Menu
blogid : 21361 postid : 1365812

धर्म, अध्यात्म और वर्तमान जीवन –सत्य

चंद लहरें
चंद लहरें
  • 180 Posts
  • 343 Comments

सचही कहा है कि धर्म और अध्यात्म जीवन के ऐसे दो रंग है,जो दिखते तो एक दूसरे के करीब जैसे , एक दूसरे से गड्डमड्ड होते से, पर अपने अर्थों मे बिल्कुल ही पृथक अस्तित्व रखते हैं।चूकि अध्यात्म हमें जीवन सत्य की ओर उन्मुख करता हैऔर धर्म भी ऐसे ही मानव निर्मित सिद्धांतों पर टिका होता है,जिसके व्यावहारिक पक्ष के द्वारा सैद्धातिक तालमेल स्थापित करने की चेष्टा की जाती है,और सामान्य जनमानस को अध्यात्म की ओर उन्मुख किया जाताहै, भ्रम उत्पन्न होने की प्रबल संभावना होती है।अध्यात्म चिंतन का विषय है और धर्म उसका व्यावहारिक पक्ष।पर, यह पूरी तरह सत्य इसलिए भी नहीं हैकि धर्म के स्वयं का व्यवहारिक पक्ष देश और काल ते गंध का भी संवाहक होता है।वह देशकाल सापेक्ष होता है जबकिअध्यात्म की अवधारणाएँ देशकाल निरपेक्ष।अध्यात्म गहन चिंतन द्वारा काल, ब्रह्माण्ड ,जीवन जगत के उत्स ,आत्मा परमात्मा की अवस्थिति को और जीव के तदनुसार कर्मों की स्थायी व्याख्या करना चाहता है। आत्मा जो हमारा सत्य स्वरूप है,और परमात्मा का अभिन्न अंग है,वह सत्यपरक हैऔर सम्पूर्ण जीवनयात्रा का प्रेरक तत्व है।जीवों कीसमानता में विश्वास करता है।फलतः मानवता का जनक हैअध्यात्म हमें भटकाता नहीं,बल्कि धर्म के उद्धतकदमों को भटकाव से रोकता हैऔर सही जीवन धर्म की ओर प्रेरित करता है।स्वस्थ मानस ,स्वस्थ शरीर के द्वारा सन्तोषजनक समृद्ध जीवन की ओर उन्मुख करता है।
भारतीय अध्यात्म का ग्राह्य स्वरूप अब वेदान्तों में परिललक्षित होता है।सदा से आए अदृश्य ब्रह्म से सम्बद्ध दो विचार धाराएँ—द्वैत और अद्वैत को एकमार्गीय दर्शन यहीं प्राप्त होता है।कार्य कारणस्वरूप ब्रह्माण्ड की सारी गतिविधियों, हर दृश्य ,अदृश्य का सृजनकर्ता कारकतत्व एक ही ब्रह्म है.। वही कारण भी और वही कार्य भी। उपनिषद् भी ऐसा ही कहते हैं।ब्रह्माण्ड का विस्तार भी वही है और उसका लयात्मक स्वरूप भी वही।परिणामतः सारे जीव, स्थूल और सूक्ष्म जगत में वही व्याप्त है।सारी शक्तियाँ उसी का विस्तार है।
वस्तुतः धर्म को इसका व्यवहारिक पक्ष होना चाहिए।क्योंकि इन सिद्धान्तों के अनुसार विहित कर्म या जीव जगत के प्रति कर्तव्य ही धर्म के अन्तर्गत होने चाहिए।पर धर्म की शुद्धता पर काल और स्थान हावी हो जाता है।उससे प्रभावित हो तद्जनित मिट्टी और वातावरण से संयुक्त हो काल जनित परिस्थितियों के अनुकूलन की प्रक्रिया में नयी नयी रीतियों रिवाजों का भी वह अनुगामी हो जाता है, परिणामतः स्थान स्थान में उदित जातियों के अध्यात्म का व्ययवहारिक पक्ष अथवा धर्म पृथक -पृथक सा प्रतीत होने लगता है।दोनों ही वास्तविक जगत में अपनी अपनी व्याख्याओं के लिए गुरुओं की खोज करते हैं।
धार्मिक गुरुओं में जिन्होंने धर्म को अभीतक जोड़कर रखने का प्रयास किया है,शंकराचार्यों की उपस्थिति को स्वीकारा जा सकता है।वैसे हमारे यहाँअरविन्द ,विवेकानन्द आदि ने अध्यात्म की अच्छी व्याख्या की है, विवेकानन्द जो विश्व में इसके झंडे गाड़े उसे कोई कैसे विस्मृत कर सकता है। श्री रामकृष्ण उनके गुरु थे,उन्हें भी विस्मृत नहीं किया जासकता। व्यावहारिक जगत में इसकीउपयोगिता और स्वीकार्यता हेतु श्री श्री रविशंकर ने सतुत्य प्रयास किये है।आर्ट आफ लिविंग के द्वारा मानवता के प्रसार हेतु निरंतर कार्यरत हैं।वैसे विभिन्न संप्रदायों के गुरु भी अध्यात्म के विषय में समान मन्तव्य प्रगट करउसकी कुछ अलग अलग ढंग से व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं।
तात्पर्य यह कि दोनों एक दूसरे से जुड़े भी हैं और व्यवहारतः पृथक भी।हमने शास्त्रों के अनुसार जो युगों के विभाजन किए हैं उसके अनुसार सत्ययुग में धर्म चार चरणोंपर टिका था त्रेता तीन द्वापर दो और वर्तमान कलियुग मे यह एक चरण पर ही टिका है।किन्तु यह भी कथित है किअत्यल्प धार्मिक आचरण वाला भी मोक्ष का अथिकारी हो सकता है।और धर्म का यह स्वरूप मानवता के प्रति न्याय का स्वरूप है।
धर्म सदैव से मानवतामूलक है।चाहे वह तथाकथित हिन्दुधर्म हो ,बौद्ध हो जैन हो,सिख हो अथवा अन्य कोईभी।इस दृष्टि से राम हमारे आदर्श हैं जिन्होंने प्रत्येक अवसर पर प्रत्यक्ष रूप से मानव धर्म का पालन किया।बाल्यपन से लेकर अंत तक मानवीय आदर्शों की स्थापना की।चरित्र की पवित्रता पर बल दिएऔर मानवीय संबंधों के निर्वाह के साथ आसुरी प्रवृतियों पर विजय प्राप्त करने का संदेश दिया। आज राम के बहुत सारे कार्यों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाता है पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुलसी केराम जिनकी हम अराधना करते हैं वे त्रेता के राम हैं तो–पर मध्ययुगीन समस्याओं के निरकरण हेतु विशेष आदर्शों से युक्त है।वे मध्ययुगीन तुलसीदास के राम हैं वाल्मीकि के नहीं।उपरोक्त तीनों प्रयोजनों से तब मानव जीवन केलिए सही राह निर्देशित करने की चरम आवश्यकता थी। त्रेता के राम उनके आराध्य हैं ,,पर उसके मानवीय आदर्श स्वरूप का चित्रण उनका लक्ष्य।अतः राम चरितमानस के राम ही हमारे आराध्य बने जिनमे करोड़ो करोड़ प्रजा अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ सकती थी।राम का यह स्वरूप समान सामाजिक राजनैतिक समस्याओं सेग्रस्त राज्यों, राष्ट्रों में थोड़े बहुत स्वरूप परिवर्तन के साथ संपूज्य हुआ।हर मध्यकालीन सभ्यता में राम के इस स्वरूप का चित्रण अवश्य है। वस्तुतः राम के इस स्वरूप की प्रत्येक युग को आवश्यकता हैअतः वे प्रत्येक युग के राम हैं।
एक और संपूज्य स्वरूप कृष्ण का हैजो राजनीति, गूढ़नीति और कूटनीति के संस्थापक से प्रतीत होते हैं।कृष्ण का आध्यात्मिक स्वरूप भारतीय अध्यात्म के सर्वथा अनुरूप है।ब्रह्म, जीव ,आत्मा ,परमात्माकी सम्पूर्ण व्याख्या है उसमें।इसलिए उसे समय समय पर दैवी चमत्कार से युक्त दिखाया गया है,उसके प्रत्येक कर्मऔर लिए गये निर्णयों को आध्यात्मिक मूल्यों से पुष्ट करने की चेष्टा की गयी है।कहा जाता है कि ब्रह्म की सोलह कलाओं से युक्त स्वरूप ही कृष्ण का है।युगचेताहै वह।कृष्ण का मनमोहक स्वरूप,गोपियों के साथ मनमोहक संबंधउन्हें जन जन का मनमोहन बना देता है—परिणामतः अधिक लोकप्रिय भी।क्रूर कंस का वध,अपनी कूटनीतियों से कई समाजविरोधी तत्वों की समाप्ति एक नये राजनीतिक युग को जन्म देती है।.कृष्ण इसलिए भी अधिक लोकप्रिय हैं।कृष्णनीत कार्यो के प्रति प्रश्न उठते अवश्य हैं,पर सारे प्रश्नों के उत्तर कुरुक्षेत्र में प्रदर्शित उनके विराट स्वरूपऔर दिए गयेअतः आज भी उतनी ही सटीक गीता के उपदेशों में ढूँढ़ लिए जाते हैं ।.अतः अगर हमारे आचरणों में कृष्ण द्वारा दी गयी व्याख्याओं की झलक मिलती है ,तो हम निज के आचरणों से असन्तोष का अनुभव नहीं करते।कृष्ण का व्यक्तित्व सम्पूर्ण युग के आचरणों को एक व्याख्या प्रदान करता है।वे द्वापर और कलियुग के संधिकाल की व्याख्याएँ हैं। अतः आज भी उतनी ही सटीक प्रतीत होती हैं।शैव और शाक्त विचारधाराओं के प्रतिकात्मक आराध्य भी भारतीय अध्यात्म केप्रचलित धार्मिक स्वरूप से जुड़ी हैं। ये आस्थाएँ भी सम्पूर्ण भारतीय समाज में गहराई से व्याप्त हैं।
युग आज कुछ अधिक भ्रष्ट आचरणों का सहारा लेकर विकास प्राप्त कर रहा है।भ्रष्टता की संभावना सदैव रहती है।यह पतन का मार्ग है,.अतःअत्यधिक आसान भी।अगर काल के शास्त्रीय विभाजन के आधार पर मानवीय जीवन के विकास की व्याख्या करें तो सत्ययुग से लेकर कलियुग यानि आज की अवस्था तक के विकास की कहानी आचरणों के सतत पतन की कहानी मी है।व्यक्ति गौण औऱ भौतिक उपलब्धियाँ प्रधान हो गयी हैं।धर्म से अध्यात्म लुप्त होता जा रहा है।वाह्याडम्बर शेष रह गये हैं,जिनसे धर्म के मात्र वाह्य स्वरूप लक्षित होते रहते हैं। उसके आभ्यंतर स्वरूपकी रक्षा के लिए अगर कदम उठाए जाते हैंतो अनैतिक आचरणों का सहारा लिए जाने की तीव्र संभावना रहती है।तांत्रिक सिद्धियाँ और वर्तमान में ढोंगी बाबा समुदायके आचरणों नेउसके आध्यात्मिक स्वरूप परआघात किया है।कृष्ण के चरित्र का लौकिक पक्ष औरउसका विविध प्रकार से रूपायण उसके मूल आध्यात्मिक स्वरूप को विस्मृत कर देता है।रह जाता है एक लालित्य, एक सम्मोहन,जो कृष्ण से जुड़कर अनुकरणीय तो हो जाता है परउसमें मूल आत्माका अभाव हो जाता है।
एक समाज ,जिसे विकृतियों से मुक्ति पाने के लिए आदर्श सिद्धान्तों की स्थापना की आवश्यकता है,चरित्र गठन मेंआदर्शों के अनुपालन की आवश्यकता है,समाज के पारिवारिक और सामाजिक स्वरूप के सौन्दर्य को बनाएरखने के लिएआदर्श स्नेह सूत्रों की आवश्यकता है,कृष्ण -व्यक्तित्व के कुछ लोकप्रिय पक्षों का अनुकरण उनपर पानी फेरने जैसा कार्य भी कर सकता है।
-एक आदर्श धार्मिक स्वरूप-के रक्षण के लिएआज बौद्धिकता की आवश्यकता है।तर्क वितर्क के आधार पर नव समाज के गठन की आवश्यकता है।धर्म के वाह्याडम्बर जनित तत्वों के उच्छेदन और मूल भावनाओं के प्रति स्थापन की आवश्यकता है।पूजा-पाठ आदि कर्मकांडों का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।वे जीवन के उस खालीपन को भरते हैं जो भौतिक संघर्षमय जीवन से उत्पन्न आध्यात्मजनित रिक्तता कही जा सकती है।कुछ भी करके ईश्वरको प्रसन्न करने की भावना,अधिक समृद्धि की कामना,संतानादि अथवा स्वयं के सुख चैन की कामनाके लिए एक ऐसे अव्यक्त के प्रतिभक्ति निवेदन अथवा हाथ जोड़ने की भावना है,जो अध्यात्म से किंचित जुड़ा है, सबकुछ करने में समर्थ है , चमत्कारिक शक्तियों का स्वामी भी है ।तज्जन्य सारे रीतिरिवाज शुद्धता अशुद्धता ,प्रार्थना कीर्तनादि सब उसी अव्यक्त को प्रसन्न करने की चेष्टाएँ हैं।
मानो तो देव नहीं तो पत्थर।अगर कण कण में उस अव्यक्त की सत्ता की बात आध्यात्मिक दृष्टिकोण से करते हैं,तो शिला पर्वत वृक्ष कीट पतंग,मनुज पशु या किसी भी जीव व जड़- जंगम मेंविशेष शक्तियों की कल्पना कर,हम उसे पूजित करते हैं।भावनाओं के आधार पर प्रस्तर मिट्टी या धातु विशेष से मूर्तियाँ गढ़कर उस अव्यक्त की ही अराधना करते हैं।कहीं कुछ गलत नही है,पर भावना की प्रधानता होनी चाहिए।
रास्ते तो हमेशा से दो रहे हैं।तप त्याग की राह—साधु- सन्यासी बन ,विश्व के प्रपञ़्चों से मुक्त हो मोक्ष की कामना,जो एक सुरक्षित अध्यात्मिक मार्ग हैजिसमें सांसारिक भटकाव नहीं है।पर इसमार्ग पर चलना अत्यन्त कठिन है। हर काल मे इस मार्ग से भटकाने वाले सांसारिक प्रलोभन हैं। सुरा,सुन्दरी औरवैभव के प्रलोभनों पर विजय पाना सरल नहीं..।बड़े बड़े तथाकथित गुरुओं और साधुओं ,स्वामियों का हश्र आज सर्व विदित ही है।अतःमानव समाज के सामाजिक मानवीय धर्मों का निर्वाह करते हुए मन की पवित्रता को बनाए रखने का मार्ग,जीवन को पवित्र सोद्येश्यता से जोड़ने का मार्ग भी एक वरणीय मार्ग है।ऐसा जीवन भी आध्यात्मिक जीवन की श्रेणी में ही परिगणित होगा।राजा जनक सा,–सभी कर्तव्यों को करते हुए भी विदेह बन जाने की राह। कर्तव्य चाहे व्यक्ति के प्रति हों, समाज के प्रति अथवा राष्ट्र के प्रति, वे व्यक्ति –धर्म के अन्तर्गत ही आते हैं ।
हमारा आदर्श वही होना चाहिए।यह व्यवहारिक आध्यात्म के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण है।आज के युग को हताशा निराशा अपराधों ,,भ्रष्टाचार और अमानवीय व्यवहारों का युग जब हम मानते हैंतो अपनी नकारात्मक दृष्टि का ही परिचय देते हैं।दृष्टि की उस संवेदनशीलता को भुला बैठते हैं जो एक अन्तर्धारा के रूप में विश्व-समाज- समुद्र के अन्तर में सतत प्रवाहित होती रहती है। उपर की छोटी बड़ी लहरें अपनी स्वतंत्र पहचान ढूँढ़ती हैंपर तटपर पछाड़ें खा अपना अस्तित्व खो देती हैं।नकारात्मक दृष्टि से देखेहुए समाज के उन दृश्यों का यही हश्र होता है।ये वे बुलबुले होते हैं जो भीतर से शून्य होते हैं,उठते हैं मर्यादाओं को लाँघते हुए,नकारात्मक भावनाओं और चेष्टाओं के रूप में,और पुनःमुख्य धाराओं विलीन होने को विवश हो जाते हैं।तब,हम कहतेहैं कि समाजकर्तव्यों से, धर्म से विमुख होता जा रहा है।वस्तुः ऐसा पूर्ण सत्य हो ही नहीं सकता।परिस्थितिजन्य और युगजन्य लक्ष्यों को पाने के लिएअहर्निश संघर्ष में लीन मानवों की क्रियाएँ,अथवा आदिम भावनाओं की विकृतियों से युक्त असभ्य हरकतें कुछ अधिक प्रकाश में आ रही हैं।लोग पूर्व की अपेक्षा अधिक असहिष्णु हो रहे हैं। एक अच्छा संकेत होते हुए भी यह मन पर सदैव नकारात्मक प्रभाव ही डालता है।विभिन्न प्रकारकी मीडिया को दोष तो दे सकते हैं पर वे भी सम्पूर्णतः दोषी नहीं हो सकतीं ,क्योंकि इन्हें उजागर कर वे सम्बद्ध अधिकारी वर्ग का ध्यान भी आकृष्ट करते हैं।, न्याय प्रणाली कोभी झकझोरते हैंपर अधिक प्रभाव सामान्य जन-मानस पर पड़ता है,फलतःसर्वत्र अपराध ही दृष्टिगत होने लगते हैं। समाज का स्वस्थ स्वरूप ओझल हो जाता है।यह नकारात्मक स्थिति होती है।
किन्तु हमारा यह देश जिसके दिल में राम और कृष्ण बसते हैं, जिसका आध्द्यात्म विश्व- संपूज्य है,और प्रत्येक भारतीय के अंतर में बसता है,कभी इतना नहीं भटक सकता कि अमानवीय हो जाय।यह युग मानवता रूपी धर्म का संवाहक है।और सम्पूर्ण विश्व इसके संरक्षण में प्रयासरत है।अतः अधिक डरने की आवश्यकता नहीं।
हम बातें युग की,राम और कृष्ण की करते हैं,, मानव- धर्म की करते है तो हम कहाँ भटक रहेहैं यह जानना उचित है। राम और कृष्ण तो अपने मानववादी आदर्शों को लेकर वैश्विक हो रहेहैं,, पर हम सिकुड़ रहे हैं।जब हम युग को मानवतावादी विचारधाराओं से जोड़ते हैं तो उसमें राष्ट्रीय सीमाओं के लिए स्थान नहीं रहता।चिंतन बंधनहीन होता है।जाति पाति धर्मजनित उन्मादों का कोईअस्तित्व नहीं रहता।.किन्तु व्यवहारों में हम यहीं सिमट कर रह गए हैं।अपने ऊलजलूल वक्तव्यों और प्रयासों से इसे संकट में डालते रहते हैं।राष्ट्रीयता के नाम पर मानव भावनाओं का हनन करते हैं।राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता के सीमाजनित बंधनों से आगे जाकर जब हम सोचेंगे तभी अपने मन की भावनाओं को जबर्दस्ती दूसरों पर थोपने की कोशिश नहीं करेंगे,।मानव को उसकेस्थान ,जलवायु, कालजनित अस्तित्व को स्वीकार कर उसकी गंदगियों को आध्यात्म जनित चिंतन के आधार पर दूर करने को कोशिश तो करेंगे पर हर स्थिति में घृणात्मक युद्ध से बचेंगे।
राष्ट्र का अस्तित्व तो है ,रहेगा।कालखंडों में उसका परिवर्तित रूप उसकी शाश्वतता पर अवश्य प्रश्नचिह्न उठाता है,,बल, पौरुष, से उसके वर्तमान स्वरूप की रक्षा करने को हम सन्नद्ध भी रहते हैं पर प्रश्न सदैव उठता है कि हम राष्ट्र के लिए हैं या राष्ट्र का अस्तित्व हमारे लिए?दोनो एक दूसरे के लिए हैं।यह बात हमारे विचारों को राहत देती है।परजहाँ मनवतावादी दृष्टिकोण का प्रश्न है यह राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्र की सीमाओं के अधीन नहीं रहता।और तब सब बेमानी हो जाते हैं।हम भारतमाता की जय कहैं ,न कहें,हम सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के लिए खड़े हों न हों ,अतीत के हिस्सों को अपने उपर लादें या न लादें—अगर हम सब का पेट भर सकें जीवन यापन की कुछ सुविधाएँ दे सकें, मानवमात्र में मानव केलिए प्रेम की भावना उत्पन्न कर सकेंतो सारे धर्मों और उसके वास्तविक आध्यात्मिक चिंतन की सार्थकता सिद्ध हो जाए।काश! ऐसा हो सके!

आशा सहाय 4—-11-2017

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh