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अमरनाथ यात्रियों के बस पर आतंकी हमला, सात यात्रियों की मृत्यु, दो गम्भीर अवस्था में और उन्नीस घायल। अनन्तनाग जिले में। हिजबुल और लश्कर ने मिलकर मारा। किसने और क्यों यह अब महत्वहीन है। आतंकवाद कहां से प्रायोजित है, यह भी महत्वहीन है। पर आतंकियों का इस प्रकार धार्मिक आस्था से जुड़े लोगों पर हमला बेबर्दाश्त प्रतीत होता है। दो लाख और दस लाख का मुआवजा मशीनी प्रक्रिया है। कहीं से भी ये व्यक्ति की मृत्यु की भरपाई करने में असमर्थ होंगे। हमने जान को पैसों और रुपयों से मोल लगाने की आदत बना ली है।
इस आतंक के खिलाफ तो कश्मीरी भी भड़क उठे हैं। महबूबा मुफ्ती ने इसे शर्म से सिर झुक जाने वाली घटना बताया है। यह एक स्थिति देश की उस केन्द्रीय राजनीति को आईना दिखाती हुई प्रतीत होती है, जिसमें लगातार वह आतंकवाद का ही जवाब खोजती नजर आती है। सारे विदेशी दौरों का एक और सर्वाधिक मुख्य मुद्दा आतंकवाद की समस्या और समाधान भी होता है।
ड्राईवर सलीम के प्रति अच्छा नजरिया स्वीकार्य तो होता है परयह स्वीकृति भी प्रश्न उठाती है कि आखिर रोक होने के वावजूद खासकर रात्रि को उस रास्ते से यात्रा करने की आवश्यकता क्या थी। टायर को उसी क्षेत्र में बदलने की क्या आवश्यकता थी। कमजोर और खराब टायर को किसी अन्य स्थान पर वक्त रहते बदला जा सकता था, क्योंकि वहाँ हमले की आशंका पग-पग पर लोग व्यक्त कर रहे थे। फिर भी सलीम पर हम अविश्वास नहीं करना चाहते, क्योंकि उसने कई बार ऐसी यात्राएं की थीं।
इस सलीम पर अविश्वास करके हम हर सलीम पर अविश्वास नहीं करना चाहते। पर रजिस्ट्रेशन क्यों नहीं हुआ था? ऐसे श्राइन बोर्ड ने बिना सुरक्षा व्यवस्था के बस को जाने की इजाजत कैसे दी? सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही स्थितियों में सुरक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए ही थी। यह सब व्यवस्था की कमजोरी मानी जा सकती है ।
प्रश्न है कि वर्तमान स्थितियों में इस समस्या का समाधान क्या हो। यह सच है कि मात्र करतूतों की निन्दा करना पार्टीगत नीति का प्रदर्शन है। उस आन्तरिक विद्रोह और आक्रोश का प्रदर्शन नहीं, जो ऐसे अवसरों के लिए आवश्यक है। भाषा अवश्य संयत होनी चाहिए पर उसी से गम्भीर आक्रोश भी अभिव्यक्त होना चाहिए।
कश्मीर में सेना आतंकियों का सफाया करने में लगी है पर अभी वह भी अपर्याप्त है, तभी ऐसा आचरण संभव हो सका है। फिर कौन सी नीति अपनानी है। युद्ध स्तर पर शौर्य प्रदर्शनकरना एक विकल्प होता है, जिसके लिए भारत का सामान्य समाज आकुल हो जाया करता है। पर किसके विरोध में? आतंकियों के लिए तो प्रयत्न किये ही जा रहे हैं। उन आतंकी संगठनों के सदस्यों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा जा रहा है। उनके ठिकानों को ध्वस्त करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक का सहारा लिया गया। तात्कालिक अल्प प्रभाव को दिखाते हुए वह प्रभावहीन हो गया और कहना ही चाहिए कि उसके बाद आतंकी हमलों में वृद्धि ही हुई है,कमी नहीं आयी। तब उसके सम्पूर्ण गढ़ की सफाई एकमात्र उपाय प्रतीत होता है। यानि सम्पूर्ण स्वरूप में युद्ध। एलओसी उल्लंघन करने वालों के साथ युद्ध स्तर पर जवाब दिया ही जा रहा है।
