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आज अचानक उन दिनों का स्मरण हो रहा हैजब भाषायी आधार पर राज्यों का प्रथम पुनर्गठन हो चुका था।1953 मेंतेलगूभाषी क्षेत्र के रूप में आंध्र प्रदेश का गठन हो चुका था।यह एक विवशता मानी गयी थी। मद्रास से तेलगूभाषी क्षेत्र को अलग करने के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता श्री पोट्टिरामलूने 58 दिनों का अनशन किया था और उनकी मृत्यु हो गयी थी।यह प्रथम भाषायी राज्य था । पर तभी उसी वर्ष 22 दिसम्बर को राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ जिसने 30 सितम्बर55 के अपने रिपोर्ट में राष्ट्रीय एकता प्रशासन की सुविधा, आर्थिक विकास अल्पसंख्यक हितों की रक्षाऔर भाषा को आधार मानकर राज्य के पुनर्गठन की संस्तुति की जिसे कमोवेश सुधार के साथ पुनर्गठन अधिनियम 1956 मेंसंसद द्वारा पारित किया गया और 14 राज्य और 9 केन्द्रशासित प्रदेश बने। इसके बाद तो पुनर्गठन का सिलसिला चला और निकटतम विभाजन सन् 2000 मे झारखण्ड ,उत्तरा खण्ड और छत्तीसगढ़ के रूप में अस्तित्व में आया।
— उस अपरिपक्व अति अल्पज्ञ मानसिकता में भी यह बात पुस्तकों द्वारा ज्ञात होने पर मस्तिष्क में एक प्रश्न चिह्न बनाती थी, और आज तक बहुतसारे विवादों केमूल मे कारणस्वरूप मानते हुए यह उतनी ही खटकती है।नये राज्य बन गये थे पर आलोचनाएँ सामान्य जनमानस में थीं।यह ज्ञात होने पर कि1947 में ही श्री रामकृष्ण दर आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोथ करते हुए सिर्फ प्रशासनिक सुविधा को आधार मानने की वकालत की थी,–इसपर गम्भीरता से विचार न किए जाने पर अफसोस अवश्य होता है।
— आज जब गोरखालैंड की माँग जोर पकड़ती जा रही है,पुनः कुछ सोचने को मन विवश होता है। यह वह माँग है जिसेबार बार शमित करने की कोशिश की जाती रही है पर चिंगारी कहीं न कहीं अन्दर ही अन्दर जाग्रत ही रहती है। स्फुलिंग रह रह कर छिटकते हैं फिर शमित होते हैं ।1907से चला यह आन्दोलन 1980 मे गोरखा लिबरेशन फ्रंट के रूप में बंगाल से पृथक होने को निरंतर संघर्ष करता रहा पर पृथकराज्य के रूप में अपने अस्तित्व को आत्मनिर्भर हो बचाना आसान उसके लिए तो नही ही होता सीमा की सुरक्षा पर भी आंच आने की संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता था। गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना के द्वारा इसे शान्त करने की कोशिश की गयी पर पूरे अधिकार देने की बात का वादा था जिसे पूरा नही किया गया।और स्थानीय निकायों मे वेस्ट बंगाल की जीत ने उसे दसवीं कक्षा तक की सिलेबस में बंगला भाषा के प्रवेश कराने को प्रोत्साहित कर दिया।भूल यहीं हो गयी। जनमानस को यह स्वीकार्य नहीं था। उनकी अपनी नेपाली भाषा और संस्कृति पर आधारित पृथक राज्य की माँग अतः पुनः जोर पकड़ने लगी।उनकी समस्या पृथक पहचान की समस्या है और आज जब इतने राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है तो भारतीय शासनव्यवस्था के अधीन रहकर पृथक राज्य की उनकी माँग क्यों नहीं पूरी हो सकती। और दूसरी भाषा उनपर क्यों थोपी जानी चाहिये।
