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इतिहास को लेकर इधर कई तरह से जागरुकता फैल रही है। कुछ लोग इतिहास को मेटने को आतुर हैं और कुछ लोग उसमें जरा भी हेर-फेर नहीं चाहते. उसे अपनी अस्मिता से जोड़कर बवाल खड़ा कर देने में विश्वास करते हैं। इतिहास मेटा तो नहीं जा सकता, वह कालसत्य है और अगर पन्नों में सुरक्षित है। पन्ने ताम्रपत्र के हों, भूर्जपत्र हों, कागजों के हों अथवा अन्य किसी भी प्रकार के। पन्ने लोकमानस के भी होते हैं, जो दीर्घजीवी होते हैं, पर स्वरूप में परिवर्तनों की संभावना रहती है।
कुछ इतिहास के पन्ने फट जाते हैं, जल जाते हैं, कीड़ों द्वारा चाट लिए जाते हैं, क्योंकि हमारा तंत्र उनकी रक्षा करने में नाकामयाब होता है। जाने कितने पुस्तकालय नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय जैसे जला दिए जाते हैं। किन्तु जनमानस में वही इतिहास कई बिन्दुओं से जाग्रत रहता है, परम्परा के सूत्रों को पकड़कर। जनपरम्परा के माध्यम से जीवित इतिहास में जन-जन के माध्यम से परिवर्तन होता रहता है। सौन्दर्यीकरण होता रहता है। विषयवस्तु एवम घटनाओं के माध्यम से जन-जन को प्रभावित करने वाले विषय बिन्दु खोज निकाले जाते हैं। उन्हीं को प्रकाशित करने के लिए गाथाओं के रूप परिवर्तित किए जाते हैं।
इतिहास की कथा को जागृत रखने का अभिप्राय भी यही होता है। मात्र शुष्क घटनाक्रमों को जीवित रखना इसका उद्येश्य नहीं होता। यही भूल तो इतिहासकारों ने की है। वे राजाओं के युद्धों, विजय-पराजयों को, तत्सम्बन्धित घटनाओं को इतिहास की संज्ञा देते रहे। जनभावनाओं को उससे कुछ दूर ही रखा, क्योंकि जनभावनाएँ शासकों की भावनाओं से दूर का सम्बन्थ रखती थीं। वे या तो पूर्ण विरोध करती थीं अथवा घोर समर्थन। बीच की भावनाओं के लिए कम ही स्थान होता था।
अभी बहुचर्चित विषय पर इस दृष्टि से अनायास दो शब्द कहने की कोशिश करना चाहती हूँ। वह है एक फिल्म कथा, जिसकी जोर-शोर से आलोचना हो रही है। उसका मूल विषय है पद्मावती और अलाउद्दीन का प्रेम-प्रसंग, जो नागवार प्रतीत हो रहा है। चाहे वह स्वप्न में हो या जाग्रत अवस्था में। वस्तुतः अगर यह इतिहास में वर्णित सम्पूर्णतः विरोधी तथ्य है, तो विरोध के स्वर उठने स्वाभाविक हैं।
मगर प्रश्न यह है कि पद्मावती की कथा ली कहाँ से गयी है? अगर वह मलिक मुहम्मद जायसी की प्रेम गाथा सम्बन्धी मसनवी शैली में लिखी गई काव्य गाथा पद्मावत, जिसे महाकाव्य तक का दर्जा प्राप्त है, से ली गयी है तो उसके इतिहास को खँगालने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। पद्मावती का इस नाम से कोई अस्तित्व था भी कि नहीं कहा नहीं जा सकता।
नारी लक्षणों के आधार पर सिंहल द्वीप में पद्मिनी नारियों की कल्पना की गयी है और ठीक विपरीत लक्षणों वाली को शंखिनी कहकर पुकारा गया है। कहीं उन्हीं लक्षणों के आधार पर वह कोई पद्मिनी तो नहीं थी, जो उस द्वीप में सिद्ध योगियों की सिद्धि में अपने सौन्दर्य से बाधा उत्पन्न करती थी। कहते हैं शिव के अवतार गोरखनाथ को भी वहीं सिद्धि प्राप्त हुयी थी।
रत्नसेन ने उसे कैसे प्राप्त किया था, प्रेम-प्रसंग किस प्रकार उत्पन्न हुए और परवान चढ़े, इन सभी का वर्णन जो पद्मावत में है, वह पूर्ण गैर ऐतिहासिक सिद्ध है, पूर्णतः काल्पनिक है। घटनाएँ भी काल्पनिक हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के सिद्धांतों के परिपोषण के लिए रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का सहारा लिया गया। शिव-पार्वती को भी सम्मिलित किया गया। मसनवी शैली में लिखा यह काव्य अर्धसत्य घटनाओं पर आधारित है, जिसमे रत्नसेन और पद्मिनी के विवाह तक का प्रसंग, योगी रत्नसेन आदि का प्रसंग पूर्ण कल्पित है, पर लोकगाथाओं में हीरामन सुआ की चर्चा इसकी लोकप्रियता का प्रमाण अवश्य प्रस्तुत करता है।
उत्तरार्ध में इतिहास के कुछ अंश जीवित हैं। इतिहास के किन अंशों को फिल्म में लिया गया और किसे छोड़ा गया है, यह तो निर्माता या वे जानते हैं जिन्होंने उसे देखा है। मेरा उद्देश्य तो यह कहना है कि पद्मावती के अधूरे सत्य से युक्त और एक दार्शनिक विचारधारा से युक्तकथा को जब इतनी प्रधानता मिल गयी कि कथा घर-घर प्रचारित हो गयी और सत्यकथा का दर्जा पा गयी, तो इतिहास का कहाँ कुछ बिगड़ा? वह इस प्रेमकथा के माध्यम से कुछ सँवर ही गया। हिन्दू-मुस्लिम के मन की भावनाओं की समानता और उसके आदान-प्रदान का माध्यम बन गया। अलाउद्दीन वहाँ भी खलनायक ही है। उसकी कथा को आधार मानकर अगर फिल्म बनी है, उसमें कथात्मक जोड़ घटाव तो हुए ही होंगे। आज के सौन्दर्य की मानक परिभाषाओं को आधार बनाया ही गया होगा।
मुगले आजम का निर्माण जब हुआ था, जोधाबाई को अकबर की पत्नी बनाना, जहाँगीर के प्रेम प्रसंग का अति विस्तारीकरण, शीशमहल में अनारकली का नृत्य आदि और कथा का न जाने कितने तरह से विस्तार क्या वास्तविकता का रूपायण करता है? यह सब विभिन्न प्रकार से प्रचलित लोककथाएँ और आईने अकबरी पर आधारित तथ्य ही रहे होंगे। वह भी कितने सत्य और कितने मुगल राजनीति से प्रेरित होंगे, कोई नहीं जानता। आगरा के महल में देखे छोटे से शीश महल और भव्यता प्राप्त शीशमहल में आसमान-जमीन का अंतर ही तो था। निर्माता ने दर्शकों के दिलों में अकबर और सलीम का नया रूप ही गढ़ दिया।
इतिहास निर्माता के प्रयोजन और जनता को दिए जाने वाले संदेश के अनुसार कलाजीवियों के हाथों नये-नये स्वरूप ग्रहण करता है। यह उनका अधिकार होना चाहिए। अगर मात्र इतिहास के घटनाक्रमों को ही याद रखना है तो रटकर उसे याद रखना हो सकता है, वह किसी कला का विषय नहीं बनता। रानी पद्मावती के जौहर, राजा रत्नसेन अथवा भीमसेन के प्रसंगों और अलाउद्दीन की जिद के प्रसंग इतिहास में हों पर वे फिल्म के प्रस्तुतिकरण में महत्वहीन भी हो सकते हैं।
दो स्थानों पर दो तरह से इतिहास वर्णित यह प्रसंग है, जिसमें पद्मावती कहीं रत्नसेन की रानी हैं तो कहीं भीमसिंह की। कहीं वह सोलह हजार रानियों के साथ जौहर करती हैं, तो कहीं वह भीमसी के साथ सती हो जाती हैं। कौन सी कथा सत्य है, जिसके लिए इतना बवाल मचा है। यह उस समय की मानसिकता थी जो आज मात्र कटुता पैदा कर रही है। जौहर और सती हो जाना आज प्राचीन नारियों के नकारात्मक साहस के भग्नावशेष हैं, जिन्हे भव्यता प्रदान कर दी जाती है। अतः इन आधारों पर कथा को तिरस्कृत करना पूर्णतः बेमानी है।
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