Menu
blogid : 21361 postid : 1379780

लालूयादव और उसके बाद

चंद लहरें
चंद लहरें
  • 180 Posts
  • 343 Comments

घोषित आपतकाल के बाद उभरे नेताओं मेंलालू प्रसाद यादव ने एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।यह नेतृत्व तो जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन के प्रसादस्वरूप उनके समाजवादी सिद्धांतों से जुड़ने  कांग्रेस पार्टी द्वारा लादेगये आपत्काल के विरोध और मानवाधिकारों  के हनन के विरोध मेंप्राप्त हुआ था अतिरिक्त मुखरता और व्यक्तित्व की दबंगता इनकी जातिगत पहचान से जुड़ी विशेषताएँ ही रहीं।समाज का अभिजात्य समझा जाने वाला वर्ग इनके लाठियों का भय खाता ही रहा।उनके व्यवहार सदैव उजड्ड विनम्रतासे युक्त ही रहे।अतःनेता के रूप में उभरने में लालू यादव को विशेष समय नहीं लगा।यों भी विश्व विद्यालय में छात्र संघ के नेता के रूप में उनकी छवि पहले से प्रतिस्थापित थी ही।पृष्ठभूमि बनी हुयी थी। चुनावों मे तत्सामयिक परिस्थितियो के कारण वे विजयी हुए और जब मुख्यमंत्री रूप मे  उन्हें बिहार का नेतृत्व करने का अवसर मिला तो उनकी खुशी के इजहार का यह स्वरूप पटना के घर –घर में प्रचारित हो गया था-माई –हथुआ राज मिल गईल । अगर यह अभिव्यक्ति सत्य ही इस प्रकार की थी तो स्वयं ही गणतंत्रात्मक स्वरूप से विजयी व्यक्तित्व पर व्यंग्य करती सी प्रतीत हुयी।यह उस पूर्ण स्वामित्व की हुलसित घोषणा थी जिसका भारतीय संविधान की गणतंत्रात्मक पद्धति कभी समर्थन नहीं कर सकती।उन्होंने वस्तुतः इसे इसी रूप में लिया भी।

चाहे जो हो, पर अचानक लालू यादव की कोशिशें भी सामाजिक बदलाव की दिशा में तेजी से कार्यरत हुईं।एकबारगी ही वे पिछड़े वर्गों ,दलितों और जैसे तैसे जीवन गुजाने वालों के लिए मसीहा बन गए।उन्हें सभ्य और साफ सुथरे ढंग से रहने की कला सिखाते दिखने लगे।पटना की सड़कों पर इस प्रकार केसामुदायिक केश कर्तन ,सामुदायिक स्नानादि के कार्यक्रम बहु प्रचारित हो गये। उन्हें आवास आवंटित किए गये और एक बार तो सारे प्रशासनिक महकमें में यह स्वर गूँजा कि सामाजिक उत्थान के कार्यक्रम अब थमने वाले नहीं—शुरुआत हो चुकी है।अब वापस नहीं मुड़ना।  सामाजिक गलियारों में यह चर्चा का विषय बन गया कि यह एक क्रान्तिकारी प्रयास है और विद्वत्जनों ने इसे शुभ संकेत ही माना।बदलाव लाने की यह इच्छा आभिजात्य समझे जाने वाले वर्गों की दृष्टि में भी तिरस्करणीय नहीं थी। यह सबों को ग्राह्य होती अगर इस इच्छा के पीछे इन वर्गों के प्रति घोर आक्रोश और घृणा की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें भूरे बाल की संज्ञा न दे दी जाती और उनको साफ करने का आह्वान न कर दिया होता। सामाजिक वैषम्य को बढावा देने वाला यह कदम किसी को रुचिकर नहीं लग सकता था।