— बात पुनः भाषायी आधार की ओर ही मुड़ती हुई सी दीखती है। भाषायी आधारों नेसभी राज्यों को भाषागत भेदभाव के कगार पर तैनात सन्नद्ध सेना की तरह चुस्त और सावधान कर दिया है। कोई उसे पार कर के तो देखे।वैसे भी गोरखा बड़े कर्मठहैं। गोरखा सैनिकों से कौन नही डरता।उनकी भाषा परदूसरी भाषा को विशेषकर बँगला भाषा को हावी करदेने की कोशिश भला उन्हें क्यों कर स्वीकार होती।
मेरी दृष्टि सेयह एक बड़ी भूल थी कि हमने भाषायी आधारों पर राज्यों के निर्माण को स्वीकार कर लिया था।राष्ट्र में स्वतंत्रता प्राप्ति की लहर ने सुविचारित योजना से उसकी एकता की रक्षा की शायद अनदेखी कर दी।यह तो देखा कि राज्यों की भाषागत जातिगत संस्कृति ,साहित्य का विकास होगा,पर मन में पलनेवाली उस जिद को नहीं देखाजिसके तहत राज्य इसे आयुध बना ले सकते हैं।और हर कहीं पृथक पहचान कोपृथक राज्य का स्वरूप देने को तत्पर हो सकते हैं।भाषा के आधार पर पृथकता संस्कृतिजन्य विविधता को प्रोत्साहन देने के प्रयोजन से कुछ मायने अवश्य रखती है,प्रशासन की सुविधा के लिए भी छोटे राज्यों का निर्माण किया जा सकता हैपर ऐसी स्थिति जिसमें छोटे राज्यों का निर्माण सीमा क्षेत्रों से लगे हों ,देश के लिये खतरे की घंटी भी हो सकती है।गोरखा,जो मूलतः नेपालीहैं और दार्जीलिंग और सिक्किम के कुछ अन्य क्षेत्रों को विजित कर अंग्रेजों के हाथों पराजित हो भारत के अंग हो गये,के मन मे मूल मातृभूमि के प्रति भी अनुराग हो सकता है।हमें बहुत सम्हलकर कदम उठाने की आवश्यकता है।
— मेरा कथ्य विशेषकर छोटे किन्तु भाषायी आधार पर राज्यों के निर्माण से सम्बद्ध है।पर, अन्य राज्यों में भी भाषायी पहचान अगर गर्वोक्ति बनकर उभरती है तोयह गर्वोक्ति –आमार बाँगला हमारा महाराष्ट्र म्हारो राजस्थान जैसे नारे– अगर क्षेत्रगत उपलब्धियों के प्रदर्शन तक है, तब तो ठीक है पर प्रतियोगिता में अन्यों को हीन दृष्टि सेदेखने की भावना ही निकृष्ट हो जाती है।देश की भावनात्मक एकता पर कुठार चलने लगते हैं।अगर भावनात्मक एकता का अभाव नहीं होता तो बँगला पढ़ाने की बात इतनी भभका देने वाली कदापि नहीं होती।
हम भावनात्मक एकता की बातें करते नहीं थकते। इतना बड़ा राष्ट्र,इतने राज्य, इतनी विविधताएँ –भाषाओं .वेशभूषा ,खान पान ,नृत्य गान आचार विचार की विविधता –तब भी हम सब एक हैं।कितनी बड़ी बात है, जिसे सोचकर हम भारतीयों का सिर गर्व से उन्नत हो जाता है।पर इस भावना के प्रति घोर संवेदनशीलता का इषत् अभाव भी बड़ी समस्याएँ उत्पन्न करने में सहायक हो जाता है।विकट स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
भाषा का आधार निश्चित ही रहन सहनऔर संस्कृति की विविधता को प्रश्रय देता है,पर उसके विकासमात्र से उन्हें सन्तुष्टि नहीं मिल सकती।“ हम दूसरों से अलग हैं ,श्रेष्ठ हैं,शक्तिशाली हैं और दूसरे हमारी भूमि , कार्यकलापों में हस्तक्षेप नहीं करें “ यह भावना जहाँ जन्म लेने लगती है बस वहीं से भेदभाव का आरम्भ होने लगता है।
