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शक्तिपूजा का पर्व बीत चुका है। सम्पूर्ण देश में ब्रह्माण्डीय शक्ति की हमने विविध प्रकार से आराधना की है। इस शक्ति के प्रतीकात्मक स्वरूप में हम माँ दुर्गा की अथवा माँ दुर्गा के रूप में परम नारी शक्ति की आराधना करते हैं। यह हमारी मूल संस्कृति है। कभी भी किसी भी युग में भारतीय नारी कमजोर नहीं आँकी गयी। भले ही कुछ विदेशी प्रभावों ने इसकी छवि किंचित धूमिल की, पर कुछ अन्य विदेशी प्रभावों ने ही इसे पुनः सशक्त होने का मार्ग भी दिखाया। कुल मिलाकर एक संतुलित सी स्थिति सदैव बनी रही।
आधुनिक युग ने इसके विकास के मार्ग खोल दिये और समाज के लगभग आधे हिस्से को निर्द्वन्द्व अपनी पहचान बनाने की छूट दी। हम सदैव नारी को संपूज्य मानते ही आए हैं, किन्तु विगत कुछ समय की घटनाओं ने हमारी इस संस्कृति पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। नारियों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं देना हमारी संस्कृति का अंग कदापि नहीं।
आए दिन की वास्तविकताएँ भी ऐसा करने को नहीं कहतीं, पर वास्तविकता तो यह है कि इस देश में अभी भी यह मानसिकता कमोबेश ज्यों की त्यों बनी है कि नारियों को विशेष संरक्षण की आवश्यकता है और उन्हें इस पुरुष प्रधान समाज में उनके पीछे छिपकर रहने की आवश्यकता है। यह मध्ययुगीन विदेशी बुर्कानशीं संस्कृति है, जिसका मोह दुनियाभर की उस आधुनिक संस्कृति ने छोड़ देने में ही अपना कल्याण देखा, किन्तु हम जिसे आज भी ओढ़कर चलना चाहते हैं।
– वर्तमान प्रशासन का प्राचीन संस्कृति मोह लड़कियों या यूं कहें कि नारियों को हर क्षेत्र में आगे लाने से व्यवहारतः अब भी घबराता हुआ सा प्रतीत होता है। मात्र प्रधान नेतृत्व के विचारों से ही देश की सम्पूर्ण जनसंख्या की पचास प्रतिशत नारियों के अधिकारों की रक्षा कदापि नहीं हो सकती। सम्पूर्ण देश की मानसिकता को बदलना हमारा ध्येय होना चाहिए। वह सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण जहाँ से हमारे नेता, हमारे अफसर, हर स्तर के कर्मचारी गण, हमारी सेवा में लगे सम्पूर्ण सरकारी तंत्र के सदस्य आते हैं, उनकी मानसिकता को बदलना होगा।
अपनी योग्यता के आधार पर इस देश की नारियों ने बड़े बड़े पदों पर पहुँचकर नयी नयी उँचाइयों को छुआ ही है, ज्ञान विज्ञान के हर क्षेत्र मे बड़े बड़े मुकाम भी हासिल किए हैं। राजनीतिक क्षेत्र में भी देश का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी अद्वितीयता प्रमाणित करती रही हैं और हम उन पर गर्व महसूस करते रहे हैं, तो रह रहकर उनके साथ विपरीत व्यवहार क्यों करने लगते हैं, यही बड़ा प्रश्न है। आज जब पर्दानशीं संस्कृति से युक्त महिलाएँ भी अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी आवाज बुलन्द करने से नहीं चूक रहीं, तो हम बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में घटित घटना जैसी स्थिति पैदाकर उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने जैसा कार्य क्यों करते हैं। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी तो बिल्कुल तात्कालिक उदाहरण है, किन्तु महिला छात्राओं के साथ इस प्रकार के भेदभावपूर्ण रवैये से अन्य विश्वविद्यालयों की छात्राएँ भी परेशान हैं और उसे अपने विकास के मार्ग में बाधा मानती हैं।
– आज एक समाचार पत्र के जरिए विभिन्न विश्वविद्यालयों की छात्राओं के कुछ वक्तव्य सामने आए हैं, जिसमें उन लोगों ने अपनी बाधित स्वतंत्रता का जिक्र किया है। उन्हें एक निश्चित समय के बाद हॉस्टल से बाहर नहीं निकलने दिया जाता, चाहे लाइब्रेरी में जाकर पढ़ाई करने जैसी आवश्यकता ही क्यों न हो। उनकी वेशभूषा नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है और बहुत से अन्य प्रतिबंध लगाए जाते हैं, जो आज के युग में उनके मन में विरोध की भावना भरती है।
– प्रश्न फिर वही उत्पन्न होता है कि जब सम्पूर्ण विश्व की महिलाएँ स्वतंत्र विचारों के साथ शैक्षिक वातावरण का उपभोग कर अपने व्यक्तित्व का विकास कर रही हैं, तो हमारे देश की नारियों पर इतना प्रतिबंध क्यों। हो सकता है हॉस्टल की प्राशासनिक व्यवस्था इस प्रकार अपनी जिम्मेदारियों को निरापद बना लेना चाहती हो, पर यह प्रशासन की अक्षमता भी तो सिद्ध हो सकती है कि छात्राओं के उचित अधिकारों से उन्हें वंचित करने के मूल्य पर यह संभव होता है। वस्तुतः समान अवसर प्राप्त करने का उनका अधिकार है, जिससे उन्हें वंचित करना कभी भी तर्कसंगत नहीं। प्रशासन को अपनी सक्षमता इस दिशा में प्रमाणित करनी होगी न कि उन्हें बंधनों में जकड़ कर।
– अगर ग्रामीण सामाजिक वातावरण अथवा अर्धविकसित नागरी वातावरण में ये प्रतिबंध लगाए जाते हैं, तो कुछ हद तक ये सह्य इसलिए भी हो सकते हैं कि वैश्विक दृष्टिकोण का वहाँ पर्याप्त समादर अभी भी नहीं है और हम अभी वहाँ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा ही लगा रहे हैं। बातें यहाँ विश्वविद्यालय के माहौल की है, जहाँ सारी बाधाओं को पारकर बेटियाँ पढ़ने के लिए आ चुकी हैं। तब इन पढ़ती हुई बेटियों की आवाजों को हम दबाना क्यों चाहते हैं? यह दोहरी मानसिकता है, जिससे निश्चित तौर पर बचने की आवश्यकता है।
– यह माना जा सकता है कि कभी-कभी शारीरिक रूप से पुरुषों की अपेक्षा कुछ कमजोर होने के कारण वे उनकी अतिचारिता की शिकार हो जाती हैं, पर पुरुषों पर पूर्ण नियंत्रण रखने की बजाए हम बेटियों को ही घर में बन्द कर दें यह न्यायसंगत कदापि नहीं हो सकता। उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने की बजाए, सारी नैतिकता का जिम्मा बेटियों पर ही थोप दें, यह उचित कदापि नहीं हो सकता।
– आज उनके द्वारा उठायी गई आवाज संघर्ष की आवाज है। नारी और पुरुष के प्राधान्य के लिए किया गया संघर्ष अथवा समानता के लिए किया गया संघर्ष। इस संघर्ष में विजयी होना न होना इतना मायने नहीं रखता, जितना यह कि संघर्ष पूरी शक्ति से किया गया है। परिणाम शीघ्र नहीं आते पर अगर संघर्ष ही नहीं किया जाए, तो परिणाम की संभावना ही नहीं रहती। बीएचयू की छात्राओं ने सुरक्षा के लिए कुछ माँगें विश्वविद्यालय प्रशासन को सौंपी थी। वे कुछ सुझाव थे जो बुरे नहीं थे ,किन्तु इस ओर ध्यान नहीं दिया जाना ही उनकी अवहेलना किया जाना है। वस्तुतः विश्वविद्यालय का मस्तिष्क खुला हुआ होना चाहिए। उसमें जाति, वर्ग, वर्ण लिंग के लिए कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। एक आपत्तिजनक कांड के घटित हो जाने के बाद भी उनकी आवाजों को दबा देने का प्रयास और उसके लिए लाठी चार्ज का भय दिखाना निंदनीय ही नहीं अति निंदनीय कृत्य की श्रेणी में ही आएगा।
– इस तरह की स्थितियों में राजनीति तो अवसरों की तलाश में रहती ही है, उसी समय श्री मोदी का वाराणसी का दौरा और स्थान को अशांत करने का प्रयास बना बनाया खेल भी हो सकता है। स्थितियों ने इसके लिए अवसर भी प्रदान किए ही हैं। बजाए छात्राओं की शिकायत सुनने के देर रात्रि में बाहर निकलने पर ही वार्डन ने प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए।
– बहुत सारे समानता सम्बन्धी वैश्विक दृष्टिकोणों को मन में रखते हुए यह प्रश्न बार-बार मन में उठता ही है कि आखिर विश्वविद्यालय के माहौल में लड़कियों पर प्रतिबन्ध लगाना किस प्रकार उचित हुआ। यहाँ तो तर्कसम्मत माहौल की कल्पना की जाती है। समाज में नारियों की बदलती हुई भूमिका और बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को दृष्टिपथ में रखते हुए उनके लिए अनूकूल वातावरण तो प्रदान करने ही होंगे। सारी सामाजिक और राष्ट्रीय भूमिका की तैयारी भी तो विश्वविद्यालयी माहौल में ही होती है। स्त्रियों को आज बहुत सारी स्थितियों में यथा नौकरी, आवश्यक कार्य के लिए देर रात्रि मे बाहर निकलना अथवा देर रात तक बाहर रहना पड़ सकता है। ऐसी स्थितियों से जूझने की प्रेरणा देनी होती है। साहस प्रदान करने की कोशिश करनी होती है न कि उनके हाथ-पाँव बाँध देने होते हैं। अगर यह बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की छात्राओं के साथ किया गया पृथक व्यवहार है, तो किसी दूसरी अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी के व्यवहारों पर टीका टिप्पणी करने का हमें कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।
– हमें अपनी दृष्टि परिवर्तित करने की आवश्यकता है। नारियों को पुरुषों की समकक्षता पुनः हासिल करनी है, इसके लिए प्रशासन को भी सदैव सजग रहने की आवश्यकता है। सोचना सिर्फ यह है कि गलती कहाँ है? स्त्रियों के देर रात घर से निकलने में कि पुरुषों की उन्हें अकेले देख छेड़छाड़ करने की प्रकृति में। दोषी को ही दंडित करना है निरपराध के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाना उचित नहीं।
– जिन अपराधों के भय से ये पाबंदियाँ हैं, उनका दिनोंदिन खतरनाक स्थिति तक बढ़ते जाना भी चिन्तनीय विषय है। भारतीय संस्कृति के पोषक इसे विचारों और वेशभूषा की बढ़ती हुई नग्नता से जोड़कर देखना चाहेंगे, जिसे पिछड़ा समाज पचा नहीं पाता और धृष्टता करने पर उतारू हो जाता है। यह एक कारण हो सकता है, पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस कारण से ही हम नारियों को सदियों पीछे धकेल नहीं सकते। समाज में ही एक अडिग मानसिकता की खेती करनी होगी कि व्यक्तित्व की स्वतंत्रता किसी भी तरह लिंग बाधित नहीं हो सकती। इस मूल विचार की मानसिकता का निर्माण करना ही होगा और यह अगर आधुनिक भारतीय संस्कृति के हर स्तर के परिवेश में यह मानसिकता पूरी तरह समा सके, तो इस नग्नता के होने न होने से कोई फर्क पड़ने वाला नहों होगा। मध्ययुगीन भारतीय पुरुष मानसिकता में बदलाव के लिए ये प्रयत्न तो करने ही होंगे। हम संघर्ष करके आगे बढ़ने वाली और शिखर तक पहुँचने वाली नारियों की कद्र ही नहीं, उन्हें अत्यधिक महत्व भी प्रदान करते हैं, पर शेष को पीछे धकेलने से भी नहीं चूकते।
– भारतीय सामाजिक मानसिकता में यह कशमकश निरंतर जारी है। समाज के इस कशमकश से मुक्त होने पर ही हम प्राचीन सांस्कृतिक माहौल में नारियों के संपूजन का अर्थ समझ सकते हैं और एक साथ उन्हें समान वातावरण प्रदान कर वैश्विक दौड़ में आगे बढ़ा सकते हैं। समग्र चिंतन में यह बदलाव आधुनिक विकसित चिंतन से युक्त लोगों द्वारा ही सम्भव है। निस्सन्देह इस युगानुरूप विकसित चिंतन देने का कार्य विश्वविद्यालयों का ही है। युगानुरूप विकास की धाराएँ प्रवाहित करने का कार्य विश्वविद्यालयों का है, जो वैश्विक श्रेष्ठ चिंतन से छात्रों और उनके ही माध्यम से क्रमशः समाज को भी परिचित कराने का कार्य करता है। उसे उन्मुक्त विकासशील चिंतन का प्रतीक बनना चाहिए। ऐसा नहीं होना उसके वास्तविक कर्तव्य से विमुख हो जाना है।
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