हर बौद्धिक वर्ग सामाजिक समरसता को पसन्द करता है।सैद्धान्तिक रूप से तो वह इसका विरोध करही नहीं सकता।यह समय की माँग और स्वस्थ मानसिकता की पहचान होती है।किन्तु एक साथ उनके सामाजिक वर्चस्व को समाप्त कर देने कीघोषणा ने लालू यादव के प्रति धीरे धीरे विरोध की भावना भी भरने  भरने लगी। मगर तबतक लालू यादव ने समाज के उस बड़े वर्ग पर न केवल अपनी पकड़ ही बना ली बल्कि उनकी तरह तरह की आपराधिक प्रवृतियाँ को भी जाने अनजाने संरक्षण मिलने लगा।चुनावी हथकंडों में लाठियों के जोरसे अनैतिकता का सहारा लिया जाने लगना, बूथ कब्जा, मतपेटियों का बदल दिया जाना आदि लोगों की जुबान पर चढ़ गये।उनके स्वागत योग्य कदमों ने घोर अराजकता का माहौल उत्पन्न कर दिया।

समाजवाद का मुखौटा पहने लालू यादव कायह चेहरा विरोधी दलों और अन्य सामाजिक न्याय को लेकर उभरे दलों को बहुत भाया । लालू यादव की केन्द्रीय राजनीति में भूमिका  किंग मेकर के रूप में देखी जाने लगी। केन्द्र के संप्रग  शासन के दौरान  रेल मंत्री के रूप में भी उन्होंने काफी प्रयोग किए ।स्टेशनों पर लिट्टी चोखा के स्टॉल लगे ,रेलवे ने यात्रियों . को कुल्हड़ की चाय सर्व करनी आरम्भ की  ।इन कदमों की बिहार के विशेष व्यंजन की पहचान और कुम्हार तबके की रोजी रोटी से जोड़कर देखा जाने लगा।  कुछ प्रयोग अव्यवहारिक होने के कारण अधिक दिनों तक चलने वाले नहीं थे अतः नहीं चल सके।अपनी विशेष शैली की भाषा के कारण उन्हें मिली जुली प्रतिक्रियाएँ मिली । संभ्रान्त कहा जानेवाला एक वर्ग जो बड़े राजनीतिक नेताओं से संभ्रान्त भाषा की उम्मीद करता था,  उसे सड़कों को हेमा मालिनी के गाल के समान बना देने वाली भाषा रुचिकर नहीं लगी।पर विदेशों में अपनी इस प्रकार की चलती असंभ्रान्त भाषा को लेकर भी वे चर्चित हो गये। उनके सामाजिक बदलाव जनित कार्यक्रमों ने प्रसिद्धि दिलायी ही। काँग्रेस के भ्रष्टाचारों के विरोध से उभरे इस नेता ने स्वयं के लिए खुले रूप में भ्रष्टाचार का खेल खेला और छिप कर अर्जित करने की नीति का सांकेतिक रूप से तिरस्कार  किया। तत्सामयिक समाज में यह विशेष चर्चा का विषय रहा।

लालू यादव ने भारतीय राजनीति मे  राबड़ी देवी जैसी निपट घरेलु महिला कोमुख्य मंत्री के पद पर बलात बैठाकर अभूतपूर्व साहस का कार्य कियाथा ,जोभारतीय संविधान के प्रावधानों का  मखौल उड़ाता सा प्रतीत हुआ।  अपने राजनैतिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बिहार राज्य को अन्धकूप में ढकेल दिया ।  इतना बड़ा राज्य जो भारतीय राजनीति की  सदा ऐतिहासिक प्रयोगशाला का दर्जा पाता रहा एक बार फिर ऐसे हाथों में चला गया जिसने अपनी राजनीतिक किंचित अनभिज्ञता के कारण  दिए गए my समीकरण के लालूयादव के महामंत्र के जरिए,भाइयों का सहारा ले  शासन  किया, आगेभी बढ़ीं  ।पर  इस दौरान राज्य में अराजकता बढ़ती गयी और राज्य पिछड़े राज्यों में शुमार किया जाने लगा ।चोरी, डकैती,अपहरण ,हत्याओं की घटनाएँ बढ़ीं ,ट्रेनों में सफर असुरक्षित हो गया। किसे कौन सी धमकी कब मिल जाए, कहना कठिन हो गया।शासन का यह स्वरूप निश्चय ही अत्यधिक अरुचिकर रहा।

बिहार में जातीयता का प्रभाव सदा से रहा है पर लालू रावड़ी के शासन काल में यह जातीय भेद भाव के चरम पर पहुँच गया।लालूयादव ने पिछड़ों दलितों के लिए आवाजें सदैव उठाई, मुस्लिमों के हितों को संरक्षण देने का कार्य किया, ।परिणामत  चुनाव न लड़ पाने के वावजूद उनकी लोकप्रियता बनी रही।  जनाधार बना रहा ,  । यह सच है कि पशुपालन घोटाला ,  कोषागारों से धन राशि निकालनेके कार्य में उनकी प्रत्यक्ष लिप्तता नहीं थी पर उनके शासनकाल में हर स्तर के  भ्रष्ट पदाधिकारियो और व्यापारी समुदाय के  द्वारा किए गए कार्योंको उनका संरक्षण मिला  और उसका सम्पूर्ण फल उन्हें प्राप्त होता रहा।साधाण बाबुओं के धर बड़ी बड़ी कोठियों में परिवर्तित होने लगे थे। बिना राजनीतिक संरक्षण के ऐसा संभव नहीं था।

अन्ततः लालू यादव दोषी करार दिए गए अभी साढ़े तीन साल का कारावास उन्हें मिला है । अन्य मामलों मे अभी निर्णय आने बाकी हैं। हो सकता है उन्हें जमानत मिल जाए पर सक्रिय राजनीति में उनकी भूमिका अवश्य ही आहत हो गयी सी प्रतीत होती है। इसकी शुरुआत नितीश कुमार केभाजपा के साथ चले जानेके साथ ही  हो गयी है। उनके जनाधार को बनाए रखने में तेजस्वी यादव की भूमिका निजी व्यक्तित्व के जरिये मददगार नहीं हो सकती पर वे और राजद के अन्य सदस्य शोर शराबा अवश्य कर सकते हैं।जगन्नाथ मिश्रा का छूट जाना,ब्राह्मण समुदाय से होना , यू पी सीएम ,योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध मामले को दबा देना , नितीश कुमार के समय हुए घोटाले की जाँच आदि शोर –शराबे को जाग्रत रखने का प्रयत्न अवश्य करेंगे । जहाँ तक जातीय उन्माद का प्रश्न है सुशासन के माध्यम से, विकास कार्यक्रमों के माध्यम सेउसे दिशा दी जा सकती है।

परन्तु, लालू यादव के सहयोगी अभी भी उनकी मदद के लिए जेल जाने को तत्पर हैं।उनके दो कृपापात्र लक्ष्मन महतो और मदन यादव कृत्रिम  चोरी के आरोप में स्वयं सरेन्डर कर उनसे पहले जेल पहुँचउनकी सेवा में तत्पर हैं। उनकी लोक प्रियता का यह एक छोटा सा उदाहरण हो सकता है। कुशाग्रबुद्धि लालू यादव कारावास के दौरान भी अपने अनुयायियों को शक्ति प्रदान करते ही रहेंगे।वैसे देश के विपक्ष को अवश्य झटका लगा है पर वह  भी  लालू यादव में नेतृत्व नहीं खोज रहा। लालू यादव का परोक्ष सहारा अवश्य खोज रहा था। विपक्ष की राजनीति राहुल गाँधी की आवाजों को धार देने पर केन्द्रित हो सकती है।2019 के चुनावों तक अन्य कौन सा नेतृत्व कमान संभाल सकता है ,यह समय ही सिद्ध करेगा।

आशा सहाय

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh