाँधी के आदेश से कम नहीं समझा जा रहाथा,और उनके सहयोगियों का आदेश संजय गाँधी के आदेश से कम नहीं माना जारहा था यह वह माहौल था जिसकी साक्षी आज की युवा पीढ़ी तो कदापि नहीं है, पर कल्पना वे अवश्य कर सकते हैं।
—–यह भी ध्यातव्य है किअस्पतालों द्वारा प्रमाणित दोनों प्रकार के परिवार नियोजन कार्यक्रमों को शत प्रतिशत सहीहीं भी माना जा सकताथा। फर्जी और कागजी कार्य भी बहुत हुए।अत्यधिक दबाव में जब दंडित होने का भय हो तो यह स्वाभाविक स्थिति हो ही सकती थी।इन सारी स्थितियों का जिक्र ऐसे माहौल के स्वाभाविक परिणामों पर दृष्टि हेतु ही आवश्यक है।
—-चाहे जो हो ,वह जो एक कार्य संस्कृति निर्मित हो रही थी,उसे देखते हुए कुछ बौद्धिक लोगों ने यहाँ तक कहना आरम्भ किया था कि यह इमरजेंसी अगर एक साल और रह जाती तो लोग सुधर जाते।आफिसों में काम होने लगता और विद्यालयों मे पढ़ाई।सब कुछ चाक चौकस होजाता।और,तब शायद यह अभ्यास बन जाता।आज हम यही तो चाहते हैं।पर यह एक भय था। इमरजेंसी की सख्त कारवाईयों का भय।
—आज त्वरित गति से लिए जा रहे केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकारया अन्य भाजपा शासित क्षेत्रोंके सरकारों केनिर्णयों और उनके अनुपालन की उतनी ही तत्परता से तत्पर पदाधिकारियों के विषय में सुन, जान लगता है कि सब सुधर जाएँगे ,कार्यसंस्कृति वापस आजाएगी।गृहमंत्री की मीटिंग में भी समयबद्धता की नसीहत इस ओर संकेतित करती है। लगता है ,कि हर क्षेत्र में सुधार आता ही जाएगा।यह अलग बात है कि मुद्दे आज अलग हैं।विशेषकर जमीनी स्तर परकाम करते हुए उत्तर प्रदे श की सरकार विशेष चर्चा में है।बिगड़े माहौल को ठीक करना,भ्रष्टाचार समाप्त करना,आराम पसन्द पदाधिकारियों की नींद तोड़ना ,जगह जगह त्वरित छापे, भ्रष्टाचारियों के राज खोलना आदि एवम् सामाजिक ,धार्मिक विषमता को समाप्त करने की चेष्टा करना, नेताओं पदाधिकारियों औरके विशिष्ट बने रहकर अपने अहंकार को पोषित करते हुए जनता की समस्याओं से दूर बने रहना , आदि पर लगाम लगाने की चेष्टा को जिस कड़ाई से अंजाम देने की कोशिश की है वह सम्पूर्ण देश की कार्य संस्कृति की मिसाल बन सकता है।केन्द्र सरकार ने वाहनो से लाल बत्ती हटवा कर पदाधिकारियों, संसद सदस्यों, मंत्रियों को जनता के बीच रह उनकी समस्याओं से रूबरू होते रहने की ओर प्रकारान्तर से आदेशित किया है। इन आदेशों का त्वरित अनुपालनएक विशेष आदेशात्मक दबाव का परिचायक है।ये सकारात्मक कदम हैंजोइस बात को स्पष्ट करते हैं कि उक्त बत्ती की उनकी सुविधा नागरिकों की असुविधा का कारण बनती है।यह बड़ी गहरी सोच हैऔर प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था को सही मायने में प्रातिनिधिक सिद्ध करने की जोरदार कोशिश।दूरियाँ समाप्त करने की पहल।पहले कई बार सोचा गया पर कारगर नहीं हो सका। अब एक विशेष कार्य संस्कृति से प्रभावित विशिष्ट लोगों को यह मानना ही पड़ रहा है।यह कठोरता से पालन कराने योग्य नियम है और कठोरता ही भय का कारण है अन्यथा गायकवाड जैसे विशिष्ट जन अपनी विशिष्ता को हथियार बना मनमानी ओछी हरकत करते ही रहेंगे।समाजवाद की दिशा में ऐसे कदम उठाना आज की माँग है।तो न पालन करने पर अपमानित अथवा दंडित होने का भय ही वह लगाम और चाबुक है जो लक्ष्य तक प्रयासों को पहुँचाता है।
देश मेंअचानक त्वरित गति से कई घटनाएँ घटने लगी हैं।कश्मीर में पत्थरमार संस्कृति फिर उभर आई है। इस बार तो स्कूल के बच्चे इसमें शामिल हैं।छोटे छोटे बच्चों काशामिल होना चिन्तनीय है ।प्रश्न है कि उन्हें भी अगर पैसे मिलते है तो कौन अब यह कुकृत्य कर रहा है?इसका प्रतिकार क्या है।. बच्चोंपर किस तरह की शक्ति प्रदर्शित की जा सकती है।आतंकवाद ज्यादा मुखर हो रहा है।चीन नेपुनः अरुणाचल के कुछ हिस्सों पर अपना हक जताना आरम्भ करदिया है,कई शहरों के चीनी नाम रख उसपर अपनी सांस्कृतिक पहचान थोपने की कोशिश की है।देश के अन्दर चल रहे सुधारवादी कार्यक्रमों से किंचित ध्यान अवश्य हटा सकते हैं।कश्मीर और चीन पर अत्यधिक ध्यान देने की ओवश्यकता हैपर राजनैतिक औरसामाजिक चेतना में तीव्र बदलाव और सभी धर्मोंके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण से किए गए प्रयत्नों ने लोगों के मन मेंएक अच्छी भावभूमि तैयार की है।
क्या कहा जाय कि एक साम्राज्य के पतन और दूसरे के उदय का यह संधिकालहै!काँग्रेस के कुछ विशिष्ट नेताओं का, काँग्रेस अध्यक्ष ,राहुल गाँधी एवम्अन्यों की बेबाक आलोचना उनके ही पूर्व नेताओं केद्वारा किया जाना ,खुली निन्दा करना साम्राज्य के पतन का संकेत देता सा प्रतीत होता है।कुछ विरोधी दलों का आपस में मिलने प्रयास ,”आप “ की छटपटाहट और अटपटे वक्तव्य साथ ही सत्ताधारीदल की सुधारों की बरसात ,कम समय में सारी समस्याओं का स्पर्श कर देने का प्रयास –सब इसी संधिकाल की विशेषताएँ लग रही हैं।
तीन तलाक हावी हो रहा है।.केन्द्र कावक्तव्य , योगी सरकार के प्रयत्नऔर समान नागरिक संहिता की माँग मुस्लिम समाज के कर्णधारों की नींद उड़ा रही है।हाथ से अधिकारों के फिसल जाने का डरउन्हें स्वयम नियमों में संशोधन को प्रेरित कर सकता है।समझ में नहीं आता कि एक साथ इतनी मुस्लिम महिलाओं के विद्रोह की वास्तविकता क्या है।अगरयह नारी सशक्तिकरण सम्बन्धित जागरूकता है तो स्वागतयोग्य है।तलाकशुदा स्त्रियों के निवास और आजीविका की चिन्ता कर योगी सरकार ने सबका साथ सबका विकास का अच्छा उदाहरण पेश करने की कोशिश की है। यह जज्बा बना रहे, कोई सिद्धान्त आड़े नआए तो यह अच्छा प्रयत्न होगा।
इन सबों केअतिरिक्त विश्व पटल परअमेरिका और अन्य देशों की भूमिका नजाने कैसा भूकम्प उत्पन्न करनेवाली है।उत्री कोरिया के प्रति उसका रोष और चीनन का सहाय्य ,रूस का प्रतिद्वन्द्वीकेरूप मे उभरना देशों के जिस समीकरण और शीतयुद्ध कीस्थितियों की ओर संकेत करता प्रतीत होताहै उसमें भारत की भूमिका क्याहोगी सहज अनुमान्य नहीं है।आतंक विरोधी कदमों में वह किसका साथ देगा ।क्या अब गुटनिरपेक्ष नीति साथ देसकती है?इन सब बातों पर विचारोपराँत लगता है कि हमें आंतरिक रूप से परिस्थितियों से जूझने को तत्पर होना होगा।आतंक को भी आतंकित करने की आवश्यकता है।अफगानिस्तान में कीगयी अमरीकी कारवाई नेभी सुफल ही दिया है।लगता है नीतियाँ बदल रही हैं। समस्याओं के समाधान की दिशा में भयप्रदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान होता जा रहा है।–
आशा सहाय 23 –4—2017–।

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