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पटाखों पर प्रतिबंध कितना सही

चंद लहरें
चंद लहरें
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हम बुद्धिजीवियों के साथ एक समस्या है,कि जबतक बातों को हम इस हद तक नहीं छील लें कि उसके चीथड़े उड़ जाएँ,चैन से नहीं बैठते।चाहे उस छीलन में बातों की बहुमूल्य परतें भी क्यों न छिल जाएँ,महत्वहीन हो जाएँ,हमें परवा नहीं होती।बुद्धिजीवियों के साथ ‘हम’ को जोड़ना मात्र उनके सम्भावित चिंतन से जुड़ने के प्रयास के उद्येश्य से ही है। हाँ, तो हम मात्र बहस के लिए बहस करते हैं और विरोध के लिए विरोध,साथ ही बेमानी तर्कों के सहारे प्रमुख मुद्दे को हाशिए के पीछे ढकेल देते हैं।हमारे लोकतंत्र ने शायद इसीलिए हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे रखी है जिसकी रक्षा में हम जी जान से जुटे रहते हैं। ,जैसा दृष्टिगत हो रहा है –वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में हर कार्य को धार्मिक दृष्टिकोणों से देखने की हमने एक आदत सी बना ली है। कम से कम इस नजरिये से बातों को छीलकर वातावरण में गर्माहट और कड़ुवापन भरना भी हमें स्वीकार्य होता है।
—अभी अभी दिल्ली और एन सी आर में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध ने उन सारे नजरियों परविचार करने की उन्हें छूट दे दी है जिसमें धर्म के चश्में या आर्थिक हानि लाभ के आकलन की आवश्यकता होती है।सामाजिक वातावरण में दीपावली के पर्व मे पटाखों की आवश्यकता बच्चो की इच्छापूर्ति के लिए भी महसूस की जाती हैअतः वह दृष्टिकोण भी महत्वपूर्ण हो जाता है।मन के भीतर छिपी वैभव प्रदर्शन की प्रतियोगिता की भावना भी छिपे स्वरूप भें अवसर गँवाना नहीं चाहती।अगर कुछ नहीं विचारणीय होता है तो यह कि हमारी दिल्ली विश्व के सबसे बड़े प्रदूषित शहरों में एक है और प्रदूषण की स्थिति इतनी बुरी होती है कि साँस लेने तक में कठिनाई का अनुभव होता है।हवा में फैली जहरीली गैसों का ही प्रभाव होता है , जिसके शिकार हमारे फेफड़े हो जाते हैं।जरा उनसे भी जानकारी प्राप्त करने की कोशिश कर देखें कि आम दिनोंकी उनकी श्वास सम्बन्धी समस्या की इस प्रदूषित वायु के कारण क्या स्थिति रहती है। पिछले वर्षों की गैस चैम्बर जनित स्थिति को अगर लोगों ने विस्मृत कर दिया हो तो हम ऐसी स्मृति और सहनशीलता को क्या संज्ञा दें समझ में नहीं आता।हवा में किन जहरीले गैसों की कितनी मात्रा होती है,इन आँकड़ों मे गये बिना भी साँस लेने में कष्ट महसूस होने पर कभी भी लोगों को घर छोड़ अन्यत्र जाना पड़ता है तो क्या यह सभ्य विचारवान समाज की समस्या नहीं होनी चाहिए?पटाखों से ध्वनि प्रदूषण की समस्या सेभी सभी परिचित हैं तब भी यह समस्या उनके लिए इतना विचारणीय नहीं जितना यह कि दीपावली पर्व हिन्दुओं का हैऔरपटाखे चलाने अनिवार्य है।उसके बिना त्यौहार फीका है।यह एक धर्मपरम्परा है जिसके निर्वाह में अड़चन नहीं आनी चाहिए।वे विचार करना चाहते हैं कि आखिर हिन्दुओं के त्यौहारों पर ही रोकटोक क्यो?
–अब ये प्रश्नवायु प्रदूषण से सम्बद्ध तो कदापि नहीं।हाँ उस मन्तव्य से सम्बन्ध जरूर रख सकते हैं कि दूसरे धर्मों के त्योहारों में रोकटोक नहीं कर सकते पर हिन्दुओं के त्यौहारों पर आक्रमण निर्द्वन्द्व होकर कर सकते है।तरह तरह के प्रतिबंध लगते हैं कभी जलीकट्टू पर कभी दही हाँडीपर या फिर कभी कभी मुहर्रम के ताजिए के निर्विघ्न निकल जाने के लिए दशहरे में मूर्ति विसर्जन की राहों पर और न जाने कितने प्रतिबन्धों का सामना इन्हें करना पड़ता है और लगता है कि इनकी परम्परागत खुशियों के प्रकाशन पर इस तरह आंच आती रहती है।पर यह विषय वर्तमान समस्या से बिल्कुल ही इतर है।पर इन विषयों के प्रकाशन के लिए उपयुक्त अवसर भी यही प्रतीत होते हैं।अतः उनकी दृष्टि से इनका प्रकाशन अनिवार्य होता है।प्रश्न हमारेलोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता के सही रूप से व्याख्यायित नहीं होने पर भी उठा दिया जा सकता है।
— ये बिल्कुल ही दो विरोधी विषय हैं। एक पर्यावरण प्रदूषण से सम्बन्धितऔर दूसरा तुष्टीकरण की मानसिकता से सम्बन्धित ।किन्तु ऐसे अवसरों पर सवाल उठाये जाने से नहीं चूकते।मीडिया को भी ऐसे अवसरों की तलाश सी रहती है।यह निराशाजनक स्थिति है।इस बौद्धिक जगत को एक बार ऐसे प्रयोग को स्वीकार कर यह देखने की भी कोशिश करनी चाहिए कि प्रदूषण के स्तर पर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का कैसा प्रभाव पड़ता है। हो सकता है जनसाधारण केमन पर इसका विपरीत असर हो पर कुछ अनुकूल परिणाम उन्हें भी सोचने को विवश कर सकते हैं।
— यह सहीहै कि इस समय वायु प्रदूषण का सारा जिम्मा हम पटाखों पर नही थोप सकते।सड़क पर गाड़ियों की बढ़ती संख्या ,डीजल के प्रयोग निकटस्थ राज्यों के प्रदूषित वायु का सीधा आगमन आदि भी अन्य कारण हैं ।इनका भी समाधान अपेक्षित है ।, सरकार ने इस ओर ध्यान भी दिया है। आड इवन के तरीके भी अपनाए गये । पर इन विषयों के कारण धार्मिक उन्माद को हल्की सी हवा मिल सकती है और विवाद व्यर्थ ही बढ़ जा सकते हैं।
–प्रश्न उन पटाखा उत्पादकों के हित से भी जुड़ा है, उनके लाभ हानि के विषय भी विचारणीय हो जाते हैं ,जिन्हों ने व्रर्ष भर पटाखे बनाए है और जिन्हें दीवाली पर अधिकाधिक बिकने कीउम्मीद पाल रखी है और जो उनके जीवन यापन का साधन है। पर यह खपत दिल्ली में अवश्य ही अधिक होती हो पर देश के अन्य हिस्से जहाँ प्रदूषण की समस्या इतनी विकराल न वहाँ तो इनकी खपत हो ही सकती है जहाँ लोग दीवाली मनाने को समान रूप से समुत्सुक हैं। हाँ , खपत में कमी हो सकती है। पर अगर वे दिल्ली स्थित पूंजीपतियोंके हाथों बेचकर अधिक से अधिक बटोर लेने का लोभ का थोड़ा सँवरण कर सकें तो अच्छा हो।पूरी शिवकाशी जहाँ पटाखे बनते हैं और देश की नब्बे प्रतिशत पटाखों के जरूरत की पूर्ति करते हैं, दिल्ली और उसके आसपास के इलाके पर ही निर्भर नहीं हैं। सम्पूर्ण देश में आनेवाले पर्वों और महत्वपूर्ण अवसरों पर इनकी माँग में कोई कमी नहीं हो सकती।
—सरकारी बन्दिशों में कहीं न कही छिद्र होते हैं या उदारतापूर्वक छोड़ दिए जाते हैं।प्रतिबन्ध पटाखों की एक नवम्बर तक बिक्री परलगाए गए है,उनके छोड़ने पर जिन्होंने पटाखे पहले खरीद रखे हैं वे उनका उपयोग कर सकते हैं। यह एक प्रावधान ही सम्पूर्ण रूप से प्रतिबंध को नकार देने के लिए काफी है। समझ में नहीं आता कि यह कैसा प्रतिबंध है और कैसी छूट!क्या इसी बहाने घर-घर पटाखे नहीं पहुँचेंगे और दिवाली पर नहीं छूटेंगे!!अगर इस तरह की उदारता बरतनी ही थी तो कुछ खास- खास पटाखों पर प्रतिबंध लगा कम धुएँ और ध्वनिवाले के विक्रय की इजाजत दी जा सकती थी।
—स्वच्छता प्रेमी पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए कुछ कुर्बानियाँ देने को तत्पर रहें तो बड़ी बात होगी।हाथों मेंझाड़ू लेकर अगल बगल के कचरों को साफ करना ही पर्यावरण की स्वच्छता नहीं। प्रदूषण के बड़े-बड़े कारक तत्वों पर हमारी दृष्टि जानी ही चाहिए।अगर बकरीद पर बकरी की बलि देनाअथवा बड़े पशुओं की बलि देना किसी धर्मशास्त्र में लिखा है तो उन्हें एकदम से समझाना अत्यंत कठिन है पर हमारे धर्म शास्त्रों में तोदीपावली का अर्थ दीप सज्जा से है।वे भी मिट्टी के सुन्दर दीप ,कुम्हारों की जीविका और वर्षाकाल के कीट पतंगों का अंत।अब तो बिजली के रंग विरंगे लट्टुओं का युग है।चमचमाती लड़ियों कायुग।उससे हम परहेज नहीं कर सकते।पर पटाखों को जलाए जाने कीकही विशेष चर्चा नहीं दीखती अग्नि क्रीड़ा. की जाती होगी तो विशेष अवसरों परही। और इसेविशेष अध्यात्मिक उपलब्धि के रूप मेंही देखा जाता होगा। कहते हैं कि चीन में नवी शती में ही इसे ईश्वरीय शक्ति के रूप में ढूंढा औरदेखा जाने लगाथा। मूलतः गन्धक की चट्टानों के रूप मे धरती मे छिपी इस अग्नि कीसर्वत्र खोज हुयी औरधीरे धीर अग्नितीर का निर्माण हुआ जिसकी चर्चा रामायण महाभारत काल में भी हुयी। अस्त्र शस्त्र के रूप में तोपो मे गोले बारूद के रूप मे यह मुगल काल मेप्रयुक्त हुआ ,पर अपने विकसित रूपोंमें कब पटाखे, आतिश बाजियो का स्वरूप धर यह हर त्यौहार की खुशियों का अंग बन गया ,सही सही कहना कठिन है।सम्पूर्णविश्व की खुशियो को जाहिर करने का एक नायाब ढंग बन गया। अगर हम आज इसे अपने पारंपरिक हर्ष प्रगटीकरण का ढंग मानते हैं तो आपत्ति तो नहीं है पर यह पर्व मूलतःशान्त कार्तिक अमावस्या की रात्रि मे घर आँगन में जगमगाते दीपों का है।यही दीपावली की प्रमुख शोभा है। तुलसी दास ने घर घर मणिदीप जलाए जाने की चर्चा की है।मन की खुशी और शान्ति का प्रगटीकरण था यह।यही लक्ष्मी का स्वागत भी था।
–परिभाषाएँ बदल गयी हैं,हम बदल गये हैंऔर हर सरकारी स्तर लिए गए निर्णयों को शक भरी आलोचना कीनिगाहों से देखना चाहते हैं जो देश के लिए हमेशा स्वस्थकर तो नहीं ही है, अनुचित भी है।
आशा सहाय 11 –10—2017

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