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हमारा देश निरंतर वैचारिक संघर्ष से गुजरता प्रतीत हो रहा है। एक ओर तो बड़ी-बड़ी वैश्विक उपलब्धियों के लिए सतत् प्रयत्नशीलता विचारों में प्रदर्शित होती है, हम मानवता के नाम पर उन देशों के जरूरतमंदों को आज की स्थितियों में भी वीसा देते हैं, जब जम्मू-कश्मीर मे उन्होंने छद्म युद्ध ही छेड़ रखा है। नित्य ही सेना के जवान मारे जा रहे हैं। यह हमारी आदर्श विचारधारा का प्रगटीकरण है। सरकार की इन विचारधाराओं पर हमें कभी आपत्ति नहीं हो सकती।
वहीं, दूसरी ओर कुछ नेता गण ऐसे विवादास्पद वक्तव्य देते रहते हैं, जो वातावरण की समरसता पर चोट पहुँचाते रहते हैं। हालाँकि प्रगटतः बातें अब कुछ पुरानी हो गयी हैं, पर दिल में घर की गयी बातें कभी पुरानी नहीं होतीं। इन बातों को दिल से निकालना ही पार्टी विशेष के लिए सही कदम हो सकता है। लाख समरसता की कोशिश वे क्यों न करें, लाख मुस्लिमों की भलाई और उस समाज की उन्नति की सच्चे दिल से वे तरह-तरह की योजनाएँ क्यों न बनाएँ, ये वक्तव्य सभी पर पानी फेर देने का कार्य कर सकते हैं।
ताजमहल अब एक ऐतिहासिक विश्व धरोहर है। वह इस देश के भू-भाग की सम्पति है। उसे चाहे जिसने बनाया और जिस उद्देश्य से बनाया, वह आज की तारीख में मायने नहीं रखता। देशों में जाने कितनी सभ्यताएँ आती रहती हैं और एक ठोस शक्तिशाली राज्य के विरोध के अभाव में शासक जाति बनकर अपनी सभ्यता की पहचान बनाने की कोशिश करती हैं। राजतंत्रीय व्यवस्था के अंतर्गत उनका विरोध करना कठिन होता है, क्योंकि विरोधों को अपनी सैन्य शक्ति से वे कुचल दिया करते हैं।
यूं तो आज के हमारे भारत का अस्तित्व ही विविध सभ्यताओं का मिला-जुला स्वरूप है। सभ्यताएं वे, जिन्हें अगर हम भारतीय सभ्यता का अंग न मानें, तो भारत अधूरा रह जाएगा, उसका क्षेत्रफल सिमट जाएगा। हमारा सम्पूर्ण दक्षिणी प्रायद्वीप, द्रविड़समुदाय अथवा भूमध्यसागरीय प्रजाति, सम्पूर्ण उत्तर पूर्वी पर्वतीय अंचल, उसका मंगोल उद्गम और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में बसे प्रोटो आॅस्ट्रेलियायी समूह के लोग जिनकी पहचान मुण्डा भाषा में खोजी जा सकती है और जिस भाषा से मिलती जुलती भाषा-भाषी लोग अफ्रिकन देशों में भी बिखरे हैं, ये सबके सब भारतीय भूमि में बाहर से ही आए होंगे और कई-कई किश्तों में आए होंगे।
ये कैसे आए पता नहीं पर मूल भारतीयता का निर्माण इन्होंने ही किया होगा और ये आर्य जिनकी सभ्यता और संस्कृति को हम गले लगाए बैठे हैं, ये भी तो बाहर से ही आए, पशुचारण के लिए। उसके पहले एक विकसित संस्कृति थी यहाँ, सिन्धु घाटी की सभ्यता, मोहन्जोदड़ो और हड़प्पा की, जिसके साथ हम मनु संस्कृति को जोड़ते हैं। अगर यही मूल भारतीय संस्कृति थी, तो बाकी सब विदेशी संस्कृतियाँ ही थीं। किसे छोड़ें, किसे गले लगाएँ।