आक्रमणकारी युद्ध के लिए पूरी तत्परता, तैयारी, दृढ़ इच्छाशक्ति, विजय का विश्वास और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का समर्थन भी आवश्यक है। और युद्ध किससे। आतंकियों से जो विश्वजनीन संगठन के हिस्से है? पाकिस्तान से, जिसने उन्हें संरक्षण और पोषण दे रखा है और जिनकी सहायता से कश्मीर पर विजय प्राप्त करने के सपने देख रहा है? निश्चय ही भारतीय समुदाय के हृदय में मुख्य शत्रु पाकिस्तान ही नजर आता है। युद्ध की मांग भी उसी से निबटने के लिए की जाती है। किन्तु सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भों में भारत की स्थिति बहुत अनुकूल प्रतीत नहीं होती। अपनी प्रतिबद्धताओं से घिरा भारत, भूटान में अपनी सेनाएं बिछाए हुए है।
चीन के साथ तनातनी की स्थितियां बनी हुई हैं और विस्तारवादी चालाक चीन ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में है। एशिया ही नहीं विश्व में बढ़ते भारत के प्रभाव को वह पचा नहीं पा रहा। दूसरी महाशक्ति के रूप में उभरने की उसकी कामना किसी न किसी प्रकार भारत को अपनी शक्ति और प्रभाव से पराजित करने अथवा अपने अनुकूल बनाकर दिखाने में है। उसे अवसर मिलने की देर है।
हम भारत की शक्ति को कम कर आंकना नहीं चाहते। यह भ्रम पालने में दोष नहीं कि 1962 के मुकाबले भारत बहुत मजबूत हो चुका है और चीन ने भी यह विश्वास दिलाने की कोशिश की ही है कि वह भी 1962 का चीन नहीं रहा है। शक्ति की समतुल्यता की मात्र आजमाइश के लिए चीन के साथ भारत युद्ध की स्थिति में फंसना नहीं चाहेगा। चीन ने ऐसे ही किसी बहाने द्विपक्षीय समस्या से युक्त कश्मीर में भी अपनी सेना के प्रवेश की धमकी दे डाली है। यह धमकी कोरी बकवास नहीं, बल्कि इसके पीछे पाकिस्तान के साथ ऐसे मौके पर मित्रता प्रदर्शित करने का सशक्त बहाना भी हो सकता है, जिसके लिए वह समुत्सुक है।
विभिन्न देशों की सेनाओं के संयुक्त अभ्यास से वह अवश्य ही भयभीत और चौकन्ना होगा पर चीन को अपनी सेना के संख्याबल पर विश्वास है, जिसे युद्ध में झोंक देने में वह पूरा समर्थ भी है। सेना के अन्य अंगों की सामर्थ्य पर तो पूरा विश्वास है ही उसे। भारत क्या करे। सभी सशक्त और पड़ोसी देशों के सहयोग देने के वादों के साथ भी क्या यह विश्वास कर लेना आसान और उपयुक्त होगा कि युद्ध छिड़ने की स्थिति में वे साथ ही देंगे। उनका अन्य कोई अप्रत्यक्ष स्वार्थ उन्हे अन्यथा करने को विवश नहीं करेगा?
ऐसा प्रतीत होता है कि आतंक के सफाए के लिए अभी युद्ध जैसी स्थिति का आह्वान कर लेना कभी बुद्धिसम्मत नहीं हो सकता। सम्बन्धों को और परिपक्व और विश्वसनीय होने देना है। साथ ही भारत एक शान्तिप्रिय देश है, अपनी इस छवि को विश्व के सम्मुख बनाए रखने में उसकी महानता है।
मीडिया की भूमिका सकारात्मक होनी चाहिए। बढ़ा-चढ़ाकर नकारात्मक खबरों को दिखाना और नकारात्मक विश्लेषण कर जनता के आक्रोश को भड़काना, उनकी आदत हो गयी है। महज टीआरपी वृद्धि के लोभ में देशहित से समझौता कर विरोधियों को भड़कने का अवसर देना नकारात्मक चेष्टाएं हैं, जिनसे बचने की आवश्यकता है। लाखों लोग दुर्घटनाओं में और हिंसक घटनाओं में मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। पर आतंकियों द्वारा इन निर्दोष व्यक्तियों का मारा जाना, जो आक्रोश उत्पन्न करता है वह पाकिस्तानी भावना के मद्देनजर अधिक वृद्धि को प्राप्त कर लेता है। क्या इन प्रतिक्रियाओं पर तब तक लगाम नहीं लगानी चाहिए, जब तक हमारी सेना आतंक का भरपूर जबाव देने में जुटी हुई है। हमें सेना की सफलता की कामना करनी चाहिए।
देश का हर व्यक्ति स्वार्थी है। यह एक दार्शनिक किन्तु सही वक्तव्य है। इस भौतिकवादी युग में स्वार्थ के परे किसी की दृष्टि नहीं जाती। निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए आतंक से समझौता करना पड़े अथवा शत्रु देशों से मित्रता करनी पड़े, सभी सह्य हैं। पर जब देश की सुरक्षा खतरे में हो यह अत्यन्त निंदनीय है। अभी स्वार्थ के बड़े-बड़े कांड उद्घाटित हो रहे हैं। बड़े-बड़े नेताओं की भ्रष्टाचार में लिप्तता उजागर हो रही है पर वह आक्रोश मुखर होता नहीं दिखता जो उन्हें राजनीतिक मंचों से किनारा करने को विवश कर दे।
इन स्तरों पर जनता समझौता करने मूड में हो जाती है। सीबीआई न्यायालय वर्षों तक कांडों को घसीटकर उसके प्रतिक्रियात्मक आक्रोश को कम कर देते हैं। सामान्य जनता माफ कर देने के मूड में आ जाती है। ये भ्रष्टाचारी क्या देश हितों के साथ समझौता नहीं करते? और वही जनता जो इनका साथ दे देती है, सरकार की हल्की चूक नहीं सहन कर सकती।
आचारों में घोर विरोधाभास दिखता है। यह कपटपूर्ण राजनीति ही है, जिसने देश को आन्जोलित कर रखा है। सत्तासीनता का लोभ सारे सिद्धान्तों से समझौता कर नकली, अस्पष्ट और नितान्त भावनात्मक मुद्दे उठाकर देश को आन्दोलित करने की साजिश करते हैं। अभी हाल में हुए उत्तर प्रदेश के सारे काडों-विवादों और अशान्ति से मूल में ये ही प्रयास दृष्टिगत हो रहे थे।
सीमा सुरक्षा के मुद्दे पर और आतंकवाद से लड़ने के मुद्दे पर एकजुट होने की आवश्यता है। असंगत भावनाओं को फैलने देने से रोकने की आवश्यकता है। जम्मू और कश्मीर को आतंक से मुक्त करने के जो प्रयास किये जा रहे हैं, वे संगत और समीचीन हैं। कहीं से वे गलत प्रमाणित नहीं हो सकते। अभी भारतीय सेना को इसी दृष्टिकोण पर आधारित प्रयत्न करते जाने की आवश्यकता है, ऐसा प्रतीत होता है। अमरनाथ अथवा वैष्णोदेवी स्थल जाने वाले यात्रियों के सन्दर्भ में अधिक सतर्कता की आवश्यकता है। ऐसी घटनाओं के अपराधियों को ढूंढ़ तो निकालना ही है, घटना से सीख लेने की भी आवश्यकता है। यह सच है कि यह एक घटना यात्रियों के मनोबल को तोड़ नहीं सकती।
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