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अखबार आजकल गुजरात चुनावी दंगल की खबरों से भरा पड़ा है। टेलीवीजन के पर्दे पर वाग्वाणों से एक दूसरे को विद्ध करते महत्वपूर्ण शख्सियतों की असलियतें उभर कर सामने आ रही हैं। पर यह तो मौसमी ज्वार है कुछ दिनों मे सिर्फ प्रभाव ही शेष रह जाएंगे। पर देश के सामाजिक बंधनों, सम्बन्धों को तार-तार करनेवाली जो समस्या रह-रहकर चौंका देती है, जिसका कोई स्थायी निदान नहीं मिलता वह है बच्चों और किशोरों में बढ़ते हुए अनैतिक व्यवहारों की समस्या। निश्चय ही इसके दो पक्ष हैं –बच्चों और किशोरों के द्वारा किए गये ऐसे व्यवहार और बच्चों और किशोरों के प्रति किए गयै अनैतिक व्यवहार।
ऐसा नहीं है कि यह समस्या कोई आज की है और सिर्फ भारतवर्ष की है। यह विश्वजनीन और आदिम स्थितियों से भी जुड़ी है। किन्तू आज यह विशेष रूप से उजागर हो रही है क्योंकि जब सम्पूर्ण विश्व उत्तरोत्तर सभ्य होने का दावा कर रहा है तो असभ्यता का एक केन्द्रबिन्दु आखिर इस वर्ग के बाल और किशोर क्यों बन रहे हैं। अखबारों में छपे और टीवी चैनलों मे प्रकाशित एक खबर ने अनायास ही ध्यान आकृष्ट कर लियाकि इन्फारमेशन और ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टरीटी वी चैनलों को आदेश दिया है किवे सुबह छःबजे से रात दस बजे तक कोई कॉन्डोम ऐड प्रसारित न करें। आश्चर्य इस बात पर है कि इतनों दिनों से इस एड के द्वारा होने वाले दुष्प्रभावों की ओर सम्बद्ध मंत्रालय का ध्यान क्यों नहीं जा रहा था।
मात्र कॉन्डोम ऐड के प्रसारण ही नहीं, बहुत सारे ऐसे प्रचार आते हैं जिनमें अतिरिक्त खुलेपन का सहारा लिया जाता है। वे कम घातक नहीं। टेलीविजन एक ऐसा मनोरंजन का साधन है जिसे देखने से कोई किसी को नहीं रोक सकता। इसने सम्पूर्ण विश्व को हर मायने में सबके करीब ला दिया है। सभी देखते हैं आबालवृद्ध। इन प्रसारणों पर बच्चों की जिज्ञासा चरम पर रहती है। इस जिज्ञासा का सही उत्तर परिवार जन अगर नहीं देते तो अन्य साधनों और स्रोतों से उसे जानने की कोशिश करते हैं। हमारे देश मेंअभी बच्चों की न वह परिपक्व मानसिक स्थिति है और न समाज ही इतने अधिक खुलेपन का पक्षपाती हो सका है कि जीवन की साँगोपांग पारदर्शिता सबके सामने परोस सके। वे अगर ऐसा करते हैं तो युवावर्ग से लेकर प्रौढ़वर्ग तो तब भी उस दृष्टि से असरहीन होते हैं पर बाल और किशोर मन तत्सम्बन्धित उत्सुकता को दबा नहीं सकते जिसका परिणाम होता है बाल- यौन –अपराध, किशोर यौन –अपराध, जिसकी बढ़ती संख्या आज हमें बेतरह चौंकाने लगी है।
हम इसे अनैतिक करार देते हैं।पर यह एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है। बाल से किशोरवय में प्रवेश का संघिकालबहुत सारी विकृतियों को जन्मदेता है।किशोरावस्था की समस्याओं से हर जागरुक अभिभावक और नागरिक परिचित होता है। इस अवस्था की बड़ी सावधानी से निगरानी की आवश्यकता है। बच्चों को सही तरीके से यौन शिक्षा देने की जरूरत है और उससे जुड़े नैतिक अनैतिक पक्षों को स्पष्ट करने की। हर जगह यह एक बढ़ता हुआ कदम है।
आज विश्व का चिकित्सा विज्ञान किशोरों अथवा बड़ों द्वारा बाल यौन उत्पीड़न को, शोषण अथवा यौनाचार को एक विशेष संज्ञा से अभिहित करता है।और, उसके लिए चिकित्सकीय समाधान भी ढूंढ़ता है। वे इसे पीडोफीलिया की संज्ञा देते हैं दवाईयां भी दी जाती हैं जो मानसिक विकलांगता से भी जुड़ी होती हैं। पर यह स्थिति मनोरोग प्रमाणित होने पर उत्पन्न होती है। पर सामाजिक रूप से ऐसे कृत्यों का बहिष्कार, दंडव्यवस्था, उसको घृणित करार देना भी कारगर उपाय हो सकते हैं। किन्तु, अगर ये सारी समस्याएं मनोरोग से जुड़ी हैं तो समय पर बच्चों किशोरों को चिकित्सकीय परामर्श देने का कार्य मां बाप अथवा अभिभावक का होता है।
वयस्कों द्वारा बच्चों का यौन शोषण के लिए उनकी मानसिक विकृति जिम्मेदार होती है। अगर यह लत है तो उसकी भी चिकित्सा की आवश्यकता है। कहना तो यह है कि सारी सामाजिक संस्थाएं, शैक्षिक संस्थाएं और मीडिया को तत्सम्बन्थित जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिये कि विशेषकर बच्चे किशोरों को इस मनोदशा मे न पड़ने दें। सम्हलकर ही दृश्यों को परोसें। इस सम्बन्ध में पूर्णजागरूकता अपेक्षित है।
आशा सहाय।
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