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आवश्यकता – धैर्य और उदारता की।

चंद लहरें
चंद लहरें
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मुझे विवेकानन्द के जीवन का वह विचारप्रधान हिस्सा सम्मोहित करता है,और मुझे ही क्यों,सम्पूर्ण भारतवर्ष को वह उतना ही सम्मोहित और गौरवान्वित करता होगा,जब अपनी युवावस्था में ही भारतका प्रतिनिधित्व करते हुए शिकागो मे हुए विश्व धर्म सम्मेलन मे उन्होंने हिन्दु धर्म का ध्वज फहरा दिया था, उसकी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर दी थी।प्रत्येक हिन्दु को उसपर गर्व होना चाहिए,पर उस हिन्दु धर्म के मूल में गहन चिंतन से जुड़े वे अध्यात्मिक सिद्धान्त थे,मनीषियों के वे दर्शन थे ,जीवन ,जगत और ब्रह्माण्ड से जुड़ी वे अकाट्य संस्थापनाएँ थीं जो हमारे मानस का सदैव निर्माण करती रहीं, परम्पराओं से पोषित होती रहीं। उसमे वैचारिक संकीर्णताओं के लिए कोई स्थान नहीं था।अत्यधिक उदार यह हिन्दु धर्म जो धर्म से ज्यादा एक जीवन दर्शन है और जिस पर आधारित हमारे क्रियाकलाप हैं ,हमारी व्यावहारिक सोच है ,हम उसे ही हिन्दुत्व की विशेषता मानते हैं।और हमारी ये अध्यात्मिक सोच भारतवर्ष के हर शिक्षित ,अर्धशिक्षित अथवा अशिक्षित जनमानस को एक वैचारिक संस्कार देती रही, चाहे वह ग्रामीण जनमानस हो या नागरी। ये व्यक्तित्व निर्माण के प्रेरक तत्व रहे।.वे थे हमारे वेदों के वे वेदान्तिक तत्व जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पिंड, चर अचर , ठोस तरल ,या यों कहें कि प्रत्येक स्वरूप में उस परम ब्रह्म का चेतन स्वरूप देखा,अनुभव किया और जिस सैद्धान्तिक प्रत्यक्ष के पार कोई अन्य अध्यात्मिक दृष्टिकोण जा ही नहीं सका।
हमारे इसी दर्शन ने प्रत्येक चर अचर में, जीवमात्र में पर ब्रह्म का जो चित- प्रकाश देखा है, चित की सत्ता देखी है,परिणामस्वरूप स्वाभाविक रूप से ही जीवमात्र से प्रेम पर्यावरण से प्रेम ,नदी पर्वतों से प्रेम आदि का व्यावहारिक जीवन दर्शन भी उत्पन्न हुआ है। यह तो हमारे मनोविकार हैं जो हमारी चिन्तन की दिशा बदलते हैं शान्त सागर में उठी अस्थायी लहरों के समान ।यह मूल विचारधारा हमारे जीवन की संवाहिका है जो हमारे सभी कृत्यों मेजाने अनजाने लक्षित होती रहती है।यही हमारी हिन्दु संस्कृति की मूल आत्मा है।जीवन के श्रेष्ठतम रूप से लेकर निम्नतम रूप में तदनुरूप यही चित प्रकाशित है।जहाँ यह सामान्य से बहुत अधिक है वह अधिक परमात्म शक्ति से युक्त होने के कारण देव श्रेणी को प्राप्त हो जाता है ।अद्भुत अकल्पनीय शक्तियों का स्वामी बन उस परमात्म शक्ति का प्रतिनिधित्व करने लगता हैतो देवरूप में हम उसका पूजन करने लगते हैं।देवत्व से युक्त वह भूत वर्तमान और भविष्य काऐसे ही द्रष्टा हो जाता है जिसकी हम परमात्म शक्ति में कल्पना करते हैं।
कहते हैं भारतवर्ष मे ऐसे तैंतीस करोड़ देवता हैं जिनकी पूजा की जाती है।क्योंकि इनमें लोगों ने उसी चित सत्ता का परम प्रकाश देखा है।
किन्तु, कुछ भी अलग नहीं है विश्वासों में।अगर विश्वासों में पृथकता है, नकारात्मकता है तो यह चिन्तन की स्वतंत्रता का परिणाम है।. और चिंतन की स्वतंत्रता मानव का प्राकृतिक अधिकार है।इस स्वतंत्रता को भारतवर्ष ने हमेशा प्रश्रय दिया है।इसी स्वतंत्रता नेअध्यात्म के साथ साथ सारी सामाजिक और राष्ट्रीय संस्थाओं का आकलन किया है,उसके साथ अपने दृष्टिकोणों को जोड़ा है।और, इसी तरह दैश के वैचारिक स्वरूप का विकास होता रहा है। हमारी इस उदारनीति ने व्यवहार और चिंतन के क्षेत्र मेंजाने कितनी आगत जातियों के चिंतन और व्यवहारों को आत्मसात कर लिया,उनके गुणों को अपनाकर अवगुणों को नकार दिया है ।यह हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण है।
पर भौतिकतावादी दृष्टि नेदेश के इस आध्यात्मिक स्वरूप पर कुठार भी चलाए हैं।हमारे पठन पाठन से जब अध्यात्मिकता दूर होती चली गयी तो पाश्चात्य विचारों के प्रभाव और विलासमय जीवन ने हमें उस ओर आकर्षित करना शुरु कर दिया । हम –जो जीवन के लिये कम से कम साथनों को अनिवार्य समझते थे , पाश्चात्य प्रभावों में अधिक से अधिक वस्तुओं की तलाश करने लगे ।हम जो स्वावलम्बी थे, परावलम्बी बनते चले गए।परावलम्बन अधिक से अधिक वस्तुओंपर ,सुविधायुक्त जीवन के लिए।
और अब विश्व की प्रतियोगितात्मक कतार में खड़े हम हर क्षेत्र में इस भावना से युक्त हो रहे हैं।यह अत्यन्त स्वाभाविक भी है।ऐसी स्थिति मेंकुछ पुरानी मान्यताओं का त्याग करना भी आवश्यक है ।कुछ दृष्टिकोणो को बदलना भी आवश्यक है।अपने अध्यात्मिक स्वरूप की रक्षा करते हुएअपने विचारों को विश्व के सम्मुख लाने की आवश्यकता है।अध्यात्मिकता मे हम अवश्य ही श्रेष्ठ हैं पर सुविधाभोगिता की ओर भागती दुनिया में अगर हम पिछड़ जाएँगे तो विश्व हमारी गिनती पिछड़े समुदायों में करेगा।
हमें हर क्षेत्र में अपना सिर ऊँचा करना है।मात्र अध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं वरन ज्ञान विज्ञान के हर क्षेत्र में धरती से लेकर आकाश तक हम अपनी अन्यतम शक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं।
अपनी विकास यात्रा मे हमने यह सब किया है।हमअपने राष्ट्र के साथ साथ दूसरे राष्ट्रों की ओर भी हाथ बढ़ाना चाहते हैं –उनके उत्थान के लिए।यह हमारा अत्यंत प्राचीन आदर्श है जिसपर अमल किए बिना हम रह नहीं सकते।विकास की सीमा हम अब छूना ही चाहते हैं।
यह सब ठीक है परआज वह स्थिति नहीं है कि हम मात्र अपनी ही बातें सोचें। इस देश में जातियों की विविधता ने अपना विकास अपने ढंग से किया है।हमने सदैव उनकी ओर उदारवादी रवैया ही अपनाया है।अगर अपने इस रवैये को स्वयं बाधित कर जबरन अपने सिद्धान्तों को दूसरों पर थोपने की कोशिश करेंगे तो हमारी स्थिति उन जातियों के रवैये से कदापि भिन्न नहीं होगी जो अपने को श्रेष्ठ मान दूसरी जातियों पर राज करना चाहती हैं।यह सामाजिक आक्रमणकारी दृष्टिकोण है जिससे हमें बचकर रहना है।आज हमें उस देश को देखना है जो विविध धार्मिक समुदायों से निर्मित है और जिनकी पृथक आनुवंशिक विशेषताएं हैं।जिनके विश्वासों मे विविधता है । देश के इस विराट स्वरूप को बनाए रखने के लिए धर्मों के उन सारे मानवीय पहलुओं को प्रश्रय देना आवश्यक है। हम वहीं अपनी दृष्टि टेढ़ी कर सकते हैंजहाँ दृष्टिकोण अमानवीय हो जाते हैं।इसलिए भी स्पष्टतःकि यह देश मात्र एक हिन्दू राष्ट्र नहीं है ,यह एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण वाला राष्ट्र है,परिणामतः कार्यकलापों के प्रति स्वीकृति और अस्वीकृति को हमें इसी दृष्टिकोण से देखना होगा।कोई भी राष्ट्र अगर धार्मिक अतिवादिता का आश्रय लेता है तो विश्व पटल पर अलग थलग हो जाता है।धार्मिक अतिवादिता की विस्तारवादी नीतियाँ बहुत खतरनाक होती हैं– आतंकवाद के नाम पर जिसका दुष्परिणाम सारा विश्व भुगत रहा है।
नैतिकता के पैमाने पर कृत्यों को माप कर पुरस्कृत और दंडित करने की व्यवस्था अगर हम करते हैं तो यह सही है पर मात्र पूर्वाग्रहों के लिए किसी की स्वतंत्रता को बाधित करना गलत ही माना जाएगा।
हाँ, निश्चय ही देश के सरकार के कुछेक निर्णयों को पुनः पुनः देखने की आवश्यकता होती है।तर्क की कसौटियों परअगर निर्णय खरे उतरते हैं तो जनमानस को पहले उसके अनुकूल बनाने की आवश्यकता होती हैअन्यथा विरोधों की आँधी लोकप्रियता पर हावी हो सकती है।
ताबड़तोड़ लिए गए निर्णयों ,बनाए गए कानूनों से बेहद जल्दबाजी की कोई विवशता प्रतीत होती है।पर यह सच है कि जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों से लोगों को असुविधा भी हो सकती है।विरोध का मुखर होना तो अवश्यंभावी है।
प्रशासन को अपने कार्यों के लिए अनुकूलता पैदा करनी होगी।विचारधाराओं को परिवर्तित करने के लिए तर्क देने होंगेऔर इसके लिए विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाओं को जागरुकता पैदा करने हेतु प्रोत्साहित करना होगा।वे सारे प्रश्न राष्ट्र कल्याण से क्यों उतने ही जुड़े हैं जितने हमारी अध्यात्मिक चिंतन से—इसे स्पष्ट करना होगा।पर्यावरण संरक्षण ,स्वच्छता , नदियाँ हमें क्यों बेहतर स्थिति में चा हिए, पशुओका संरक्षण हम क्यों करें आदि आदि। ये ऐसे प्रश्न हैजिनसे जुड़े अनगिनत प्रश्न होंगेऔर फिर नैतिकता से जुड़े प्रश्नभी -जिनके लिए हमे ठोस तर्क देने होंगे।
जातिगत वैमनस्य फिर उभरकर सामने आरहा है।कारण एक ओर तो हमारी ओछी राजनीति है जो जातिगत भेद मिटाने नहीं देना चाहती इस भेदभाव को वोट की राजनीति बनाती रहती है दूसरी ओर हमारी वह मानसिकताजिसमे हम किसी पिछड़े कोआगे बढ़ते देख नहीं सकते।तीसरी ओर वह नीति जिससे सरकार पीछा छुड़ा नहीं सकती।आरक्षण एक ऐसी आग है जिसमें तथाकथित सवर्ण जल रहे हैं परिणामतः अपना आक्रोश प्रगट करने से नहीं चूकते। सहारनपुर मेंहोनेवाली घटनाएँ ऐसे ही आक्रोशों का परिणाम हो सकती हैं। और एक बार सुगबुगाती हुई चिनगारी को भड़काकर अवसर का लाभ उठाना तो लोगों की आदत बन गयी है।स्थिति को कश्मीर की तरह पत्थरबाजी का रंग दे देना आसान हो गया है। पत्थरबाजी लगता है विरोधप्रदर्शन का नायब तरीका बनता जा रहा है।यह आन्तरिक राजनीति का विकृत रूप है। सत्ताप्रेम जनकल्याण का कितना हनन कर सकता है यह द्रष्टव्य है।
दलितों अब दलित वर्ग में बाँटकर रखने की विवशता ही क्यूँ है।आज उनकी स्थिति दलितों जैसी नहीं है । वे आगे बढ़ रहे हैं ,बढ़ चुके हैं।समाज में उनकी बढ़ी हुई पहचान को अगर हम नहीं पचा पाएँ तोबार बार वह घटना दुहरायी जाएगी जो भारत की तथाकथित हिन्दु जाति के लिए कलंक । की बात ही होगी।वे बोद्ध धर्म अपनाना चाहते है।यह मेरी दृष्टि से जितनी गम्भीर स्थिति है उतनी ही हास्यास्पद भी।
पशुओं की खरीद बिक्री पर नियंत्रण से उत्पन्न बोखलाहट नोटबंदी की बौखलाहट से मिलती जुलती प्रतीत होती है।बहुतों की आजीविका बाधित होती है ,व्यापार परआँच आ रही है। बहुतों की धर्म भावना आहत हो रही है।और अचानक सख्त नियम कानून बन जाने से खरीद फरोख्त में संलग्न वर्ग को कागजी परेशानियोँ का सामना भी करना पड़ेगा।थोड़ी परेशानी किसानों को होगी।और उन खुले पशु मेलों के व्यवसायों का क्या होगा।? बहुत समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। दुधारू पशुओं को कुछ दिनों बाद लोग बेच देना चाहते हैं ।कौन खरीदेगा?।इन सारी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ कर रखना होगा।पशुआश्रमों की देखभाल पवित्रभाव से करना इतना सरल नहीं है। और दलितों और अल्पसंख्यकों का हित इससे कुछ ज्यादा जुड़े रहने के कारण उनके विरोध का सामना भी करना पड़ेगा।
तात्पर्य यह कि माहौल तैयार करने की आवश्यकता है साथ ही धैर्य कीभी अपेक्षा है।हमारे और अन्यों केचिन्तन के मूल निष्कर्षों मे कहीं कोई भेद नहीं हो सकता। भेद की संभावना अत्यल्प होती है पर सिद्धान्तों के प्रति सबको जाग्रत करने की आवश्यकता है।हम अपनी अध्यात्मिकता को जीवित रखें ,उसकी मूल भावना को पूरी मानव जाति में संप्रेषित करें ,पर रूढ़ियों और गलत परम्पराओं से मुक्त होने की कोशिश भी करें।सम्पूर्ण भारतवर्ष में नैतिकता और मानवता का साम्राज्य होना चाहिए। उदारता उसका अवलंब होना चाहिए अन्यथा इस देश के विविधतापूर्ण विराट स्वरूप की रक्षा हम नहीं कर पाएँगे।

Asha sahay —29 -5 -2017–.

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