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आंदोलन किसानों का—एक दृष्टि।

चंद लहरें
चंद लहरें
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प्रश्न है कि ऋण माफी की माँग ही अगर भारतीय कृषकों का हश्र है तो किसानी एक असामान्य जीवन का प्रतीक है।आज की सामान्य जनता के जीवन से बिल्कुल ही पृथक।यह बेहद घाटे का सौदा हैऔर यह भी कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी तत्सम्बन्धित उस अदूरदर्शिता का परिणाम है जिसमे वह किसानों के ऋण माफ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है। कृषि उत्पादों का सन्तोषजनक समर्थन मूल्य नही देना एवम तत्सम्बन्धित किये गये वादों से मुकरना सामान्य कृषकों को अब सहन नहीं होता ।ये बात सत्य है कि इनकी ये समस्याएँ मध्यवर्गीय और छोटे किसानों के साथ ज्यादा जुड़ी हैं।
किसानों की समस्याएँ आम जनता की समस्याओं से बिल्कुल भिन्न हैं।वे कोई नौकरीपेशा लोगों की समस्याएँ नहीं। पर्याप्त सहानुभूति रखते हुए भी कोई भी सरकार पूरी तरह किसानों के प्रति न्याय नहीं कर सकती, जब तक वह प्रकृति पर सम्पूर्णतया निर्भर करते हैं।अब प्रकृति पर उनकी निर्भरता कम होती जा रही है,पर,मिट्टी की पहचान, बीज ,खाद कीटनाशक ,सिंचाई आदि सारे पहलुओं पर ध्यान रखते हुए अनुकूल व्यवस्था करने के पश्चात भी मौनसून आदि प्राकृतिक स्थितियों पर उनकी निर्भरता बनी ही रहती है।उत्पादित फसल का सही मूल्य प्राप्त करना भी समस्या ही है। सीधी मंडी तक फसल को पहुँ चाना , बिचौलियों से दूर रहना और सही मूल्य प्राप्त करना एक बड़ी समस्या है।कम फसल तो उन्हें त्रास देती ही है,अधिक फसल भी जब कम मूल्य पर खरीद ली जाती है तो सर्वाधिक असंतोष होता है। बेचे जाने के लिए वे अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते क्यों कि उनके पास भंडारण की समस्या होती है।अतः माँग और पूर्ति का खिलवाड़ होता ही रहता है।बिना बिचौलिए के कृषि उत्पादन की बिक्री सामान्य श्रेणी के किसानों के लिए संभव नहीं होता। समाधान के लिए ऐसे किसानोंके पास से फसलों को खरीदने को सरकारी स्तर पर प्रयत्नशील होना होगा ,पर तब भी किसी हद तक धाँधली संभव है ही।साथ ही किसानों में उत्पादन वृद्धि के लिए राष्ट्रजनीन प्रतियो गिता भी करनी होगी।किसानों की समस्याओं को कृषि कार्य के साथ कुछ कुटीर उद्योगों , पशुपालनजैसे व्यवसायों को जोड़ने से भी दूर किया जा सकता है।लगातार छोटे होते जाते जोतों की मेड़ों पर सीधे तनों वाले वृक्षों अथवा फलदार पौधों से आमदनी बढ़ायी जा सकतीहै। सबसे अधिक सहायता की आवश्यकता इसी वर्ग के किसानों को है जिसपर ध्यान देने की आवश्यकता तो है ही।
किसानों की माँगें जायज तो अवश्य होती है पर इस बार आन्दोलन के रूप मे किसानों का ऐसा रौद्र प्रदर्शन कभी जायज नहीं हो सकता।किसानों की माँगें मात्र तत्कालीन परिस्थितियों की उपज नहीं हैं ,इसके साथ भविष्य की बेहतरी से जुड़ी सोच भी है जिसमें वे वृद्ध किसानों के लिए पेंशन ,दूध के बढ़े हुए दाम एवम माइक्रो इरिगेशन इक्विपमेंट, वह भी पूरी तरह सब्सिडाइज्ड मूल्य पर चाहते है। सिंचाई की यह व्यवस्था लाभदायक तो है परयह सोच सामान्य किसान के मस्तिष्क की उपज नहीं कही जा सकती।यह हो सकता है कि किसानों की नयी जागरुक युवा पीढ़ी जो अधिक से अधिक सरकारी लाभ लेना चाहती है और अविलम्ब रईस किसानों की श्रेणी मे आ जाना चाहती है, इन माँगों पर अड़ जाये।माँगों को अनुचित नहीं कहा जा सकता।अतः उन्हें अवश्य ही विरोधी दलों की सहायता और समर्थन भी प्राप्त होगा। लगता है, ऐसा ही कुछ हो रहा है।
ऋण की माफी का आरंभ भाजपा शासित क्षेत्रों मे सर्वप्रथम उत्तरप्रदेश ने किया गया।पुनः यह माँग तथाकथित हड़ताल के रूप में महाराष्ट्र में उभरी । महाराष्ट्र के ऋण माफी संकेत ने कुछ समूहों के हड़ताल समाप्त तो किए किन्तु उनका एक धड़ अभी भी हड़ताल पर है।मध्य प्रदेशके मंदसौर में इसका स्वरूप सम्पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है ।इसने आन्दोलन का रूप धारण कर लिया है। किसीनों के आंदोलन का इतना अभद्र हो जाना , डी एमके साथ मारपीट कर लेना , गाड़ियों के शीशतोड़ना, उन्हें जला डालनाआदि स्वाभाविक नहीं बल्कि अस्वाभाविक प्रतिक्रिया है।सामाजिक राष्ट्रीय सम्पति को क्षति पहुँचाना निश्चय ही अन्नदाता किसान के मस्तिष्क की उपज नहीं लगती,यह उन दलविशेष के कार्यकर्ताओं के मस्तिष्क की उपज अवश्य हो सकती है जो सरकारी प्रयत्नोंको प्रभावहीन और निष्फल होने का संदेश जनता को देना चाहते हैं। किसान विरोधी स्वरूप उनपर थोपना चाहते हैं।गुंडा तत्वों के समावेश की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता।प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य अवश्य ही हुआ और परिणाम स्वरूप क्रोध का अधिक भड़कना भी उचित है।स्थिति को नियंत्रित करने की तत्काल आवश्यकता है।यह सही है कि नेताओं को वहाँ जाने से रोकना जहां उचित है वहीं यह वहाँ की जनता के अधिक भड़क उठने का कारण भी बन सकता है। स्थिति के तह में जाकर कारणों को ढूंढ़ उसके निदान की दिशा में प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है।
किसान हमारी कृषिप्रधान व्यवस्था की रीढ़ हैं ।हमें उनकी समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक सुनना ही होगा हमारी विशाल जनसंख्यावाले देश को उनकी सख्त जरूरत है।कृषिकर्म को उद्योग का जब हम दर्जा देना चाहते हैं तो उसे सम्मानजनक स्थिति में पहुँचाना भी हमारा धर्म होना चाहिए कि वे ऋण माफी की माँग न कर सकें और आमदनी पर टैक्स देकर गर्व का अनुभव कर सकें। आवश्यकता इसबात की हैकि हम सुनिश्चित कर सकें कि कोई किसान कृषि परिस्थितियों से घबराकर आत्महत्या न करसके। सरकार को इस दिशा में विशेष प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है।

आशा सहाय—8—6—2017।

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