अगर राज्यों का बँटवारा भाषा के आधार पर नहीं होता और एक राज्य में दो तीन प्रमुख भाषा वाले नागरिक रहते तो जो चित्र मेरी आँखों के सम्मुख उभरता है वह यह कि वे एक दूसरे की भाषा सीख रहे होते एक दूसरे के पर्व त्योहार ,साँस्कृतिक कार्यक्रमों में शरीक होते और रीति रिवाजों मे समानता ढूँढ़ते होते।ऐसा होते हुए हमने लक्ष्य किया है जब विभिन्न समुदाय के लोग किसी नौकरी के तहत एक स्थान पर निवास करते हों।एक अच्छी स्थिति धीरे धीरे बनती।एक बहुभाषावादी राज्य में वे अपनी भाषा बोलते हुए दूसरी का सम्मान भी करते।यह एक बेहतर स्थिति होती और मिली जुली संस्कृति पनपती।पर लगता है यहाँ तक पहुँचने के लिए जिस दूरदृष्टि की आवश्यकता थी ,वहाँ तक तत्कालीन नेताओं की दृष्टि नहीं पहुँची।आश्चर्य तो इस बात का है कि तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू भी उस रिपोर्ट से पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं थे, और इस आधार के प्रति पहले ही अम्बेदकर भी शंकित थे । उत्तर और दक्षिण में गहरी खाई उत्पन्न हो जाने की आशंका जाहिर की थी।तब भी इसके आधार पर कार्य किये गये।
— शुक्रवार दिनांक 23 –6 -2017 के टाइम्स आफ इन्डिया ,बंगलूर में प्रकाशित एक खबर ने पुनः उस प्राचीन मन के घाव को जीवित कर दिया ।बंगलोर नम्मा मेट्रोकी घोषणाएँ, एवम् स्टेशन्स के मार्गदर्शन दिग्दर्शक चलपट्टियों पर हिन्दी का भी प्रयोग कर दिया गया तो कन्नड़ डेवलपमेंट आथॉरिटी ने बेंगलोर मेट्रो कारपोरेशन को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया । उन्हें हिन्दी की अनिवार्यता स्वीकार नहीं।उन्होंने यह तर्क भी दिया कि यह न्यायालय के उस आदेश का उल्लंघन है जिसमें त्रिभाषा के प्रयोग की बाध्यता मात्र केन्द्रीय संस्थानों मे है, राज्य के संस्थानों के लिए नहीं।और यह भाषा विवाद बढ़ता ही जा रहा है।क्या यही भावनात्मक एकता है?और क्या यह भाषायी आधार का दुष्परिणाम नही?उन्हें हिन्दी ग्राह्य नही ,यह जानते हुए भी कि यह एकमात्र भाषा राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती है।इतनी अवमानना। मेरी समझसे हिन्दी अनिवार्य कर देनी चाहिए। राष्ट्र भाषा के सम्मान को बचाना देश की पहचान के लिए आवश्यक है।एक विदेशी भाषा ,गुलामी का प्रतीक अँग्रेजी इन्हें प्यार से स्वीकार्य है पर हिन्दी नहीं।अँग्रेजी का विरोध करना उचित नहीं पर देश की प्रमुख भाषा का सम्मान करना भी तो उचित है।अंग्रेजी का सहारा लिए बिना भी राष्ट्र का विकास हो सकता है, यह सर्वविदित है।
— पर हम हमारे उन नेताओं को भी इस भेद भाव के लिए जिम्मेदार मानते हैं जो प्रदेश विशेष मे अपनी सत्ता स्थापित करने हेतु राष्ट्रीय महत्व से जुड़ी इन बातों को दरकिनार कर देते हैं।अभी दो दिन पूर्व वेंकैया नायडू के द्वाराराष्ट्रभाषा हिन्दी को सीखने पर बल देने की बात दूसरी पार्टियों के गले उतरती नहीं दीखी।यह उन्हें विचारधारा की संकीर्णता प्रतीत हुई।ऐसी स्थिति में जब हम अनेकता में एकता की बातें करते हैं तो हास्यास्पद प्रतीत होता है।पग पग पर भावनात्मक एकता बाधित हो रही है और हम उसकी दुहाई देते नहीं थकते।क्या भाषायी आधार इसका बहुत बड़ा कारण नहीं?
आशा सहाय—27-6-2017—।
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