यह तो प्राक-ऐतिहासिक काल का सत्य बड़ी खोजबीन के बाद उद्घाटित हुआ, किन्तु गुप्त काल में, यूनानी, शक, हूण कुषाण आदि जातियों ने भी बाहर से आक्रमण ही किया था। सबों ने अपने प्रभाव छोड़े। हम भारतीयों ने विरोध किया पर हमेशा सफल नहीं हो सके। क्या उनका अप्रत्यक्ष प्रभाव हमारी जीवन शैली पर नहीं पड़ा? तुर्क, अफगान अरब और पुर्तगाली भी आए। संस्कृति में सूफियों के दलों ने भी योगदान दिया। ये सब या तो आक्रमणकारियों के रूप में या इस क्षेत्रविशेष के उदार खुलेपन का लाभ उठाते हुए आए।
मुगल तो बहुत बाद में आए, दिल्ली सल्तनत से मुक्ति के लिए राणा सांगा ने स्वयं बाबर को आमंत्रित किया था। हमने उन्हें पूरे होशोहवास में आने दिया। हमारे अपने अन्तर्कलह के कारण उन्हें प्रवेश मिला। यह एक सशक्त जाति थी, जिसने हम पर पूरी शक्ति से लम्बे काल तक शासन किया। अन्ततः उनकी नीतियों के कारण लाख सताए जाने पर भी वे हमें स्वीकार्य हो गये और सबसे अन्त में आए अँग्रेज, जिनके अंग्रेजियत की छाप वर्तमान भारत की सम्पूर्ण जीवन शैली में आधुनिकता और अत्याधुनिकता के माध्यम से समायी हुयी है। इनमें से किसी का विरोधकर, उनके चिन्हों को बर्बाद करने की बात हम सोच भी नहीं सकते। यह इसलिये कि यही विकास की गाथा है।
हर राष्ट्र को इस कालगत विकास की गाथा को स्वीकार करना होता है, क्योंकि उस पर काल के पदचिह्न अंकित होते हैं। जिस प्रकार दक्षिण में बिखरे मंदिरों को हम अपनी सम्पत्ति मानते हैं, क्रिश्चियैनिटी के विभिन्न प्रकार के पूजागृहों ( चर्च) को इस देश के अभिन्न अंग के रूप मे स्वीकार करते हैं, बौद्धों और जैनियों के अराधना स्थलों को देश की संस्कृति का अंग मानते हैं, मुगल समुदाय के ऐसे स्थलों की भी कद्र करते हैं, पीरों के मजार पर अब हिन्दू धर्मावलंबियों की भी भीड़ होती है। बिना इस सामाजिक समरसता के हम वर्तमान भारत की कल्पना नहीं कर सकते।
भारत का यही स्वरूप विश्व में आदर का पात्र रहा है। यह तो सचमुच चिन्तन का विषय है कि इन मुगलों के साथ आयी एक विशिष्ट स्थापत्य कला जिसने दक्षिणी, राजस्थानी अथवा अन्य देशीय स्थापत्य कला से थोड़ा अलग स्वरूप ग्रहण किया, वह देशीय भवन निर्माण कला से भी प्रभावित था। भवन निर्माण करने वाले देशी शिल्पी थे, जिन्होंने सारे भारतीय शैलियों को मिश्रित कर इसे अनूठी विशिष्टता प्रदान की। (
लोक प्रचलित कथाएं ही नहीं बहुत सारे इतिहासकारों का भी इंगित है कि उन्होंने मूल मन्दिरों के गर्भगृहों को तोड़कर बहुत सारे मस्जिद बनाए। पर तब इस शासकीय कृत्य का कोई विरोध नहीं कर सका। अब जब ताजमहल जैसा स्मारक विश्व धरोहर के रूप में जाना जाने लगा है, सौन्दर्य और स्थापत्य की दृष्टि से विश्व का सातवां अजूबा माना जा रहा है, तो हर तरह के गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की जा रही है। इस बात से बेपरवाह कि इस तरह सामाजिक समरसता खतरे में पड़ सकती है। तत्सम्बन्धित जो वक्तव्य दिये जा रहे हैं, उसकी कसमसाहट अभी तक वर्तमान है।
प्रथमतः संगीत सोम ने जो बातें कही कि मुगल पीरियड को उनकी पार्टी इतिहास से निकाल देगी। आखिर ऐसे वक्तव्यों के मूल में वैमनस्य या घृणा की जो भावना उजागर होती है उसका कारण क्या बस इतना है कि उनकी संस्कृति हमसे भिन्न है, उनकी अराधना की विधियाँ अलग हैं, वे मूर्ति पूजा विरोधी हैं और हमारे मन्दिरों को इसीलिए उन्होंने नष्ट किया। किन्तु तब जब वे यहाँ शासन कर रहे थे, क्यों उनके साथ युद्ध कर उन्हें पराजित नहीं कर सके? क्यों उनके साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित कर शान्ति का मार्ग अपनाया? अंग्रेजों के आने के पूर्व तक उनकी अधीनता ही नहीं, बल्कि रस्मों-रिवाजों में भी साथ निबाहते रहे।
यह सामाजिक समरसता बनाए रखने की हमारी अत्यन्त प्राचीन सदाशयता है, जिसे बौद्धिक भारत कभी नष्ट नहीं होने देना चाहेगा। अपने उटपटांग वक्तव्यों से संगीत सोम जैसे व्यक्तित्व अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारना चाहते हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप लोकप्रियता हासिल करने को इच्छुक ओवैसी के बयान कि ‘तब लालकिले पर मोदी जी को झंडा नहीं फहराना चाहिए’ एक सटीक प्रतिक्रिया है, जो वस्तुतः आमंत्रित की गयी प्रतिक्रिया है।
अफसोस तो इस बात का है कि जिस त्वरित गति से उस कथन का विरोध होना चाहिए था, कड़े कदम उठाने चाहए थे, वे नहीं उठाए गए। ताजमहल के सम्बन्ध में यह कहना कि भारतीय शिल्पकारों द्वारा निर्मित होने के कारण वह विशिष्ट है, यह भी अंदरुणी विषाक्तता को ही बल प्रदान करता है। सीधे-सीधे देश के शिल्प का अन्यतम नमूना नहीं कहना उसके संरक्षण और विकास के लिए किए सारे महति प्रयत्नों सा झुठला देता है।
कवियों, साहित्यकारों ने उसे प्रेम का प्रतीक मान, जो उसके सौंदर्य के गुण गाए थे, वे सब व्यर्थ हो गए। कभी-कभी सामाजिक सौहार्द स्थापित करने के लिए कड़वी सच्चाइयों को गटकना भी पड़ता है। पर इसी बीच विनय कटियार का यह रहस्योद्घाटन कि ताजमहल का निर्माण शिव मन्दिर को तोड़कर किया गया है, सही अथवा मिथ्या तथ्यों को कुरेदने जैसा ही है। अगर यह सत्य है तो जाने कितने मंदिरों के संदर्भ में सत्य है, जिन्हें तोड़कर मस्जिदों में परिवर्तित किया गया, तो क्या सारे मस्जिदों को तोड़ देने की अनुमति भारतीय समाज दे देगा?
अतः इन बातों का बार-बार उठाए जाना बेहद बेतुका कदम है। अभिमान और गर्वोक्तियाँ किसी तरह भला नहीं कर सकतीं। ये आत्मघाती वक्तव्य हैं। प्रतिक्रियास्वरूप आजम खाँ का यह कहना कि यह तो अन्तर्राष्ट्रीय दबाव है अन्यथा ये ताजमहल को डायनामाइट से अब तक उड़ा दिए होते, क्या सटीक प्रतिक्रिया नहीं है? तो हम प्रतिक्रियाओं को आमंत्रित करते हैं। यह तो दुनिया सिकुड़कर छोटी हो गयी है, डेमोक्रेसी का आदर करने लगी है, उसके समस्त गुणदोषों के साथ।
हमें सबकी सभ्यता और संस्कृति को सम्मान देना है। किसी का तिरस्कार वह बर्दाश्त नहीं कर सकती। संघर्ष हमारे मध्य नहीं, यह तो बनाए गये संघर्ष हैं। यह अबौद्धिकता का प्रसाद है। हमारे मन में शायद इतना कड़वा जहर नहीं। ये वे कल्पनाएँ हैं, जो कभी सच नहीं हो सकतीं। यह भारतीयता के विरुद्ध है। ऐसी कल्पनाएँ पालना आत्महनन के समान है। हमारे देश की मिली-जुली संस्कृति हमारे लिए गर्व की बात है।
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