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…फिर हम उन्हें दलित क्यों कहें?

चंद लहरें
चंद लहरें
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देश के इतिहास में एक नया स्वर्णिम पृष्ठ पूरी शक्ति से देश के नागरिकों को जो संदेश दे रहा है, वह यह है कि अतीत के पृष्ठों में अंकित कुछ जातियों पर किये गये जुल्मों से जिस शब्द का हमने निर्माण कर दिया था, वह आज बेमानी हो गया है। वर्तमान संदर्भ में अपना अर्थ खो चुका है। उनका भविष्य अब देश के प्रथम नागरिक की प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। हमने उन्हें सर्वोच्च सम्मान प्रदान कर समस्त उस एक वर्ग को गौरवान्वित किया है, जिसे दलित कहकर हमेशा ही प्रतिष्ठा के लिए प्रश्न वाचक चिह्न लगाकर समाज और राष्ट्र के सम्मुख प्रस्तुत करने की अनैतिक कोशिश की जाती रही। वस्तुतः वे इस अप्रतिष्ठा के अधिकारी कभी भी नहीं थे।

Dalits

आज देश ने उन्हें वह सम्मान देना चाहा है, जिसके वह तब भी अधिकारी थे, जब तथाकथित निम्न श्रेणी के कार्यों से उनका जीवन जुड़ा था। वे समाज का अनिवार्य हिस्सा थे, जिनके अस्तित्व के बिना समाज एक स्वस्थ जीवन नहीं जी सकता था। यह अन्याय कैसे, किनके द्वारा, और किस मानसिकता के तहत हुआ, यह आज हर बौद्धिक मानस जानता है। दोहराने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। दोहराकर शेष समाज में अपराध भावना सृजन करने की चेष्टा करना भी कदाचित आज अनुचित ही है। सामाजिक चिन्तन की वह एक स्थिति थी, जिससे उबरने के हर स्तर पर प्रयत्न किये जा रहे हैं।

–         हां, तो वर्ण व्यवस्था के विकृत होते जा रहे स्वरूप के परिणामस्वरूप प्राप्त गर्हित स्थिति से जैसे वे अकस्मात मुक्त हो गये हैं। उनके लिए की गयी पृथक राजनीति भी बेमानी होगी, अगर समभाव से सभी नागरिकों के विकास का संकल्प दृढ़ हो।
– यह सही है कि वैदिक युग की वर्ण व्यवस्था ने भारतीय जनमानस में उनके लिए जो तिरस्कारयुक्त भावना निर्मित कर दी, उस अशौच से जुड़ी भावना को मिटाना इतना सरल नहीं था। उनके संघर्षों के परिणामस्वरूप प्रयत्न दर प्रयत्न की श्रृंखला ने तरह-तरह की सुविधाएं और आरक्षण प्रदान कर भारतीय संविधान के तहत उन्हें ऊपर उठाने का प्रयत्न करना चाहा। वहीं, स्वार्थी मनोवृत्तियों ने इस भावना को जिलाए रखकर अपना हित साधा। वस्तुतः देश के सम्पूर्ण क्रियाकलापों पर हावी विकृत राजनीति ने देश की तस्वीर पूरी तरह बदलनी नहीं चाही। कथनी और करनी में अन्तर सदैव स्पष्ट होता रहा। जातियों के इस समूह ने सामान्य जातियों के बीच सिर उठाकर खड़े होने की इच्छा अवश्य पाली पर वह हिम्मत नहीं पाल सकी, जिसमें प्रतिद्वन्द्विता की भावना बौद्धिक विकास किए जाने का प्रयत्न, तत्सम्बन्धित निर्भीकता और स्वाभिमान पालित हो सकता।
– वस्तुतः उनका व्यक्तित्व किसी एक युग का परिणाम नहीं, बल्कि युगों-युगों से दबे हुए और प्रताड़ित व्यक्तित्वों की वंशानुगत परिणति रही। उनकी शारीरिक भंगिमा के साथ मानसिक भंगिमा का भी जुड़ाव था। परिणामतः दी गई सुविधाओं का भी बिना अनुमति उपभोग करने में उन्हें कठिनाई हुई। किन्तु आज स्थितियां बदल गयी हैं। उन्होंने सिर्फ अपने विकास के लिए मांगे गये समर्थन की परवाह न कर सबके विकास के नाम पर अपना समर्थन दिया है। अब वे नेताओं के छद्म रूप की असलियत समझने लगे हैं।
शिक्षा के क्षेत्र की सभी वर्जनाओं के समाप्त होने से उन्हें भरपूर प्रोत्साहन मिला है। आरक्षण और अपनी बौद्धिक शक्तियों का सहारा ले वे आगे बढ़ते गये। ये सारी बातें जाति समूह की शत प्रतिशत सच्ची तस्वीर नहीं भी हो सकती, क्योंकि किसी भी जाति समूह में शत प्रतिशत लोग बौद्धिक क्षमता का उपयोग नहीं ही कर पाते हैं। फिर भी उन्होंने अपनी शक्तियों को पहचानना आरम्भ किया और सामान्य वर्ग के बहुत बड़े भाग ने उनके साहचर्य और सामीप्य को स्वीकार किया, सम्मान दिए, उनके हौसले को बुलंद किया और वे बड़े-बड़े पदों पर पदस्थापित भी हुए। देश के सरकारी, गैरसरकारी कार्यालयों के विभिन्न पदों पर सुशोभित तथाकथित दलित जातियों को तो सामान्य से भिन्न स्वरूप में देखना अब कठिन ही है।
यह भी सच है कि मानव मन में पल रही विकृत भावनाएं इतनी जल्दी समाप्त नहीं होतीं। पिछले वर्ष के आरम्भिक महीने में घटित विश्वविद्यालय की घटनाएं, रोहित वेमुला की आत्महत्या से सम्बन्धित घटनाओं ने देश को झकझोर दिया था। लगा जैसे अब भी देश कही स्वतंत्रतापूर्व के युग की विचारधारा में तो सांसें नहीं ले रहा। पर यह ऐसा नहीं था। यह भड़कायी हुई आग थी, जिसमें सारा देश जलने लगा था। वैसे भी एक दो घटनाओं के आधार पर निर्णायक धारणा बना लेना उचित नहीं होता। राजनीति पूरी तरह स्वच्छ और पारदर्शी नहीं हो सकती। राज्यलोलुपता उसके मूल में रहती ही है। जो हर गलत को सही और सही को गलत बताने में माहिर होती है। अम्बेडकर की विचारधारा स्वतंत्रतापूर्व की स्थितियों पर आधारित विचारधारा थी। विचार धाराएं पनपती हैं तो ऐतिहासिक सत्य बनकर अवश्य जीवित रहती हैं पर उन्हीं विषयवस्तुओं को लेकर इतिहास को वर्तमान पर हावी करने का प्रयत्न हास्यास्पद ही हो सकता है। स्वतंत्रता के इतने दिनों पश्चात विकास की जिन सीढ़ियों पर चढ़ उनने आज समाज में अपना स्थान बनाया है, तुलनात्मक दृष्टि से वह भी आज शोध का ही विषय है। आर्थिक विपन्नता तो नहीं पर सामाजिक विपन्नता बहुत हद तक दूर हो चुकी है।

–         मेरी दृष्टि में पहले भी यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या थी और अब भी है। ‘दलित’ शब्द से उन्हें सम्बोधित करना हर किसी पर एक विशेष प्रभाव डालता है। अपने इस वर्गनाम से छूटने का प्रयत्न नहीं कर उसके उपयुक्त दयनीयता वह बलात् अपने व्यक्तित्व में समाहित कर लेता है। ‘हम श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं’ कहते वक्त जैसे उनकी गर्दन तन सकती है, ‘हम दलित हैं’, उनकी गर्दन झुका सकती है। प्रच्छन्न रूप से उनके उद्धार का कार्यक्रम हम अवश्य चलाएं, ठीक वैसे ही जैसे कमजोर सन्तान की दुर्बलता दूर करने का प्रयत्न परिवार के सदस्य भरपूर करते है। पर उसे सशक्त कहकर उसके मनोबल को बल भी प्रदान करते हैं। दयनीयता से मुक्ति ही उनके उत्थान की पहली सशक्त सीढ़ी होनी चाहिए। मानव होने का गर्व उनके अन्दर जाग्रत होना ही चाहिए। अब हम काफी आगे निकल आए हैं, किन्तु इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना कर उन्हें बार बार पूर्व स्थिति का एहसास दिलाकर उनके प्रति कितना न्याय किया, कहना कठिन है। पर हां, संघर्ष की इस दुनिया में घृणात्मक संघर्ष के लिए उन्हें अवश्य विवश कर दिया। सुख-सुविधाएं मुहैया कराने के लिए आर्थिक और पिछड़ेपन का आधार ही पर्याप्त होना चाहिए।
– राष्ट्रपति पद के लिए चुने जाने के बाद ही रामनाथ कोविन्द को गांव-घर के वे दिन, वे लोग याद आए,  जिन्हें बरसात मे चूते छप्परों का सामना करना पड़ता था। सच में वह पुराने दिनों का यथार्थ था। आज इस स्थिति से उबारने की कोशिश तो की ही जा रही है। पर उस मानसिकता को कोई क्या करे, जो इन योजनाओं से सम्पूर्णतः लाभान्वित नहीं होना चाहती। इन योजनाओं की वास्तविकताओं पर उंगली उठाते हैं। यह वस्तुतः कार्यान्वयन की पेचीदगी का परिणाम भी हो सकता है। किन्तु ऐसे नकारात्मक उदाहरण कम ही मिलते हैं। किन्तु पार्टियों का मुद्दे को जिंदा रखने के लिए ऐसे किये जाने वाले प्रयत्नों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर आन्दोलन को वृहत स्वरूप प्रदान करने का श्रेय भी दलविशेष को अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के उन प्रयत्नों को जाता है, जहां वे स्थिति की संवेदनशीलता से बेपरवाह हो जाते हैं। दबी भावनाओं को उभारकर उनसे खिलवाड़ करना तो संघर्ष को जन्म देगा ही। हां, भारतीय समाज के मन में बैठी वह द्वेष की भावना भी कम जिम्मेवार नहीं होती, जो उनके विकास पर हिकारत की पैनी दृष्टि डालने से नहीं चूकती।
देश को इन मुद्दों पर आन्दोलित करने की व्यर्थता का आभास उन्हें तब होगा, जब स्वाभिमान से भरी ये जातियां ही उनकी ललकार को नकार देंगी। हम इस तरह समाज को आगे बढ़ने देना नहीं चाहते।.उनकी सोच को सदियों पीछे ढकेलकर अपनी राजनीति की ढाल बनाना चाहते हैं।
– सच पूछिए तो यह “दलित” शब्द अत्यन्त विवाद का विषय है। जब तक यह उस वर्ग विशेष के लिए प्रयुक्त होता रहेगा, उनके मन में स्थायी विरोध की भावना रहेगी। यह उन्हें सदैव अपने प्रति हुए अन्यायों का स्मरण दिलाता रहेगा और समरसता स्थापित करने में बाधक बनेगा।
– देश सिर्फ हमारा ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय समाज का एक सदस्य भी है, जिस पर सबकी दृष्टि है। इस अन्तर्राष्ट्रीय जगत में हमें हमारे सामाजिक चिन्तन का विकसित रूप प्रस्तुत करना होगा।
अपने आप में ही भेदभाव के परिचायक इस शब्द को जातियों के परिचय जगत से हटाना ही होगा, तभी इस शब्द को लेकर कोई खेल नहीं कर पाएगा, भद्दी राजनीति नहीं कर पाएगा। उत्थान का आधार पिछड़ापन और आर्थिक स्थिति है। हमें इस मनोवैज्ञानिक आधार की अवहेलना नहीं करनी होगी। भारतीय जनसंख्या की बहुत बड़ी शक्ति उनमें निहित है। समाज का जागरूक मध्यमवर्ग भी उन्हें सामान्य नजरिये से देखना चाहता है। इतने बड़े राष्ट्र में इस भावना का स्वतः स्फूर्त होना इतना सहज तो नहीं पर संविधान और जागरूक सरकारों की प्रयत्नशीलता ने उन्हें समुचित स्थान दिलाने में मदद की है। क्या इस वर्ग विशेष के उन लोगों को दलित कहकर हम अपमानित नहीं करते, जिन्होंने ऊंचे-ऊंचे पदों की गरिमा बढ़ायी। आर्थिक रूप से भी उन्नयित होकर सामान्य सामाजिक तबके की समकक्षता हासिल की है। दलित कहकर समाज में भेदभाव पैदा करने का अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए।
– उनमें क्रमशः स्वाभिमान की भावना भरनी है। जहां तक आनुवंशिक स्वाभिमान की भावना का प्रश्न है, समय बहुत परिपक्व नहीं है, पर अर्जित स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। उनके लम्बे संघर्ष से बनायी गयी उनकी जगह का सम्मान होना चाहिए, दलित और आरक्षित कहकर अपमान नहीं।
– आज हमने राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर उस समुदाय के व्यक्ति को प्रतिष्ठित कर उनके यथार्थ विकसित स्थिति को संकेतित किया है। देश के वे प्रथम नागरिक हो सकते हैं, देश की सम्पूर्ण संरचना की वे रीढ़ हैं, ऐसा संदेश देने की हमने कोशिश की है। फिर हम उन्हें दलित क्यों कहें?

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